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कहानी- सपने का दुख (Short Story- Sapne Ka Dukh)

हमने आंखों से ज़्यादा बात की थी. शायद हम आंखों की भाषा ज़्यादा समझते थे. एक दिन वो मुझे दिखा. मैंने जाते-जाते उसे एक बार पलटकर देखा था. जैसे हम अब कभी ना मिलने वाले हों. वो भी तड़पकर दो क़दम आगे बढ़ा था, पर जाने क्या सोच वो मेरे पास नहीं आया. मुझे रह-रह कर उसकी आंखें याद आतीं. उसकी तड़प मुझे तड़पा गई थी. हमारे बीच वो दो क़दम का फ़ासला फिर कभी तय नहीं हो सका.

यह मज़ाक जैसा ही तो है कि किसी ब्लैंक कॉल करनेवाले व्यक्ति के प्रेम में डूब जाऊं. बिना आवाज़ सुने, बिना बात किये, बिना देखे. जब भी फ़ोन बजता, दिल पागल बच्चे की तरह मचल उठता. मैं भागकर स़िर्फ उसकी ख़ामोशी सुनती. कभी-कभी मैं जाने कितनी देर तक फ़ोन लिए खड़ी रहती. अब उसकी ख़ामोशी ही मेरे लिए सब कुछ थी. मुझे हमेशा ये एहसास रहता, जैसे कॉलेज से लेकर मेरे घर के हर रास्ते पर खड़ा वो मुझे देख रहा है. मैं उसे आस-पास महसूस करने लगी थी. यह कैसा पागलपन था. ‘’कुमुद उठो, मुझे ऑफ़िस जल्दी जाना है.” अभिनव ने लगभग झिंझोड़ते हुए कहा. मैं एकदम चौंककर बैठी. अभिनव ने रात में ही बताया था, लेकिन देर रात तक जागने के कारण सुबह जल्दी आंखें ही नहीं खुलीं. उठते ही उनके नाश्ते की तैयारी करने लगी. नाश्ता उन्होंने बड़ी जल्दी में किया. वो जाने लगे तो मैंने भागते हुए फ़ाइल और रुमाल दिया. वह हंस पड़े, क्योंकि हमेशा से मैं ऐसे ही करती आ रही थी. उन्होंने प्यार भरी चपत लगाते हुए कहा, “आज रिमी आ रही है, अगर कोई ज़रूरत हो तो फ़ोन कर देना.” मैंने हां में सिर हिला दिया. वो चले गए. आज रिमी के आने की ख़बर वाकई एक बहार आने जैसी थी. दोपहर तक मैंने उसके लिए खाना बनाकर फ्रिज में रख दिया था. वैसे भी सारा काम दोपहर तक ख़त्म होता था. तभी फ़ोन की बेल बज उठी, लेकिन फिर ख़ामोश हो गई. दिल अचानक धड़क उठा था, वो भी ऐसे ही पांच बार रिंग किया करता था. ऐसा नहीं है कि ये पहली बार हुआ था, बस इससे कई यादें जुड़ी थीं, जिसे मैंने अतीत के पन्नों में दबा दिया था. फ़ोन दोबारा बज उठा ट्रिन ट्रिन ट्रिन…. मैंने फ़ोन उठाया, “हैलो, आप…” दूसरी तरफ़ रिमी थी, “दीदी हम आज नहीं आ सकेंगे. रिज़र्वेशन कन्फर्म नहीं हो पाया है. शनिवार को मैं और अभय भैया साथ आएंगे.” बहुत देर तक बातें होती रहीं. मन उदास-सा हो गया था. हम वर्षों बाद मिल रहे थे. रिमी स़िर्फ मेरी बहन ही नहीं, मेरी बहुत अच्छी दोस्त भी थी. मेरी शादी को छः साल बीत चुके थे. इतने सालों में जैसे मैं ख़ुद को भूल गयी थी. आज जाने क्यों मैं अपने अतीत के पन्ने खोलने बैठ गयी थी. मैं रूढ़िवादी मध्यमवर्गीय परिवार से थी. उस समय मैं बी.ए. तृतीय वर्ष में थी. परीक्षा की तैयारियां ज़ोरों पर थीं. तीन बजे आज कॉलेज से घर आई थी. हमेशा की तरह वही ब्लैंक कॉल…. अजीब शख़्स है, जो आवाज़ सुनता और फिर फ़ोन काट देता. जब भी फ़ोन आता सन्नाटा पसरा रहता. तीन सालों से ऐसा ही होता आ रहा था. पहले तो ग़ुस्से में काट देती, लेकिन धीरे-धीरे उसकी आवाज़ सुनने के लिए उससे प्यार से बातें करती. कभी रोती, कभी उसे डांटती कि शायद अब बोले. लेकिन हमेशा वही ख़ामोशी जिसे सुनते-सुनते मैं चिढ़ने लगी थी. इक इंतज़ार-सा रहता, दिल फ़ोन की बेल पर ही अजीब अंदाज़ में धड़कने लगता था, तभी रिमी ने ख़ामोशी तोड़ते हुए कहा, “ऐसा लगता है यह तुम्हारे आने-जाने की ख़बर रखता है और….” मैंने बात बीच में ही काटकर कहा, “मुझे बताओ तो मैं क्या करूं.” मेरे ग़ुस्से को देख रिमी चुप हो गयी. वह समझ गई थी कि मैं आजकल काफ़ी परेशान रहने लगी हूं. वह मुझसे पांच साल छोटी थी. लेकिन मुझे अच्छी तरह समझती थी.


