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कहानी- संतोष महासुख (Short Story- Santosh Mahasukh)

“तू! क़सम से पगलेट ही है सुजाता! हमेशा तेरे हिस्से ही कम क्यों आता है? अरे तू, घर की बड़ी बहू है और तेरा कमरा ही सबसे छोटा?” बुआ सास ने मुंह मटकाते हुए यह बात कही, तो सुजाता का संतोषी मन असंतोष से भर उठा. बाकी की मंथरा टाइप चाची-काकी ने भी आग में घी डाला, तो सुजाता के मन में उठी आग की लपटें बढ़ने लगीं.

सुजाता घर की सबसे बड़ी और समझदार बहू थी. इतनी समझदार कि घर में किसी भी बात पर समझौते करने होते, तो सबसे पहले उसका ही नाम लिया जाता. सुजाता के पति कुंतल का भी बिल्कुल सुजाता जैसा ही स्वभाव था. वे दोनों हमेशा ख़ुश रहा करते, दरअसल सयुंक्त परिवार की सबसे बड़ी बहू के इस सुखी जीवन का एक ही मंत्र था और वह था संतोष.
सुजाता हमेशा अपनी मां की यह बात गांठ बांधकर रखती थी कि ‘धन-दौलत, महल-अटारी किसी भी सुख का कोई मोल नहीं होता यदि व्यक्ति के मन में असंतोष का वास हो. इसलिए सुजाता हमेशा संतोष को धारण करे रखना, यही सुखी जीवन का सबसे बड़ा मंत्र है.’


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मगर अब की सुजाता इस मंत्र को न जाने कैसे भूल गई. दरअसल सुजाता के ससुराल में दो देवर, देवरानियां, सास-ससुर सभी हैं. सब मिलकर कपड़ों का कारोबार करते हैं. कारोबार में तरक़्क़ी होने से नया घर लिया गया, सबके कमरे तय हुए, तो सुजाता और उसके पति कुंतल के हिस्से में नीचे का सबसे छोटा कमरा आया. यूं तो सब ठीक था, पर घर के उद्धघाटन समारोह में आए कुछ रिश्तेदारों ने सुजाता के ख़ूब कान भरे.
“तू! क़सम से पगलेट ही है सुजाता! हमेशा तेरे हिस्से ही कम क्यों आता है? अरे तू, घर की बड़ी बहू है और तेरा कमरा ही सबसे छोटा?” बुआ सास ने मुंह मटकाते हुए यह बात कही, तो सुजाता का संतोषी मन असंतोष से भर उठा. बाकी की मंथरा टाइप चाची-काकी ने भी आग में घी डाला, तो सुजाता के मन में उठी आग की लपटें बढ़ने लगीं.
उद्धघाटन के बाद सभी नए घर में शिफ्ट हो गए. असंतोष से भरी सुजाता आज घर के बाहर टहल रही थी. उसने आज मन ही मन तय कर लिया था कि वह उस छोटे से कमरे में नहीं रहेगी कि तभी टहलते हुए उसकी नज़रें मजदूर के एक परिवार पर पड़ी, जो पास की किसी इमारत को बनाने आए थे. वे काम के बाद थके-हारे किसी पेड़ के नीचे आराम कर रहे थे उनके बच्चे आस-पास ही खेल रहे थे. उनके चेहरों पर अजीब सा सकून था.


मजदूर के उस परिवार को देखकर सुजाता अनायास ही मुस्कुरा उठी और फिर वह घर को चल दी. वहां ऊपर के कमरों से ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं.  दोनों देवर-देवरानियों के बीच अक्सर इस तरह की आवाज़ें आती रहती थीं. उन्हें कभी किसी बात से संतुष्टि नहीं होती थी. छोटी-छोटी बातों में बहस करना, बेमतलब की बातों में लड़ना उनके लिए आम था.
आज भी एक छोटी सी बात पर ही झगड़ा हो रहा था कि एक देवर के कमरे में बालकनी नहीं थी और दूसरे के कमरे में थी. मैं उनकी बहस रोकने ऊपर जा ही रही थी कि मजदूर की औरत दरवाज़े पर आकर मुझसे पानी मांगने लगी. मैंने उसे पानी देते हुए पूछा, “ऐसे जगह-जगह भटकता तुम्हारा परिवार और तुम कितनी परेशानियों को झेलते होंगे ना?”


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तभी वह एक सकून भरी मुस्कान देकर बोली, “दीदी! जीवन की भटकन तो वह है, जो बड़ी-बड़ी मज़बूत छतों के नीचे भी प्यार के बीज न बो सके. मेरा परिवार ही मेरे लिए सब कुछ है. मेरा मर्द मुझे प्रेम करता है, मेरे बच्चों का ध्यान रखता है, इससे बड़ा सुख और क्या हो सकता है?”
यह सुख तो सुजाता के पास भी था. प्यार करनेवाला समझदार पति और प्यारे-प्यारे दो बच्चे.
उसकी बात सुजाता के भीतर तक चोट कर गई. बड़े कमरे की बात उसके मन से छू हो गई और सुजाता में फिर वही सुजाता लौट आई, जो संतोष को ही महासुख समझती थी.

पूर्ति वैभव खरे

Photo Courtesy: Freepik

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Usha Gupta

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