श्वेता बड़े मन और लगन से मनु के पसंद का नाश्ता बना रही थी. गरमा-गरम नाश्ता प्लेट में परोसकर वह उसे देने गई. वह टीवी पर कुछ देखता हुआ बुरी तरह से झल्ला रहा था.
“ओफ्फो सब जगह ब्रेक आ रहा है. ये नहीं कि एक जगह ब्रेक हो, तो दूसरी जगह कुछ देख लो…” कहते हुए मनु ने ज़ोर से रिमोट टेबल पर दे मारा.
“लो बेटा कुछ खा लो.” श्वेता ने उसके सामने प्लेट रखी.
न जाने आजकल के बच्चों को क्या होता जा रहा है… ज़रा देर भी बर्दाश्त नहीं…
“क्या है ये?” मनु ने टीवी पर नज़र गड़ाए ही पूछा।.
“पास्ता है. तुम्हे बहुत पसंद है न.” श्वेता ने प्यार से कहा.
एक चम्मच मुंह में डालते ही वह चिल्लाया, “ये क्या बना कर रख दिया. बेस्वाद बिल्कुल. कुछ भी ढंग से नहीं बनाना आता. नहीं खाना, ले जाओ.”
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“कुछ भी बनाओ तुम्हारे तो वही नखरे हैं. अब इसमें क्या ख़राबी है?” श्वेता ने ग़ुस्से से पूछा, लेकिन तब तक भुनभुनाता हुआ मनु फिर टीवी पर अपनी झल्लाहट निकालने लगा था.
शायद हमने ही अपने बच्चों को सुविधा देने के नाम पर ज़्यादा सिर पर चढ़ा लिया है. अब फिर घंटा भर खपाओ किचन में. श्वेता रसोई में जाने लगी, तो आंगन में झूले पर बैठे चार-पांच वर्ष के बच्चे पर नज़र पड़ी, जो चिड़ियों को देखकर ताली बजाकर ख़ुश हो रहा था. बाई आज अपने बच्चे को लेकर आई थी.
श्वेता एक प्लेट में पास्ता लेकर बच्चे को देने गई. मन में सहज वात्सल्य भी था और अपनी पाक कला की तारीफ़ सुनने का स्वार्थ भी. मनु को बताएगी कि देख मैं तो अच्छा ही पकाती हूं.
बच्चा उसे देख सहम कर झूले से उतर गया.
“ये लो बेटा पास्ता.”
बच्चे के चेहरे पर आई लंबी मुस्कान और ख़ुशी देखकर श्वेता के मन से स्वार्थ की भावना तिरोहित होकर सहज ममता ही बाकी रह गई.
“अच्छा लगा.” श्वेता ने स्नेह से पूछा.
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बच्चे ने खाते हुए मुस्कुराकर गर्दन हां में हिला दी. श्वेता संतुष्ट होकर फिर काम में लग गई. कुछ देर बाद उसे पानी देने गई, तो देखा मनु की प्लेट वैसी ही रखी है और वो अब भी चिड़चिड़ा रहा है. बाहर देखा, तो मुग्ध दृष्टि से देखती रही. बच्चे की प्लेट में एक भी दाना नहीं बचा था और एक परितृप्त, संतुष्ट मुस्कान चेहरे पर लिए बच्चा फिर ताली बजाता हुआ चिड़ियों के साथ खेलने में आनंद मग्न था.
स्वाद शायद खाने में उतना नहीं होता, जितना संतोषी प्रवृत्ति में होता है.
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