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कितनी अजीब बात है. मैं ज़िंदगी के ऐसे मोड़ पर थी, जिसे मैं बताती तो लोग हंसते और नहीं बताती तो ऐसा लगता जैसे मेरा दम घुट जाएगा. अपने इस एहसास को मैं किसी से बांट नहीं पा रही थी. वो भी ऐसे छलावे के लिए जिसे पाने के लिए जितना आगे बढ़ती, लगता वो उतना ही मेरे हाथों से छूटता जा रहा है. बंद मुट्ठी में फिसलती रेत की तरह. हमारे समाज में किसी स्त्री के प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं होता. इसकी इजाज़त न तो परिवार देता है, ना ही ये निर्मम समाज. यह मज़ाक जैसा ही तो है कि किसी ब्लैंक कॉल करनेवाले व्यक्ति के प्रेम में डूब जाऊं. बिना आवाज़ सुने, बिना बात किये, बिना देखे. जब भी फ़ोन बजता, दिल पागल बच्चे की तरह मचल उठता. मैं भागकर स़िर्फ उसकी ख़ामोशी सुनती. कभी-कभी मैं जाने कितनी देर तक फ़ोन लिए खड़ी रहती. अब उसकी ख़ामोशी ही मेरे लिए सब कुछ थी. मुझे हमेशा ये एहसास रहता, जैसे कॉलेज से लेकर मेरे घर के हर रास्ते पर खड़ा वो मुझे देख रहा है. मैं उसे आस-पास महसूस करने लगी थी. यह कैसा पागलपन था. मेरी हिचकियां-सी बंध गईं. मैं जाने कब तक ऐसे ही रोती रहती कि रिमी के क़दमों की आहट ने मुझे चौंका दिया. जल्दी-जल्दी मैंने आंखें धोयीं और बाहर आकर कॉफी पीने लगी. लॉन में लगी सूरजमुखी की कतारें बरबस मुझे अपनी तरफ़ खींच रही थीं. मुझे इन फूलों से बचपन से ही लगाव था, जो सूरज के प्रकाश में खिलती हैं और जब इन्हें प्रकाश नहीं मिलता तो ये मुरझा जाती हैं. जाने मेरा सूरज कहां छिपा था. मेरी हंसी-चंचलता जाने कहां गुम हो गई थी. उसकी आवाज़ सुनने का जुनून, उसे पाने की चाहत जाने कब मेरे दिल में जगह बना चुकी थी, इसका मुझे एहसास भी नहीं हुआ. मैंने धीरे-धीरे अपने आपको संभाल लिया और परीक्षा की तैयारियों में व्यस्त हो गई. फ़ोन अब भी आते. ख़ामोशी भी ज्यों की त्यों थी. बस उस पर ध्यान देना  मैंने कम कर दिया था. मैं अपने बड़े भाई अभय से ड्रॉइंगरूम में पॉलिटिक्स के प्रश्‍नों पर बहस कर रही थी, तभी फ़ोन की बेल बजकर ख़ामोश हो गई. अभय भइया कुछ देर बाद चले गये. मैं भी जानेवाली थी कि फ़ोन की घंटी फिर बज उठी, ट्रिन… ट्रिन… ट्रिन…. मैंने स्वयं को संयत करते हुए उठाया, “हैलो, हैलो….” कोई आवाज़ नहीं आई. मैंने झल्लाकर फ़ोन रिसीवर पर पटक दिया और वहीं बैठकर रोने लगी. फ़ोन फिर बजा, ट्रिन… ट्रिन… ट्रिन… मैंने फ़ोन उठाकर रोते हुए कहा, “क्यूं इतना परेशान कर रहे हो. ऐसा लगता है जैसे मैं पागल हो जाऊंगी. कुछ बोलते क्यूं नहीं… कुछ तुम… मैं मर जाऊंगी… मर..”
