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कहानी- संजीवनी (Short Story- Sanjeevani)

उस बच्चे में वह ख़ूुद को ढूंढ़ने लगा. नहीं, वह बच्चा उससे बहुत अलग है, तभी तो डटा रहा अंत तक, जब तक जीत हासिल न हो गई. उसे भी जीतना है दुनिया को या शायद उससे पहले ख़ुद को.

आज फिर एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब के लिए इंटरव्यू शेडयूल हुआ है, जिसके लिए घर के सभी सदस्य उसे बधाई दे रहे हैं. इंटरव्यू सफल हो, ऐसे आशीर्वाद भर-भर कर उसकी झोली में गिर रहे हैं. फिर भी कुणाल का मन आशंका से ग्रस्त है. एक अदद नौकरी के लिए इंटरव्यू तो पहले भी हुए हैं, आगे भी एक-दो जगह से कॉल आने की उम्मीद है, आ भी जाएगी, पर क्या उसका परिणाम सुखद होगा?
अब जबकि उसका आत्मविश्‍वास तिल-तिल घट रहा है, तनाव बढ़ रहा है, ऐसे में मां के तसल्ली भरे बोल, पिता का ढांढ़स बंधाना, बड़ी बहन का सहजता से कह देना, “अरे कोई नहीं, ये दुनिया की क्या आख़िरी नौकरी है.” उसकी उद्विग्नता को दूर नहीं कर पा रहे. यूं लगता है कि वह एक बड़ी सी चट्टान पर चढ़ता जा रहा है, जिसके शीर्ष पर पहुंचकर सिर्फ़ और सिर्फ़ गहराई दिखेगी.
एक अनजाना डर मन में गहरे तक समा गया है, यह मुश्किल वक़्त क्या कभी बदलेगा? क्या उसके जीवन में कभी स्थायित्व आएगा? कल ही तो उसे एक रिजेक्शन का सामना करना पड़ा कि आज नए इंटरव्यू के शेडयूल होने की सूचना मिल गई. यह कैसी विडंबना है… कभी उम्मीदों के शिखर पर चढ़ते हैं और फिर फिसल कर नीचे आ जाते हैं. ऐसे में कैसे नई उम्मीदें पाल लें कि अगला प्रयास सफल होगा ही.
“ए कुणाल, तू यहां बैठा है और मैं पूरे घर में ढूंढ़़ आई.” ससुराल से बीती शाम आई बड़ी बहन लतिका ने उसके कंधे को कस कर झिंझोड़ा, तो वह चौंका और फिर अनमने भाव से उठने को हुआ.
“अरे अब यहीं बैठते हैं न. कहां जा रहा है?” लतिका के टोकने पर वह ठिठका और आराम कुर्सी पर ढहते हुए सहमे खरखराते स्वर में बोला, “आज क्या होगा दीदी? इंटरव्यू सही जाएगा क्या?”
“एकदम मस्त जाएगा. देखना ये नौकरी तुझे मिलेगी ही मिलेगी. ए सुन न, इंटरव्यू तो रात को है, दोपहर को कोई मूवी देखने चलें?”

