Short Stories

कहानी- विमाता (Short Story- Vimata)

उसने बालकनी से झांक कर नीचे देखा तो अभी भी उसकी नई मां आकाश में नज़रें गड़ाए उदास-सी बैठी थीं. उन्हें देख पहली बार उसका मन आत्मग्लानि से भर उठा. क्या कमी है उसकी नई मां में? क्या ग़लती है उनकी, जो वह इस कदर उनका विरोध कर, सब को तनाव में डाले हुए है?

गर्मियों की शाम वैसे भी उदास और तन्हा होती है, पर उस शाम प्रचंड लू के थपेड़ों ने छह बजे के बाद भी शाम को काफ़ी गर्म और उजाड़ बना रखा था. निरुद्देश्य बालकनी में खड़ा राहुल दूर थके-हारे डूबते सूरज को निहार रहा था. वातावरण की यह दमघोटू बोझिलता उसके विकल मन को और भी बेचैन बना रही थी. उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे अपने ही घर में इस तरह के अकेलेपन का सामना करना पड़ेगा. अंदर-बाहर फैला सन्नाटा अब तीर की तरह उसकी स्मृति में चुभ रहा था.
वह अपने मम्मी-पापा की इकलौती संतान थी. मम्मी-पापा दोनों उसे बेहद प्यार करते, पर वह मम्मी से ज़्यादा पापा का लाड़ला था. पापा उसकी हर बात का ख़्याल रखते. घर पर रहते तो उसके आस-पास ही मंडराते रहते. उसे मम्मी से छीनकर नहलाते-धुलाते और उंगलियां थाम पार्क में घुमाने ले जाते. रात में भी अक्सर जब उसे सुलाने के लिए मम्मी मांगती, उसके पापा हंसकर कहते, “छूना मत. मेरे बेटे को मैं ही सुलाऊंगा.”
ऐसी ही बातें मम्मी को चुभ जातीं और वे पैर पटकती अपना तकिया उठाए दूसरे कमरे में सोने चली जातीं. जब कभी वह बीमार हो जाता, ‘पापा-पापा’ की ऐसी रट लगाता कि सैकड़ों काम छोड़ उसके पापा को छुट्टियां लेकर उसके पास रहना पड़ता. बड़ा होने पर भी उसके हर काम में ‘पापा-पापा’ करने से मम्मी अक्सर खीझ जातीं.