ज़्यादा रोने से मेरी आवाज़ नहीं निकल रही थी. तभी उसकी ख़ामोशी टूटी. जैसे मैं दिन में सपना देख रही थी. उसकी गहरी आवाज़ में मैं जाने कब तक ऐसे ही खोई रही. उसने मुझे मेरे नाम से पुकारा, “हैलो कुमुद, तुम सुन रही हो.” उसने मुझे जैसे सोते से जगा दिया था.  मैंने नाक सुड़कते हुए कहा, “हां सुन रही हूं.” उसने कहना शुरू किया, “तुम सोच रही होगी कि मैं कौन बोल रहा हूं?” बस भर्राये गले से इतना ही बोल पाई… “हां…” उसने कहा, “मैं क्षितिज सक्सेना.” .” क्षितिज को मैं जानती थी, वो हमारे कॉलेज का अच्छा स्टूडेन्ट था. हमेशा उसे कॉलेज कम्पाउन्ड में, गैलरी में लड़कों के बीच घिरे देखा था. वो हमारा सीनियर था. मैंने उस पर कभी ध्यान नहीं दिया था. वैसे मुझे हमेशा एहसास रहता जैसे मैं किसी की नज़रों में कैद हूं. वो हमेशा मेरे क्लास टाइम पर खड़ा मुझे देखता रहता. सभी उसकी बहुत इ़ज़्ज़त करते थे. भइया का वो बहुत अच्छा दोस्त था. थोड़े-से अंतराल के बाद वह फिर बोला, “कुमुद तुम…” मैंने बीच में बात काटकर कहा, “भइया घर पर नहीं हैं, वो अभी-अभी बाहर गये हैं.” “(वो हंस पड़ा) जानता हूं. मुझे उनसे नहीं, तुमसे बात करनी है.” हमारे बीच कभी इतनी बातचीत नहीं हुई थी. थोड़ा संकोच था मन में कि जाने क्या बात करना चाह रहा है. उसने आगे कहा, “जाने तुम क्या सोचो मेरे बारे में, मैं ये भी नहीं जानता कि तुम मेरे बारे में क्या राय रखती हो, लेकिन मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं. पता नहीं ये सही है या ग़लत… तुम सुन रही हो ना. क्या तुम भी मुझसे…” खटाक से मैंने फ़ोन रख दिया. आगे मुझमें सुनने की हिम्मत नहीं थी. पूरा बदन थरथरा रहा था. मैं सबसे मुंह छिपाती फिर रही थी कि कहीं कोई मेरे चेहरे पर लिखे भाव न पढ़ ले. एक चोर-सा मन में घर कर गया था. पूरा दिन ऐसे ही गुज़र गया. कोई पढ़ाई नहीं हो सकी. मैं टेलीफ़ोन के पास बेमक़सद घूम रही थी. कहीं उसका फ़ोन फिर ना आ जाये, ये भी आशंका थी मन में. सभी सोने चले गये थे अपने-अपने कमरे में. मैं हाथों में क़िताब लिए उसी के बारे में सोच रही थी. तभी रात के सन्नाटे को तोड़ता हुआ फ़ोन फिर घनघना उठा- ट्रिन… ट्रिन… ट्रिन… मैंने घबराकर फ़ोन उठा लिया. धड़कनें बेताब हो उठी थीं. सांसें टूटती-सी महसूस हो रही थीं.