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लतिका ने कॉफी का मग उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए पूछा, तो वह कसमसा कर बोला, “मन नहीं है कहीं जाने का.”
“चल फिर, थोड़ा समंदर के पास टहल आते हैं.”
“अरे नहीं…” उसने असहमति में सिर हिलाया.
“क्यों इतना परेशान होता है? देखना सब बढ़िया होगा.”
“मेरे सितारे इन दिनों ठीक नहीं चल रहे. बढ़िया होगा, तो भी देखना…” कुणाल ने आंखें चुराते हुए बात अधूरी छोड़ दी, तो लतिका ने आहिस्ता से अपना हाथ उसके कंधे पर रखते हुए कहा, “मम्मी बता रही थी तू आजकल डिप्रेस रहता है. ये ठीक नहीं है मेरे भाई, उतार-चढ़ाव तो जीवन में आते ही रहते हैं.”
“मेरे सारे दोस्त सेटल हैं दीदी, बस मैं ही…”
“तू भी सेटल ही था. मल्टी नेशनल कंपनी में था.”
“था, अब मेरी जगह कोई और है. कार की स्टेपनी की तरह मुझे बदल कर किसी और को ले लिया गया है.”
“हां तो ठीक है न, तेरी क़िस्मत में उससे बेहतर जगह होगी कहीं, तभी ऐसी परिस्थितियां बनीं.”
इस दिलासा पर उसने अधीरता से सिर झटका मानो कह रहा हो, सब बेकार की बातें हैं. सच से मुंह चुराने के लिए प्रारब्ध की पतवार पकड़ा कर तूफ़ान से बाहर निकलने की झूठी उम्मीद भर है. सच वही है, जो आजकल वह झेल रहा है. करियर की कश्ती बेरोज़गारी के तूफ़ान में हिचकोले खाती कभी इधर तो कभी उधर पटकी जा रही है. वह हताशा के भंवर में फंसा कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है.
न चाहते हुए भी आंखों में नमी तिरने को हो आई, तो वह ज़बरन मुस्कुराया, “बेहतर जगह का इशारा करने के लिए क़िस्मत को मुझे नौकरी से फायर नहीं करना चाहिए. जब अच्छा ऑप्शन देखकर मैं ख़ुुद ही स्विच ओवर करता, तो मानता परिस्थितियां मेरे फेवर में बनी हैं…” कहते-कहते वह एकदम से चुप हुआ, क्योंकि मां बड़े उल्लास से पकौड़ों की प्लेट लिए आती दिखी.
“आज नाश्ते में तुम्हारे पसंद के पकौड़े बनाए हैं. प्याज़, आलू और पनीर के. कितने दिन बाद तुम भाई-बहन मिल रहे हो. मेरी मानो तो कहीं घूम आओ. और नहीं, तो बीच पर ही चले जाओ.” सुलभा हुलस कर लतिका से बोली, “अच्छा हुआ तू आ गई. कम से कम इसके चेहरे पर मुस्कान तो दिखी.”
“कहां मुस्कुरा रहा है ये मम्मी, देखो कैसा दुखी हुआ बैठा है. यहां हम लोग चिल कर रहे हैं और ये ऐसे दुखी है जैसे पूरे घर का बोझ इस पर आन पड़ा हो.”
सिर झटककर लतिका ने प्लेट से पनीर का पकौड़ा सॉस में डुबोकर कुणाल की ओर बढ़ाते हुए कहा, “जिन लोगों को स्ट्रगल करना पड़ता है न, उनके लिए कुछ अच्छा घटनेवाला होता है. मैं तो कहती हूं स्टार्ट अप कर ले. मुझे भी नौकरी पर रख लेना.”
“अरे अभी भी वही नौकरी की बातें. छोड़ो ये सब और पकौड़े खाओ. दिल कहता है मेरा, अच्छा नहीं, बहुत अच्छा होने वाला है. उसी के लिए अनुभव मिल रहा है.”
“अनुभव फेलियर का! कुछ भी मत कहो मम्मी.” कुणाल का झुंझलाया स्वर, माथे पर सलवटें और उतरा मुंह देख सुलभा ने उसके  सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा, “यक़ीन मान, इन असफलताओं से एक बड़ी सफलता के लिए तुम्हारा मार्ग प्रशस्त हो रहा है. ज़्यादा मत सोचा कर. अभी हम हैं.” कहते-कहते सुलभा मौन हो गई. गला भरने को आ गया था. वह मन ही मन दुखी थी कि बेटे को नौकरी नहीं मिल रही. परंतु उस दुख से बड़ा था बेटे की निराशा को महसूसना. याद आया, बचपन में कुछ पाने की चाह में जब वह रो पड़ता था, तो वह दौड़ पड़ती थी उसकी ओर उसकी मनचाही चीज़ उसे देकर उसके चेहरे की मुस्कान से आनंदित होती थी. पर इस समय क्या करे, कैसे दे दे वह चीज़, जो उसके सामर्थ्य में है ही नहीं. उसके पास अब तो दिलासा है, दुआएं हैं, पर उससे भी कुणाल अब नहीं बहलता.
ख़ुुद की मौजूदगी में माहौल भारी होने का भय था, सो चुपचाप वहां से निकल आई.
भाई-बहन बहुत देर तक बालकनी में बैठे रहे. फुसफुसाहटें तो उभर रही थीं, पर ठहाके गायब थे. फिर भी मन को तसल्ली थी कि कम से कम कुणाल कुछ तो बोल रहा था, वरना इन दिनों तो चुप्पी ने डेरा जमा लिया था.
समझाने के प्रयास में कहीं उसके ज़ख़्म न खुरच जाएं, इस भय से सभी चुप रहते. आज  लतिका की मौजूदगी में टूटती ख़ामोशी भली लग रही थी.
लंच के समय डाइनिंग टेबल पर कमोबेश हल्का माहौल था. पिछले कई दिनों से छाई मनहूसियत लतिका के आने से दूर हो गई थी.