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“कभी तो कोई काम अपनी मर्ज़ी से किया करो. हर समय जब देखो ‘पापा-पापा’ ही पुकारते रहते हो.”
लेकिन वह कहां मानने वाला था? पापा तो उसके आदर्श, गुरु और मित्र सभी थे. लोग कहते हैं लड़कियां अपने पापा के सबसे क़रीब होती हैं, पर वह तो लड़का होते हुए भी मम्मी से ज़्यादा पापा के क़रीब था.
वही पापा आज उसके लिए इतने बेगाने हो गए थे कि पूरा एक ह़फ़्ता गुज़र जाने के बाद भी दो-चार औपचारिक बातों के सिवाय उन दोनों के बीच अन्य कोई बातें नहीं हुई थीं. पापा कुछ पूछते भी तो वह चुप लगा जाता. उसकी चुप्पी के आगे उसके पापा भी विवश थे. यह सब घटित हो रहा था उसी मम्मी के इस दुनिया से चले जाने के बाद, जिनके ज़िंदा रहते कभी वह उनका मूल्य समझ नहीं पाया. सहज ही उपलब्ध मां का प्यार, अब दुर्लभ बन जाने पर उसे तरसा रहा था, तड़पा रहा था.
अचानक उसकी नज़रें नीचे लॉन में बैठी उन स्नेहा भारती पर गईं, जो अब उसकी मां कही जाती हैं और जिसके कारण पिता-पुत्र में युद्ध की सी स्थिति आ खड़ी हुई है. दोनों के रिश्ते विखंडन के कगार पर पहुंच गए थे.
पापा योगेंद्र शर्मा चाहते थे कि राहुल स्नेहा भारती को अपनी मां का दर्जा दे, लेकिन उसने भी ठान लिया था कि वे चाहे कितनी भी कोशिशें कर लें, वह स्नेहा भारती को मां की जगह कभी नहीं देगा. उसके पापा या किसी और के कहने मात्र से रिश्ते नहीं बन जाएंगे. रिश्तों को बनाने और निभाने के लिए आपसी विश्‍वास और भावनात्मक लगाव का होना बहुत ज़रूरी है और उसे नहीं लगता कि इस जन्म में वह अपनी इस विमाता के साथ कोई ऐसा संबंध बना पाएगा.
अचानक उसके मन में अपनी मम्मी स्वर्णलता देवी की स्मृति मुखर होने लगी और न चाहते हुए भी उसका मन अतीत के गलियारों में फिर से भटकने लगा. वह आठवीं में पढ़ता था, जब डॉक्टरों ने महीना भर के जांच-पड़ताल के बाद उसकी मम्मी को फेफड़े का कैंसर बताया था, जो अंतिम अवस्था में था. डॉक्टरों के अनुसार, ज़्यादा से ज़्यादा वे तीन महीने ही जीवित रह सकती थीं. अचानक इस सूचना से पिता-पुत्र दोनों स्तब्ध रह गए थे. यह प्राणांतक वेदना दोनों के लिए असह्य थी, फिर भी अपने हृदय की व्यथा को पापा के साथ-साथ वह भी अपनी मम्मी से छुपाने की भरसक कोशिशें करता रहा. लेकिन इस जानलेवा बीमारी की बात ज़्यादा दिनों तक उनसे छुपी नहीं रह सकी. इस सूचना ने उसकी मम्मी को मानसिक रूप से पूरी तरह तोड़ दिया था. अभी वे अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण अध्याय अपने बेटे को फलते-फूलते देखने की चाहत को छोड़कर मृत्यु का वरण नहीं करना चाहती थीं, लेकिन कोई क्या कर सकता था? कभी-कभी नियति के फैसले के आगे हम सभी विवश हो जाते हैं.
सभी की निगाहें एक चमत्कार की आशा पर टिकी थीं. हालांकि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में आदमी का आत्मबल उसमें जीने की अदम्य शक्ति भर देता है, लेकिन परिस्थितियों से घबराकर मम्मी का आत्मबल ही चूर-चूर हो गया था. एक दिन दवा के रिएक्शन के कारण डॉक्टरों द्वारा दी गई जीने की उस छोटी-सी अवधि को भी वह पार नहीं कर पाईं और पलक झपकते ही काल के गाल में समा गईं.
उसके पापा तो इस घटना से पूरी तरह टूट कर बिखर गए. उनके जीवन का सबसे अंतरंग व्यक्ति, जिसके प्यार और साथ को वह मृत्युपर्यंत अपने साथ संभाल कर रखना चाहते थे, अकस्मात् उन्हें आधे रास्ते में ही छोड़ गया था.
मम्मी के बाद उसकी देखभाल पर पापा पहले से ज़्यादा ध्यान देने लगे. फिर भी उन दोनों के जीवन का सूनापन बढ़ता ही जा रहा था. पापा के चेहरे से तो हंसी जैसे लुप्त-सी हो गई थी. हर समय चेहरे पर थकान और उदासी की गहरी लकीरें उन्हें असमय ही बूढ़ा बना रही थीं. उस छोटी-सी उम्र में भी वह पापा के दुखों को भरसक कम करने की कोशिशें करता. रात में भी उन्हें अकेला नहीं छोड़ता, उनके पास ही सोता. फिर भी वह महसूस करता कि भले ही पापा उसके पास लेटे रहते हों, पर निष्प्राण शरीर की तरह. उनका मन तो कहीं दूर भटकता रहता है.
धीरे-धीरे जीवन की व्यस्तता और समय ने दोनों को बहुत कुछ सामान्य बना दिया था. देखतेे-देखते छह साल गुज़र गए. वह प्रतियोगी परीक्षा पास कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके आईआईटी, कानपुर आ गया, जहां हॉस्टल के नए माहौल में और अपनी पढ़ाई में वह पूरी तरह रम गया. उधर मुज़फ्फरपुर में उसके पापा भी कॉलेज के विद्यार्थियों के साथ अनुसंधान के कामों में पूरी तरह व्यस्त हो गए थे.
कभी-कभी मां की यादें उसे पूरी तरह विकल बना देतीं. फिर भी अब जीवन पूरी तरह सामान्य हो चला था. वह सेकंड ईयर की परीक्षा देकर घर लौटने की तैयारी कर ही रहा था कि पापा का एक रजिस्ट्री पत्र उसे मिला, जिसमें उन्होंने लिखा था वह किसी स्नेहा भारती से शादी कर चुके हैं, जो अब उसकी मां है.

