कहानी- ज़मीन की तलाश में… (Short Story- Zamin Ki Talash Mein…)

जो कॉलेज के ज़माने में एक प्रबल नारीवादी कवियत्री हुआ करती थी… अपनी कविताओं में पुरुष वर्चस्व के ख़िलाफ़ अलख जगाया करती थी… वही आज अपनी निजी ज़िंदगी में जब-तब पति की मार खा कर एक अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर है.
क्यों?
आख़िर क्यों?

वारुणी आज बेहद क्षुब्ध थी.
‘उफ़… कितना सहे वह? कदम-कदम पर अपनी अस्मिता पर आघात झेलने की भी आख़िर हद होती है. क्या करें? कहां जाए? पति द्वारा दी गई यंत्रणा से कैसे मुक्ति मिले?
आज महिम ने उसे फिर से ग़ुस्से में थप्पड़ मारा. कितनी बार वह उसे समझा चुकी है प्यार से कि सख़्ती से उस पर हाथ न उठाया करें. लेकिन जब उसे क्रोध आता है, तो सब कुछ भूल जाता है. याद रहता है, तो मात्र अपने पुरुष होने का दंभ. अपने पौरुष पर यही दर्प महिम को बार-बार उसे आघात पहुंचाने के लिए विवश करता है, वो चोट जो सीधे उसके मर्म में जा कर लगती है. एक बार उस पर अपनी भड़ास निकाल वह फिर यूं सामान्य हो जाता है, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो.

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अभी शाम को आएगा, तो उसके लिए उसका मनपसंद गजरा, डार्क चॉकलेट्स और ब्लैक फॉरेस्ट पैस्ट्रीज लेकर आएगा. “सॉरी… सॉरी…” की रट लगा देगा. उसके आंसुओं से मलिन चेहरे पर अपने स्नेह चिह्नों की बौछार कर देगा. स्वयं उसके बालों गजरा लगाएगा, अपने हाथों से मनुहार कर उसे चॉकलेट्स और पैस्ट्रीज़ खिलाएगा और चाहेगा कि वह उसका थप्पड़ भूल जाए, अनदेखा कर दे अपना अपमान, अपनी बेइज़्ज़ती. जब तक वह मुस्कुरा नहीं देगी, उसके आगे-पीछे घूमेगा. अपनी बेइंतहा मोहब्बत से उसे गले तक भिगो देगा.
काश! वह समझ पाता कि कितना मुश्किल होता जा रहा है उसके लिए यूं चाबी से चलने वाली गुड़िया बन कर डबल क़िरदार निभाना. आए दिन उसकी मार व प्रताड़ना सहकर वह अपनी ही नज़रों में गिर जाती है. उसे अपने आप से वितृष्णा होने लगती है.
हिस्ट्री में पोस्ट ग्रैजुएट, बीएड और एमएड की डिग्री से लैस ख़ूबसूरत, ज़हीन मिसेज़ वारुणी रॉय, जो कॉलेज के ज़माने में एक प्रबल नारीवादी कवियत्री हुआ करती थी… अपनी कविताओं में पुरुष वर्चस्व के ख़िलाफ़ अलख जगाया करती थी… वही आज अपनी निजी ज़िंदगी में जब-तब पति की मार खा कर एक अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर है.
क्यों?
आख़िर क्यों?
क्योंकि उसमें हौसला नहीं है कि वह पति के नाम के ठप्पे के बिना तलाक़शुदा या अकेली औरत के तौर पर एक स्वतंत्र जीवन जी सके. अपना सम्मान ख़ुद कर सके.
नहीं… नहीं… उसे विचार करना होगा. अपनी इज्ज़त की राह ख़ुद-ब-ख़ुद खोलनी होगी. इसके लिए सबसे पहले उसे हर बात में महिम पर अपनी निर्भरता ख़त्म करनी होगी.
इस सोच ने उसे बेइंतहा मज़बूती दी.

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‘वह नौकरी करेगी. अपने पांव तले अपनी ज़मीन तलाशेगी और फिर उस पर अपना स्वतंत्र वजूद गढ़ेगी।’
उसने अपना लैपटॉप खोला और नौकरी के लिए एप्लीकेशन टाइप करने लगी.

रेणु गुप्ता

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Photo Courtesy: Freepik

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