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क्षितिज बेबाक़ी से बोलता जा रहा था, “तुम स़िर्फ सुनो और जब तक मैं अपनी बात पूरी ना कर लूं, तब तक तुम फ़ोन नहीं काटना. तुम तो जानती हो, जब मैं तीन साल तक तुम्हारे लिए फ़ोन कर सकता हूं तो… (वह ज़ोर से हंस पड़ा) कुमुद मैं जानता हूं कि तुम भी मुझसे प्यार करती हो. तुम्हें क्या लगता है, मैं यूं ही आसानी से बोल रहा हूं. मैंने तुम्हें तीन साल देखा ही नहीं, जाना भी है. मेरी आवाज़ सुनने के लिए तुम्हारा फ़ोन पर कभी रोना, कभी प्यार से बातें करना, कभी नाराज़ होना, क्या मैं नहीं जानता कि तुम भी मेरे प्यार में पोर-पोर डूब चुकी हो.” कैसे इतनी आसानी से वो मेरे दिल की बातें कहता जा रहा था. एक आश्‍चर्य, एक ख़ुशी, दिल के धड़कनों की ऱफ़्तार ही बदल गई थी. मैं शर्म के मारे स़िर्फ इतना ही बोल पाई, “आप झूठ बोल रहे हैं?” तभी मां की आवाज़ आई, “कौन है कुमुद फ़ोन पर?” “मेरी सहेली है मां.” झूठ कितनी आसानी से बोल दिया था मैंने आज मां से. वो फ़ोन पर ही हंस पड़ा, “बहुत अच्छी सहेली.” वो फिर बोला, “वैसे मुझे पता है, फिर भी तुम्हारे इकरार का इंतज़ार है. मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं. कहो, कब तक तरसाने का इरादा है?” लेकिन फिर परिवार की प्रतिष्ठा और समाज की बंदिशों का डर और अपनी सीमाओं के टूट जाने के डर से मैंने स़िर्फ इतना ही कहा, “नहीं, ये नहीं हो सकेगा. फिर इससे क्या फ़ायदा.” वो मानने को तैयार ना था. उसने दुखी होकर कहा, “क्या हर कोई प्यार फ़ायदा-नुक़सान सोचकर करता है. मैं कल दो बजे फ़ोन करूंगा. मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए.” फ़ोन बंद हो गया. मैं काफ़ी देर तक ऐसे ही खड़ी रही. दिल हां करता और दिमाग़ मानने को तैयार न था. अजीब कशमकश थी. लग रहा था जैसे वो अब भी मेरे कानों में प्यार का इज़हार कर रहा है. रात के दो बज रहे थे. मैं अपनी क़िताब लिए कमरे में आ गई, रिमी सो चुकी थी. आंखों से नींद कोसों दूर थी. अब जब कि वो मुझे मिल गया था तो यह डर सताने लगा था कि जाने मेरा परिवार इसे स्वीकार करे या ना करे. मैं एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार से थी. जहां एक लड़की के प्यार के लिए कोई जगह नहीं थी. सोचते-सोचते जाने कब मैं गहरी नींद में डूब गई.
मैंने सुबह उठते ही रिमी से कहा, “रिमी, आज तुमसे कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं.” वह कॉफ़ी का मग लेकर मेरे पास बैठ गई. मैं उधेड़बुन में थी. कहां से बात शुरू करूं, समझ में नहीं आ रहा था. वो मेरे नज़दीक आई तो मैं अपने आपको रोक नहीं सकी. रोते हुए मैं उसे सब कुछ बताती चली गई. उसने मेरी बातों में उसके लिए दीवानगी महसूस की थी. उसने ऊंच-नीच समझाकर मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने को कहा. आज उससे अपने दिल की बात कह काफ़ी सुकून महसूस कर रही थी. अगले दिन परीक्षा के लिए दिनभर पढ़ाई करती रही. पेपर काफ़ी अच्छा हुआ था. मैं अपनी सहेलियों के साथ पेपर के बारे में डिस्कशन करती आ रही थी, तभी अचानक उसे सामने खड़ा देखकर दिल बेचैन-सा हो उठा. इक प्यास-सी थी कि उसे जी भर देख लेती. एक बार उसे मुड़कर देख लूं, यही हसरत लिए मैं घर आ गई. रास्ता ख़त्म हो गया था. व़क़्त भी तेज़ी से करवट बदल रहा था. वो जब भी फ़ोन करता, हमेशा वही बात दोहराता. मैं हमेशा टाल जाती. मैंने इकरार तो नहीं किया, पर बातें होती रहीं. उसकी प्यार भरी बातों में मैं सब भूल जाती. जाने कौन-सी कशिश थी, जिसकी वजह से मैं खिंचती चली गई. मैं डरती, घबराती. लेकिन बात ज़रूर करती. समय पंख लगाकर उड़ रहा था और मैं आंखें बंद किये बैठी थी. जानती थी, जब भी आंखें खुलेंगी तो यह सपना बन कर यादों में सदा के लिए दफ़न हो जाएगा. दिल हमेशा उसके इंतज़ार में रहता.