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इंटरव्यू चूंकि विदेश की भूमि से होना है, इसलिए रात नौ बजे का समय निर्धारित हुआ था. पूरे दिन की प्रतीक्षा कुणाल पर भारी थी. दोपहर के भोजन के बाद वह बालकनी में आ गया और तिपाई पर रखे अख़बार को आंखों के सामने पसार लिया.
दुनिया की ख़बर वह क्या पढ़े, जिसे ख़ुद की ख़बर नहीं कि वह पिछले दस मिनट से बस अख़बार की कालिख देख रहा है. स्याह रंग उसे भयभीत करता जा रहा है, “हेलो मिस्टर कुणाल, आपकी पिछली कंपनी ने आपको फायर…” वह चौंक उठा जब ठीक उसी वक़्त किसी ने कंधे को हौले से छुआ. सिर उठाया, तो देखा पापा खड़े थे.
“ऐसा क्या पढ़ने लगे कि पिछले दस मिनट से न पन्ना पलटा, न नज़र घुमाई.” महेंद्र के धीमे पर स्पष्ट शब्दों पर उसने झेंपते हुए अख़बार वापस तिपाई पर रख दिया.
“बरखुरदार, तुमसे चार साल छोटा ही रहा होऊंगा, पर मेरे पिता यानी तुम्हारे दादाजी ने कह दिया, अगले चार महीने में नौकरी ढूंढ़ लो. बहन की शादी पक्की हो गई है. घर भी ठीक करवाना है.”
कुणाल असहज हो उससे पहले ही भावुक स्वर कानों में पड़ा, “तुम्हारे दादाजी के आदेश पर हिम्मत ही नहीं हुई कहने की कि मैं कोचिंग करना चाहता हूं, ताकि प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ सकूं. हाथ-पैर मार कर जो नौकरी मिली उसे पकड़ लिया. फिर घर की ज़िम्मेदारियों में ऐसा उलझा कि क्या करना चाहता हूं ख़्याल ही नहीं रहा.”
कुछ पल के मौन के बाद वह फिर बोले, “तुम्हारे ऊपर तो कोई ज़िम्मेदारी, कोई दबाव नहीं है. अच्छा नहीं लगता तुम्हें उदास और तनाव में देखकर. मस्त रहो.”
“आपकी तरफ़ से कोई दबाव नहीं है जानता हूं, पर मेरा ख़ुद का जीवन तो है, जो अनिश्‍चित है. पिछले कुछ दिनों से समय ठीक नहीं चल रहा.”
“मेहनत कर रहे हो, तो कुछ न कुछ तुम्हारे मनमाफिक होगा ही. वैसे भी ये कोई आख़िरी इंटरव्यू तो है नहीं. मेरी मानो तो कहीं घूम आओ.”


