Short Stories

कहानी- डे-वालेन का लाल शोकेस (Short Story- De-Wallen Ka Lal Showcase)

“आज ज़िंदगी की इस लंबी यात्रा की यातनाओं को पोंछ देना चाहती थी. कोई ऐसा डिलीट बटन ढूंढ़ रही थी, ताकि पीछे की घटनाओं को डिलीट किया जा सके.”
एक डोर ऐसी थी जिसे हाथों में लिए दोनों छोर पर स्वाति और विस्मय खड़े थे. ऊहापोह की स्थिति थी. विस्मय उस डोर को खींचना चाहता था, ताकि स्वाति उसके क़रीब चली आए.

मानो पूरा जीवन इन्हीं कुछ पलों के फोटो फ्रेम में ़कैद होकर रह जाना चाह रहा हो. चारों तरफ़ लाइट्स, कैमरे, चकाचौंध, ख़ूबसूरत स्टेज, ख़ूबसूरत चेहरे, शोर-शराबा, ग्लैमरस कार्यक्रम, रंग-बिरंगे पोशाक पहने एक्टर्स, डायरेक्टर्स, प्रोड्यूसर्स, लेखक, गीतकार, संगीतकार वगैरह-वगैरह सभी से भरा खचाखच वह हॉल.
नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम… कुछ कहे और अनकहे के बीच अपने निशानों को इस कदर छोड़ रही थी कि रात्रि भी इन्हें ढक ना पाए… धड़कते मानवों को मदहोश करनेवाली वह शाम… स्वाति ने गर्व से अपना मस्तक ऊपर किया, जब यह अनाउंसमेंट हुआ कि इस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार विस्मय को दिया जा रहा है.
दोनों होटल लौट रहे थे. सड़कें, चौराहे, सड़कों के किनारे लगे पेड़-पौधे, सोडियम लाइट्स, हवाएं, खिलखिलाते, आपस में बातें करते प्रतीत हो रहे थे. स्तब्ध थी स्वाति. स्वाति ने कहा, “विस्मय मेरे जीवन का वह पल सर्वोत्तम होता है जब भी तुम्हें कोई पुरस्कार मिलता है. जैसे तुम्हारे अस्तित्व को किसी ने तराशा हो. जी चाहता है इन पलों को हमेशा के लिए ़कैद कर अपने हृदय में छुपा लूं, ताकि पल-पल मैं इनसे रू-ब-रू होती रहूं. तुम स़िर्फ अभिनेता ही नहीं हो, तुम उस जीवन को भी जीते हो, जिस फिल्म के नायक का तुम्हें यह पुरस्कार मिला है. तुमने सचमुच में वह जीवन जिया है. तुम्हारी पत्नी होना मेरे लिए गर्व की बात है.”
“तुम साथ हो, तभी यह संभव हो पाता है, वरना मैं कुछ भी नहीं.” कहते हुए विस्मय ने मुस्कुराकर स्वाति की तरफ़ प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा था.
विस्मय ने हमेशा से झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली उन स्त्रियों के लिए संघर्ष किया था, जो अपने पेट की भूख मिटाने के लिए दूसरों के भूख की शिकार बनी थीं. इस व्यवस्था को तो वह ख़त्म नहीं कर पाया था, किंतु उनकी मदद कर उन्हें दूसरे काम करने व अपनाने की सलाह और प्रेरणा देता रहा. बहुत बार उसे सफलता भी मिली.
मान-सम्मान, प्रतिष्ठा और समाज के हित में कार्य करने के लिए विस्मय विख्यात था. एक तरफ़ फिल्मों की दुनिया, दूसरी तरफ़ सोशल वर्क ने विस्मय को एक अलग पहचान दी थी. आज जिस फिल्म के लिए उसे पुरस्कार मिला था, उसमें उसे ऐसा क़िरदार मिला था, जिसमें नायक समाज के इस वर्ग की स्त्रियों को उस निकृष्ट दुनिया से बाहर निकालने का कार्य करता है.
रात में होटल में स्वाति और विस्मय फिल्म पर ही चर्चा कर रहे थे. स्वाति ने कहा, “तुम्हारे इस क़िरदार से किसी भी व्यक्ति को प्रेम हो जाए.”
विस्मय ने ठहाका लगाते हुए कहा, “अरे, यह तो फिल्म का क़िरदार था, जो उस शहर के पूरे रेड लाइट एरिया को ख़त्म कर गंदगी के उस दलदल से स्त्रियों को बाहर निकालता है और उन्हें सामान्य जीवन जीने के लिए अथक प्रयास कर प्रोत्साहित करता हैे. यह फिल्म है स्वाति, एक कल्पना है, हक़ीक़त से बहुत दूर.”
स्वाति ने बीच में टोकते हुए कहा, “किंतु तुमने भी तो बहुत सारी स्त्रियों को इस दलदल से बाहर निकाला है.”
“हां मैने निकाला है, किंतु हमारे समाज में छुपे तौर पर यह सदियों से चला आ रहा है. इसे जड़ से उखाड़ फेंकना नामुमकिन है. मैं तो इसके लिए स्त्रियों को दोष नहीं देता हूं. समाज का पुरुष वर्ग इसका ज़िम्मेदार है. इस गंदगी में ज़्यादातर पुरुषों के ही द्वारा पीड़ित और सताई हुई स्त्रियां होती हैं, जो गरीबी के कारण इनका शिकार होती हैं.”
स्वाति मंत्रमुग्ध हो विस्मय को चुपचाप निहार रही थी. उसने कहा कुछ नहीं, किंतु स्वयं पर गर्वित हो रही थी. मेरा पति भी पुरुष ही है, किंतु कितना अलग… बिल्कुल साफ़ और पारदर्शी… बिल्कुल शीशे की तरह…
अक्सर हमें लगता है कि घटनाएं हमारे वश में होती हैं, किंतु असल में हम ही घटनाओं के वश में होते हैं.
“कल हम लोग लौट रहे हैं ना?” स्वाति ने पूछा था.
“नहीं हम लोग एक सप्ताह एम्सटर्डम  में रुकेंगे, फिर चलेंगे.” विस्मय ने कहा.
“क्यों?” स्वाति ने पूछा.
“यहां भी कोई समाज सेवा करनी है क्या?” यह सुनकर उसने ठहाका लगाया.