जब भी कॉलेज से आती, वो सामने खड़ा मुझे देख रहा होता. एक नशा-सा था जिसके असर से मैं सब कुछ भूल बैठी थी. उसे देखकर मैं हमेशा मुस्कुरा देती. ऐसा लगने लगा था जैसे उसके बिना ज़िंदगी का कोई सपना सच नहीं हो सकता. कभी उसकी जुदाई के डर से मैं रो पड़ती और कभी उसे ना देख पाने के ग़म में रातभर आंसू बहाती रहती. अजीब-सी हालत हो गई थी. उसने मुझे एक बार मिलने को कहा. चाह तो बहुत रही थी, लेकिन ऐसा कर नहीं सकी थी. उसने फ़ोन रखते-रखते एक कविता सुनायी- दिल की धड़कनों की आवाज़ सुनी है मैंने अपनी आंखों से कोई बात कही है मैंने बस इक दीदार के लिए ख़ुद को संभाले बैठे हैं जाने ये इश्क़ में कौन-सी राह चुनी है मैंने… उसकी आवाज़ में घुले दुख को मैं आज भी शिद्दत से महसूस कर सकती हूं. वह मुझे अच्छी तरह समझता था. ऐसा लगता था जैसे मेरे दिल की हर आवाज़ मुझसे पहले उस तक पहुंच जाया करती थी. वो कभी बात करते-करते ख़ामोश हो जाता. वह हमेशा कहता, “क्या हमारी राहें कभी एक नहीं हो सकतीं.” मैं हंस पड़ती. क्या मालूम था उसकी कही हुई बात सच होकर एक दिन मेरे सामने आ जायेगी. हमने कोई वादा नहीं किया था, ना ही क़समें खायी थीं. हमारा प्यार पवित्र था,
निश्छल-निर्मल, गंगा की तरह.

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इधर मेरे पापा ने मेरी शादी दिल्ली में तय कर दी. वो मल्टीनेशनल कंपनी में इंजीनियर था. मेरे और क्षितिज की जाति में फ़र्क़ था. मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं उन्हें अपने प्यार का वास्ता देकर शादी रोकने के लिए कहती. मैं ख़ामोश हो गयी, जैसे घरौंदा बनते-बनते टूट गया था. सतरंगी सपनों में खोई आंखों में व़क़्त ने अंधेरा भर दिया था. एक अकुलाहट थी दिल में. दिल करता मैं क्षितिज की बांहों में कैद रहूं, छुप जाऊं. कोई देख न सके हमें. ये समाज की बंदिशें और परिवार की प्रतिष्ठा हमारे बीच ना आये. ज़िंदगी एक नये मोड़ पर आ चुकी थी. एक फैसला ले चुकी थी मैं अपनी आगे की ज़िंदगी के लिए. हमने आंखों से ज़्यादा बात की थी. शायद हम आंखों की भाषा ज़्यादा समझते थे. एक दिन वो मुझे दिखा. मैंने जाते-जाते उसे एक बार पलटकर देखा था. जैसे हम अब कभी ना मिलने वाले हों. वो भी तड़पकर दो क़दम आगे बढ़ा था, पर जाने क्या सोच वो मेरे पास नहीं आया. मुझे रह-रह कर उसकी आंखें याद आतीं. उसकी तड़प मुझे तड़पा गई थी. हमारे बीच वो दो क़दम का फ़ासला फिर कभी तय नहीं हो सका. रात के बारह बजे फिर फ़ोन आया. मैं जानती थी कि किसका फ़ोन है, मैंने फ़ोन उठाया, दूसरी तरफ़ मुकम्मल ख़ामोशी थी. कुछ देर बाद मैंने ही बात शुरू की, “तुम्हें शायद पता होगा कि मेरी शादी होनेवाली है. मैं ऐसा कोई क़दम उठाना नहीं चाहती, जिससे मेरे परिवार के सम्मान को ठेस पहुंचे. मेरा परिवार ही मेरी पहली और आख़िरी प्राथमिकता है. हमारे रिश्ते का कोई किनारा नहीं. तुमने मुझे चाहा ये एहसान हमेशा मेरी ज़िंदगी में रहेगा. जो चंद हसीन लम्हें तुमने मुझे दिये उसका कर्ज़ हमेशा मेरे दिल पर रहेगा और ये कर्ज़ उतारना