“हम्मम…” उसने धीमे से सिर हिलाकर सहमति दी और नज़र शून्य में टिका दी. जब महसूस हुआ पापा चले गए हैं, तब वह उठा और घर से बाहर निकल गया. वह जानता है कि लतिका को मम्मी-पापा ने ही बुलाया है. आजकल सब उसके होंठों पर मुस्कान देखना चाहते हैं, पर क्या करे वह, मन का सारा उल्लास सूख गया है.
जिस दिन उसे अपनी जॉब से हाथ धोना पड़ा था, उस दिन दिल ज़रूर टूटा, पर मनोबल नहीं. वह जब घर आया, ‘जो होता है अच्छे के लिए होता है…’ यह वाक्य उससे लगभग सबने बोला. उसने भी ख़ुद को तसल्ली दी, सब ठीक होगा.
और तब आरंभ हुआ सिलसिला नए जॉब के लिए अप्लाई करने और इंटरव्यू देने का. इस क्रम में स्वयं ही जॉब साइट्स पर अनुकूल जॉब्स के बारे में पता करता, नौकरी कर रहे दोस्तों से उनकी कंपनियों में वेकेंसीज़ के बारे में सहायता लेता, लिंक्डइन पर फ्लैश होने वाली जॉब ऑपोर्च्यूूनिटीज़ के अनुरूप अप्लाई करना शुरू किया. इनमें से कई जगह से इंटरव्यू कॉल आई भी, पर किसी न किसी स्टेज पर आकर बात बिगड़ जाती और मायूसी हाथ लगती.
लगातार मिल रही असफलताओं से अनजानी घबराहट मन में घर कर गई है. अचानक से क्या हुआ है उसे? कॉलेज में प्लेसमेंट के दौरान उसका सेलेक्शन पहली बार में ही हो गया था. पर अब वह भाग रहा है निरंतर, एक अदद जॉब के पीछे, जो हाथ आते-आते छिटक जाती है और छा जाती हैं मायूसी की बदलियां.
“साब, चाय पीएंगे.” वह सहसा चौंका. विचारों में डूबा वह कब घर से निकला, सुनसान सड़क पर चलते-चलते समुद्र तट तक आ पहुंचा, भान ही न रहा.
“चाय दे दूं? मसाले वाली है, एकदम कड़क.” कहने वाले दस-बारह साल के लड़के के चेहरे पर उम्मीद और मायूसी के मिले-जुले भाव थे. कुछ ऐसे ही भाव उसके चेहरे पर रहते हैं इंटरव्यू के बाद, मन धुकधुकाता है. पता नहीं, हां में जवाब आएगा या ना में.
“दे दूं क्या?” न कह देने का डर उसके चेहरे पर देख मुंह से फिसल गया, “हां.” तो लड़के के होंठों पर मुस्कान की तितली थिरक गई.
चाय का कप पकड़े वह तट पर बैठ गया. नज़र घुमाई, तो उतरती दुपहरी में भी कुछ लोग तट पर टहलते नज़र आए. एक परिवार चटाई बिछाए इत्मीनान से बैठा था. माता-पिता और एक बच्चा. बच्चे की उम्र तक़रीबन आठ साल की होगी.
लहरों में कूदता-फांदता वह सहसा रेत में कुछ लिखने लगा. गौर किया कि लहरें आतीं और उसके लिखे को बिगाड़ जातीं. वह फिर लिखता और लहरें फिर बिगाड़ जातीं. वह खेल रहा था और माता-पिता उसे खेलते देख रहे थे.
सहसा उसने देखा वेग से आती लहरें सिर पटकने के बाद जब उस बच्चे के लिखे नाम को लील जाने पर आमादा हुईं, तो उस बच्चे ने अपने दोनों हाथ लहरों के आगे यूं फैला दिए मानो लहरों को रोक देगा, पर ऐसा मुमकिन कहां था. नतीज़ा, नाम मिट गया. उसने फिर नाम लिखा, आती लहरों को दोनों हाथ फैलाकर रोकने का स्वांग किया. कुछ बोलता भी जा रहा था शायद लहरों को चुनौती देने वाले शब्द थे, जिसे सुन कुछ ही दूरी पर बैठे माता-पिता सुनकर हंस रहे थे.
पर वह चाहकर भी हंस नहीं पाया. उस बच्चे की बचकानी हरकत पर कम उसके माता-पिता पर अधिक झुंझलाहट हो आई. क्यों नहीं समझाते उसे कि लहरे रोकने से नहीं रुकतीं. वह क्यों नहीं अपना नाम लहरों की पहुंच से दूर उकेरता, ताकि उसका लिखा सुरक्षित रहे.
वह अनमना सा वहां से उठ गया और बेवजह चलने लगा. थक जाना चाहता था वह, ताकि रात को नींद अच्छी आए. पर आज चलने में उसका दम सा फूलने लगा. यहां भी वही बेचैनी थी, जो घर पर महसूस हो रही थी.
वह एक बार फिर बैठ गया, परंतु उस परिवार से थोड़ा दूर. बच्चे की हरकत उसमें चिढ़ के भाव पैदा कर रही थीं, सो उसने वहां से अपना ध्यान हटा कर आज रात होने वाले इंटरव्यू पर केंद्रित किया. पूर्व के अनुभव के आधार पर संभावित प्रश्‍न और मन ही मन उनके उत्तर देते समय महसूस हुआ आत्मविश्‍वास तो नदारद है.
किसी भी इंटरव्यू में बॉडी लैंग्वेज और कॉन्फिडेंस का बड़ा महत्व होता है. यदि कॉन्फिडेंस नहीं है या अभ्यर्थी नर्वस है, तो ऐसा पात्र उनके योग्य नहीं होता वह जानता है, पर पिछले अनुभवों ने उसके कॉन्फिडेंस की ऐसी की तैसी कर दी.