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“नहीं कुछ दिनों तक भागदौड़ के जीवन से अलग, एम्सटर्डम की खुली हवाओं में सांस लेना चाहता हूं.”
पूरे दिन दोनों एम्सटर्डम की सैर करते और रात में लौटते थे. दो दिनों बाद विस्मय ने स्वाति से कहा, “मेरे बचपन का दोस्त श्‍वेतांक ने अरसे बाद मुझसे संपर्क किया है. वह एम्सटर्डम में ही है. कुछ समय मैं उसके साथ बिताना चाहता हूं स्वाति. फिर पता नहीं जीवन में यह मौक़ा मिले ना मिले. आज शाम वह आएगा. तुमसे भी मिलना चाहता है.”
विस्मय दिन में स्वाति के साथ समय बिताता और शाम अपने दोस्त के साथ. और सुबह होने से पहले होटल लौटना… स्वाति के लिए यह विस्मयकारी नहीं था, क्योंकि वह फिल्मों की दुनिया की आदी थी.
किंतु फिर कुछ ऐसा घटित हो जाना जिसके बारे में स्वाति के वर्तमान पलों के पन्नों पर लिखा ही नहीं था. झटके से शामिल हो जाना, जो स्वाति के लिए बिल्कुल अंजाना और नया था… फिर स्वाति का मन और शरीर का क्षत-विक्षत हो जाना… मानो जल्दी में लिखी गई किसी फिल्म की स्क्रिप्ट हो.
डे-वालेन एम्सटर्डम का वह इलाका… सुर्ख लाल रोशनी से सुसज्जित और शोकेस में खड़ी वह अर्धनग्न, मन और शरीर से मृतप्राय, फिर भी जीवन की लालसा में इशारों से पुरुषों को लुभाना. यह निर्णय करना बड़ा ही दुविधापूर्ण था कि कौन किसे जीवन दे रहा था? वो बालाएं, जो स्वयं की भूख मिटाने के लिए किसी की भूख का शिकार हो रही थीं या फिर वे पुरुष जो पौरुष का प्राकृतिक स्वरूप भुनाते हुए उनकी रोजी-रोटी चला रहा थे..? निर्णय… मेरी-गो-राउंड की तरह वृत्ताकार चक्कर काटते हुए किसी ख़ास बिंदु पर नहीं पहुंच पा रहा था.
उस समय रात के दस बज रहे थे. कमरे में होटल का स्टाफ खाना लेकर आया और कहा, “आपसे कोई मिलना चाहते हैं.” स्वाति उठ खड़ी हुई. श्‍वेतांक को देखकर वह चौंक पड़ी.
“अरे आप? इस समय? विस्मय कहां है..? ”
इन अनगिनत प्रश्‍नों के उत्तर के बदले श्‍वेतांक मौन हो गया. उसकी आंखें होटल के स्टाफ को देख रही थीं, मानो वह उसके जाने का इंतज़ार कर रहा था. स्वाति भी चुप हो गई. स्टाफ अब चला गया था. दोनों सामान्य थे. स्वाति के चेहरे पर चिंता के भाव थे, उसकी आंखें कौतुहल, जिज्ञासापूर्ण नज़रों से श्‍वेतांक को देख रही थीं. मन ही मन वह विस्मय  के बारे में सोच रही थी कि वह तो यह कहकर गया था कि वह श्‍वेतांक के साथ घूमने जा रहा है.
दोनों चुप थे. पूरा कमरा उन्हें घूर रहा था. स्वाति अपने आपको रिक्त सी महसूस कर रही थी, मानो उसके पास कोई शब्द ही ना हो बोलने के लिए.
अचानक श्‍वेतांक बोला, मानो मौन का शंख बजा हो.