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पढ़ते ही उसका सर्वांग सुलग उठा. क्रोध, घृणा और दुख के आवेग से कांपते अपने शरीर का संतुलन बनाना उसके लिए मुश्किल हो रहा था. विधाता ने कैसी विकट परिस्थिति में उसे ला खड़ा किया था. छुट्टियां शुरू होते ही जिस पापा से मिलने के लिए वह बेताब था, अब उसी पापा द्वारा दिए गए अपमान और अकेलेपन के दर्द को सहने के लिए उसे बाध्य होना पड़ रहा था.
अपनी सिसकियों को अपने अंदर जब्त कर जाने कब तक वह यूं ही निःशब्द रोता रहा. पापा का फ़ोन बार-बार आता रहा, पर एक बार भी वह उनसे बात नहीं कर पाया. अपनी विवशता को निःशब्दता में बांध फ़ोन बंद कर सोने की कोशिश करने लगा, पर रातभर मां की यादें उसे व्यथित करती रहीं.
छुट्टियां शुरू हो गई थीं. हॉस्टल क़रीब-क़रीब खाली हो गया था. काफ़ी सोच-विचार के बाद संभावित अवमानना का घूंट पीने, मन में घृणा, दुख, क्षोभ और प्रतिशोध को दबाए वह घर के लिए चल पड़ा था. घर पहुंचते ही दरवाज़े पर उसका सामना एक 40-45 वर्षीया महिला से हो गई. गौर वर्ण की उस महिला का पूर्ण व्यक्तित्व सादगी और शालीनता से भरा था. देखते ही वह समझ गया, यही उसकी नई मां स्नेहा भारती हैं. न जाने क्यों उन्हें देखते ही उसका सारा ग़ुस्सा और प्रतिशोध की भावना कहीं तिरोहित हो गई.
दीनू काका से राहुल का परिचय पा, जो सहजता और आत्मीयता उनके व्यवहार में दिखा, उसमें सौतेलेपन की कोई झलक न थी. सहज ही दीनू काका को उसका सामान अंदर रखने और चाय बना लाने के लिए कह जैसे ही वे उसकी तरफ़ मुड़ीं, राहुल यह सोचकर कि कहीं अपनी विमाता के सामने वह कमज़ोर न पड़ जाए, अपने ग़ुस्से को अपनी चुप्पी से प्रगट करता अपना सामान उठाए अपने कमरे में आ गया.
उसका चाय-नाश्ता दीनू काका उसके कमरे में ही ले आए. जब तक वह नहा-धोकर बाहर आया, उसके पापा भी आ गए. जैसे ही उन्हें उसके आने का पता चला, बिना एक पल गंवाए वे उसके कमरे में आ पहुंचे. उनके चेहरे पर वही चिर-परिचित मुस्कुराहट थी, जैसे कहीं कुछ बदला ही न हो. पर राहुल के अंदर तो एक उथल-पुथल-सी मची थी. पापा का चरण स्पर्श करते पहली बार उसके हाथ कांपे थे और आंखें छलक आईं थीं. उसकी नम और आहत नज़रों की शिकायतों ने उसके पापा को भी कहीं गहरे तक आहत कर दिया था. वह उसकी पीठ थपथपाते उसके क़रीब आकर बैठ गए. अब तक बना संयम बांध तोड़कर बह निकला. अचानक ही वह पापा के कंधे पर सिर रख कर फूट-फूट कर रो पड़ा. उसके पापा की आंखें भी भर आई थीं. थोड़ी देर तक रो लेने के बाद जब राहुल का मन हल्का हो गया, पापा ने अपनी बातें शुरू कीं, “तुम यह कैसा बच्चों-सा बर्ताव कर रहे हो? तुम्हारी नई मां के आ जाने से तुम्हारे लिए यहां कुछ भी नहीं बदला है. न तुम्हारे पापा और न ही तुम्हारा यह घर. मैंने तो इस उजड़े-सूने घर को फिर से बसाने की कोशिश की है. इस शादी से तुम्हारी मां की यादें मिटी नहीं हैं, वो तो मरने के बाद भी इस घर के कण-कण से जुड़ी हैं.”