मेरे वश में नहीं है क्षितिज…” मैं कुछ पल को ख़ामोश हो गई, क्योंकि मेरा धैर्य टूटता जा रहा था. आंखों में ठहरा सागर जाने कब अपना बंधन तोड़ दे. मैंने ख़ुद को रोकते हुए कहा, “क्षितिज मैं तुम्हें कभी नहीं भूल पाऊंगी, शायद ज़िंदगीभर…. अपने प्यार के लिए लड़ना मेरे वश में नहीं. हम इस जन्म में कभी एक नहीं हो सकते… कभी…” आगे बात करने की ताक़त ख़त्म-सी हो गई थी. उस रात सागर ने जैसे सारा बंधन तोड़ दिया था. मैं कई दिन, कई रातों तक रोती रही. उसका दिल तोड़ने के बाद टूट-सी गई थी. मैं ख़ुद को समेट रही थी. अपने बिखरे अतीत को फिर से जोड़ना इतना आसान कहां होता है. मैं वही सपना देखना चाह रही थी जो हर लड़की अपनी शादी के व़क़्त देखती है. मैं ख़ुश होना चाहती थी. काफ़ी समय गुज़र चुका था. उसका फ़ोन आना बंद हो गया. इसके बाद वो मुझे कभी दिखा भी नहीं. कोई ऐसा पल, कोई ऐसा लम्हा जब गुज़रता जो उसकी यादों से जुड़ा होता, तो जैसे वो मेरे सामने आकर खड़ा हो जाता. लगता उसकी आंखें मुझे देख रही हैं. बस, कुछ क्षणों के लिए कहीं छुप गया है. वो आयेगा और चौंका देगा मुझे उन दिनों की तरह, लेकिन गुज़रा व़क़्त कब आता है. आज मैं वह कुमुद तो नहीं रही. सब बदल गया है. मैं, ये दुनिया, सब कुछ. पर उसकी यादें अब भी एक साये की तरह मेरे साथ लगी रहती हैं. यह भी पढ़ें: … क्योंकि गुज़रा हुआ व़क्त लौटकर नहीं आता (Lost Time Is Never Found Again) ऐसा लगता है जैसे वो मुझसे कभी दूर ही नहीं हुआ, बल्कि वो मेरी रूह, मेरी सांसों में समा गया है. आज भी जब कभी मेरे घर के सन्नाटों को तोड़ती हुई फ़ोन की बेल बज उठती है तो उसकी यादें नई खिली धूप की तरह मेरे आंगन में आ जाती हैं. एक सपना देखा था. फ़र्क़ ये था, मैंने उसे खुली आंखों से नहीं बंद आंखों से देखा था. क्षितिज मुझे भीरू समझता होगा और मैं स्वयं को संस्कारों और रीति-रिवाज़ों में जकड़ी अबला स्त्री. लेकिन आज भी उस एक सपने का दुख मुझे सालता रहता है. जो इतने सालों बाद भी सुकून से जीने नहीं देता. काश, उसने मुझसे कुछ तो कहा होता. आज भी जब आंखें बंद करती हूं तो जैसे उसकी आंखें हंस के कह रही होती हैं, “मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं. क्या तुम भी मुझसे…” और मेरा दिल बरबस कह उठता, “हां, मैं भी.” तभी जानी-पहचानी ख़ुशबू अपने आस-पास महसूस करके जब मैंने अपनी आंखें खोलीं तो अभिनव सूरजमुखी का फूल लिये मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुरा रहे थे. उन्होंने धीरे से मेरे क़रीब आकर कहा, “हमारी छठी सालगिरह मुबारक़ हो जान.” मैंने रोते हुए उन्हें गले लगाकर कहा, “तुम्हें भी” क्योंकि मेरी खुली आंखों का सच अभिनव थे. इस आंगन के सूरज की सूरजमुखी मैं ही थी. मुझे ही घर के हर कोने को अपने त्याग, समर्पण से सजाना था. नया जीवन जीना था मुझे, जिसे स़िर्फ एक नारी ही जी सकती है.

– श्‍वेता भारद्वाज

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Usha Gupta

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