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कैंपस सेलेक्शन में पहली बार में चयनित होने वाला वह बार-बार असफल हो रहा है. पिछले दिनों के कई इंटरव्यू और असफलताएं उसे डराने लगी. भविष्य की अनिश्‍चिताएं सिहराने लगी. कितनी जगह उसने नौकरी के लिए आवेदन किया है. क्या उनमें से कोई एक उसकी क़िस्मत में होगी… विचारों के भंवर में फंसा वह देर तक डूबता-उतराता रहा.
सहसा हर्ष सूचक उद्घोष, ताली और “शाबाश…” की आवाज़ से उसका ध्यान टूटा और वह चौंका. आवाज़ लहरों को रोकने वाले बच्चे के माता-पिता की थी. शायद इस बार लहर उस बच्चे के लिखे नाम तक आते-आते लौट चुकी थी. उसी की ख़ुशी माता-पिता ज़ाहिर कर रहे थे.
गौर किया कि माता-पिता तालियों और शाबाश जैसे शब्द से बच्चे का उत्साह बढ़ा रहे थे और वह बच्चा कमर पर हाथ रखे रेत पर लिखे नाम को कानों तक फैली मुस्कान के साथ देख रहा था.
“देखो पापा मैंने लहरों को रोक दिया.” वह चिल्लाया, तो न जाने कैसे उसकी हंसी छूट गई. मन का विषाद और भय तिरोहित हो गया. वह जानता था कि यह लो टाइड का समय है, लहरे तो रत्ती-रत्ती पीछे लौटेंगी ही… पर बच्चा गुमान में है कि उसने लहरों को पीछे लौट जाने को मजबूर कर दिया.
उस बच्चे में वह ख़ूुद को ढूंढ़ने लगा. नहीं, वह बच्चा उससे बहुत अलग है, तभी तो डटा रहा अंत तक, जब तक जीत हासिल न हो गई.
उसे भी जीतना है दुनिया को या शायद उससे पहले ख़ुद को.
मां की बात सहसा याद आई, “निराश क्यों होता है, अनुभव तो मिल ही रहा है न.”
पापा का ढाढ़स भरा हाथ पीठ पर फिरता महसूस हुआ, “चिंता मत कर, बस प्रयास करता चल, कुछ न कुछ बढ़िया होगा ही.”
बहन का जोश दिलाना मन को सहला गया, “यूं दुखी-दुखी तू अच्छा नहीं लगता. कुछ भी न हो, तो स्टार्टअप शुरू करना. मुझे भी नौकरी पर रख लेना.”
लौटती लहरों को देख उसे भी घर लौटने का ख़्याल आया. संघर्षों का लो टाइड उसके जीवन में भी आएगा. ज़रूरत है तब तक डटे रहने की. मम्मी-पापा, बहन उसकी जीत पर कभी न कभी हर्ष से उद्घोष करेंगे, उसे बस टूटने नहीं देना है ख़ुद को. लो टाइड में तट से वापस जाते पानी ने उसके अंदर उत्साह, जिजीविषा और सकारात्मकता का ज्वार भर दिया था. एक नया नज़रिया लेकर वह घर में प्रवेश करेगा, तो सबको संजीवनी मिल जाएगी. मन से अवसाद छंट चुका था और वह नए जोश के साथ घर लौट रहा था.

मीनू त्रिपाठी

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Usha Gupta

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