पापा थोड़ी देर के लिए रुके. वह मौन साधे प्रतिक्रियाविहीन बैठा रहा. “यह सही है कि एक आदमी के इस दुनिया से चले जाने पर उसकी जगह कोई दूसरा नहीं ले सकता. फिर भी कोई किसी के जीवन में कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, उसके चले जाने से ज़िंदगी नहीं रुकती. मैं यह नहीं कहता कि अतीत की सुखद यादों को मिटा सिर्फ़ वर्तमान को ही जियो, पर हमेशा ही कोई आदमी अतीत से चिपका, दुनिया की ख़ुशियों से दूर मायूसी भरी ज़िंदगी नहीं जी सकता.”
अचानक वह बीच में बोल उठा था, “पापा, पूरे पचास की उम्र में आप… लोग क्या कहेंगे?”
“जिसे तुम पापा की अय्याशी और निर्लज्ज मर्यादाहीन आचरण समझ शर्मशार हो रहे हो, दरअसल ऐसी कोई बात है ही नहीं. दुनिया के साथ चलने और अपने सुख-दुख बांटने के लिए हर आदमी को एक भावनात्मक साथ और सहारे की ज़रूरत होती है. तुमने कभी सोचा, तुम्हारी मां को खो देने और तुम्हारे अपनी ही दुनिया में रच-बस जाने के कारण मैं कितना अकेला और निसहाय हो गया हूं? ऐसे भी इस शादी के होने में दो बातें थीं- एक तो जीवन का अकेलापन दूर करना और दूसरा जो सबसे बड़ा कारण था, वह था मुत्युशय्या पर पड़े एक वृद्ध व्यक्ति को मुक्ति प्रदान करना.”
फिर थोड़ा रुक कर वे बोले, “मैं तो आज तक यही समझता रहा कि तुम मुझे सबसे ज़्यादा समझते हो, पर मेरे द्वारा उठाए गए इस क़दम ने तुम्हें ही मुझसे दूर कर दिया. मैं सब कुछ बर्दाश्त कर सकता हूं, पर तुमसे दूरी नहीं.”
बोलते-बोलते उनका गला भर्रा गया. सहसा ही पापा का वात्सल्य और प्यार उसके लहूलुहान छाती पर जैसे मरहम लगा गया. फिर भी दोनों पिता-पुत्र के बीच मौन छाया रहा.
“अब तुम आराम करो, बाकी बातें बाद में करेंगे.” इतना बोलने के साथ ही पापा उठकर वहां से चले गए थे.
खाने के टेबल पर भी वह चुप ही रहा. किसी तरह दो रोटी निगल, सोने चला गया, लेकिन आंखों में नींद कहां थी? दो बजे तक यूं ही करवटें बदलता रहा. दूसरे दिन देर से उठा. जब हाथ-मुंह धोकर नीचे आया तो दीनू काका से पता चला कि उसके लिए खाना बना टेबल पर रख, उसकी नई मां और पापा दोनों कॉलेज चले गए हैं.
वह नाश्ता करने बैठा तो सारे खाने उसके पसंद के बने थे. आलू के परांठे, दही और आलू-मेथी की सब्ज़ी. भोजन की सुगंध से ही उसके मुंह में पानी भर आया. उसने अभी नाश्ता शुरू ही किया था कि दीनू काका उसके बगल में आ खड़े हुए. “एक बात कहूं बेटा? इसे छोटा मुंह और बड़ी बात मत समझना.”
वह कुछ नहीं बोला. दीनू काका घर के पुराने नौकर थे. उनकी वह बहुत इ़ज़्ज़त करता था.
“ये जो तुम्हारी नई मां है- स्नेहा बिटिया, बड़े अच्छे स्वभाव की हैं. मैं इसे बचपन से ही जानता हूं. यह रमाकांत बाबू की इकलौती बेटी थी, जो ‘भारत स्टील’ में काम करते थे. ये तो जन्म से ही अभागन है. छह साल की थी, जब मां मर गईं. शादी हुई तो महीना भर बाद ही एक मोटरसाइकिल दुर्घटना में पति की मौत हो गई. ससुराल वालों ने ‘कुलक्षणी-अभागन’ कह मायके पहुंचा दिया. तब से अपने पिता के पास ही रह रही थी. यहीं उसने अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी की. शुरू से ही कुशाग्र बुद्धि तो थी ही, पढ़ाई समाप्त करते-करते तुम्हारे पिताजी के कॉलेज में ही उसे नौकरी मिल गई.

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पहले तो उसके दकियानूसी पिता ने उसकी दूसरी शादी के लिए नहीं सोचा, लेकिन जब लंबे समय तक बीमार रहने के बाद उन्हें अपना अंतिम समय स्पष्ट नज़र आने लगा, तब सभी आने-जाने वालों के सामने अपनी बेटी की दूसरी शादी करवा देने के लिए गिड़गिड़ाने लगे. जब तुम्हारे पिताजी इंसानियत के नाते उन्हें देखने गए तो उनका हाथ पकड़ अपनी बेटी से शादी कर लेने के लिए मिन्नतें करने लगे. वे एक मरते हुए आदमी की अंतिम इच्छा का अनादर नहीं कर सके और यह शादी उन्हें करनी पड़ी. मेरा तुमसे अनुरोध है कि स्नेहा बिटिया को मां के रूप में अपना लो, बड़े दुख काटे हैं उसने अपने जीवन में. आगे तुम्हारी मर्ज़ी, तुम ख़ुद समझदार हो.”
दीनू काका की बातें समाप्त होते ही वह बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए वहां से चुपचाप चला गया.
एक दिन वह ख़ुद ही रसोई में अपने लिए चाय बना रहा था. जाने कब उसकी कमीज़ चूल्हे के कोने से ऐसी उलझी कि सारी की सारी चाय उसके हाथों पर आ गिरी. वह जलन के मारे चीख उठा. उसकी चीख सुनते ही उसकी नई मां पल भर में दौड़ती आ गई. स्थिति का आभास होते ही वे बुरी तरह घबरा गईं. कुछ न सूझा तो जल्दी से अपना आंचल ठंडे पानी में भिगो उसके हाथों पर लपेट दिया. दीनू काका को मलहम लाने के लिए बोल वह उसका हाथ थामे उसे एक तरह से खींचती हुई रसोईघर से बाहर ला उसके हाथों पर दवा लगाने लगीं. साथ में उसे डांटती भी जा रही थीं. वह चाह कर भी उनका विरोध नहीं कर पा रहा था. न जाने क्यों उनका स्पर्श और डांट उसे अपनी मम्मी की याद दिला गई.
उस दिन के बाद से भले वह चुप रहता था, पर वह उनके प्यार, अपनेपन और निश्छल स्वभाव का क़ायल हो गया था. उसे आए हुए पूरा एक ह़फ़्ता गुज़र गया था. इस दौरान वह हमेशा देखता कि खाली समय में उसकी नई मां ख़ामोशी से उदास बैठी अनंत आकाश में निहारती रहतीं. पापा भी उससे सहमे रहते और बहुधा देर रात को लौटते.
राहुल को लगा घर में जो एक बोझिल चुप्पी छाई है, उसका ज़िम्मेदार कहीं न कहीं वह ख़ुद ही है. अपनी मम्मी को वह ख़ुद भी बहुत प्यार करता था. उन्हें भूलना उसके लिए आसान नहीं था. फिर भी वह जीवन का हर सुख तो भोग ही रहा है. फिर क्यों चाहता है कि पापा उसकी मम्मी की यादों को सीने से लगाए अपने जीवन को उदासियों और आंसुओं में डुबोए अकेलेपन के दंश को भोगते रहें. पचास की उम्र कोई जीवन का अंतिम पड़ाव नहीं होता. पापा को भी तनावमुक्त हो ख़ुशी-ख़ुशी जीने का हक़ है.
उसने बालकनी से झांक कर नीचे देखा तो अभी भी उसकी नई मां आकाश में नज़रें गड़ाए उदास-सी बैठी थीं. उन्हें देख पहली बार उसका मन आत्मग्लानि से भर उठा. क्या कमी है उसकी नई मां में? क्या ग़लती है उनकी, जो वह इस कदर उनका विरोध कर, सब को तनाव में डाले हुए है? उनके प्रति मन में पलती आक्रोश की शृंखलाएं जैसे किसी चट्टान से टकरा कर बिखर गईं. वह बिना समय गंवाए नीचे आ उनके पास पड़ी खाली कुर्सी पर बैठ गया. फिर धीरे से बोला, “सॉरी मम्मी, क्या अब तक की गईं मेरी सारी नादानियों के लिए मुझे माफ़ कर, मुझसे दोस्ती करेंगी?”
उसके व्यवहार से अचंभित, आनंद मिश्रित स्निग्ध दृष्टि से नई मां उसे निहारने लगीं. उनका मलीन चेहरा ख़ुशी से दीप्त हो उठा. राहुल के कंपित हाथों को थामते ही कई दिनों से मन में उमड़ते-घुमड़ते आंसू आंखों से झरने लगे. उनके आंसू पोंछ थोड़ी ही देर में अपनी बातों से राहुल ने अपनी नई मां से अच्छी दोस्ती कर ली. जब उसके पापा घर आए तो दोनों मां-बेटे को दोस्तों की तरह घुल-मिल कर बातें करते देख पहले तो चौंके, फिर धीरे-से वे भी शामिल हो गए. वर्षों बाद उस घर में घर के सदस्यों की हंसी और खिलखिलाहटें गूंज रही थीं.

रीता‌ कुमारी

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Usha Gupta

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