“भाभीजी कई दिनों से मन विचलित था. सोचा कि आपसे ना कहूं, किंतु आप विस्मय के जीवन की मुख्यबिंदु हैं. इस कारण आपका जानना बहुत ज़रूरी है. उसके जीवन के हर एक पहलू को मैं जानता हूं. उसकी समाज में यह बेदाग़ छवि कहीं काला धब्बा ना बनकर रह जाए. उसी के लिए आगाह करने आया हूं.”
स्वाति मानो समुद्र के किनारे खड़ी उन लहरों की प्रतीक्षा कर रही थी, जो उसके जीवन में शायद कोई तूफ़ान लाने वाला हो. शरीर कांप रहा था. वह अपने आपको उस पुराने सूखे पेड़ की तरह महसूस कर रही थी, जो तूफ़ान के चपेट में आकर गिरने ही वाला था.
“भाभीजी, डे-वालेन दुनियाभर में प्रसिद्ध है… एम्सटर्डम का रेड लाइट एरिया. यहां देह व्यापार, आम व्यापार की तरह ही है. यहां की सरकार ने इसे वैध कर रखा है. यहां यह छुपे तौर पर नहीं होता है. नियॉन की लाल रोशनी में नहाया यह एरिया एक सामान्य बाज़ार की तरह है. हमारे यहां जिस तरह से दुकानों के शोरूम में पुतले रखे जाते हैं, यहां पर लाल रंगों से नहाए, शीशे के शोकेस में हाड़-मांस का, सांस लेता पुतला, अर्धनग्न खड़ा रहता है. जो आंखों और शरीर की अश्‍लील मुद्राओं के द्वारा जीवन जीने के लिए याचना करता नज़र आता है.
विस्मय, जो आपका पति, मेरा दोस्त, फिल्म वर्ल्ड में नायक, किंतु समाज के लिए वह महानायक है. और अब तक के जीवन में उसने इन्हीं वर्गों के लिए समाज में एक बीड़ा उठाया है. आज उसने उन लाल रोशनियों में स्वयं को नंगा कर दिया है. आपसे वह झूठ बोलकर हर रोज़ निकलता है, यह कहकर कि वह इस शहर का सैर करने जा रहा है. किंतु आज उस देह व्यापार में स्वयं लिप्त है.
पहले दिन उसने मुझे उन लाल रोशनी के अनुभवों को बताया, तो मैं हतप्रभ रह गया और जब मैंने मना करने की कोशिश की, तो उसके इन शब्दों ने मेरे मन के रेशों को तोड़ कर मुझे भीतर तक घायल कर दिया… अरे यार ये हमारे देश की स्त्रियां थोड़े ही हैं, जिनके लिए मैं लडूं या संघर्ष करूं और यहां कोई जान भी नहीं पाएगा. मैं अपने देश में नहीं करता हूं यह सब. पूरी दुनिया के स्त्रियों का मैंने कोई बीड़ा थोड़े ना उठाया है.”
सड़क के किनारे-किनारे चलती स्वाति एम्सटर्डम की उन सभी खूबसूरत चीज़ों को बड़े गौर से देख रही थी. वहां के लोग, पेड़-पौधे, सड़क, बिल्डिंग, सड़क के किनारे खड़े सोडियम लाइट्स के खंभे, जो उसकी ओर व्यंग्य से देख रहे थे और जिन्हें वह चलती हुई गिनती जा रही थी. जबकि उसे पता था कि उसे गिनने का उसे कोई लाभ नहीं मिलनेवाला है.

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कल तक जो इतना ख़ुशनुमा था, आज इतनी यंत्रणा कैसे दे सकता है? सब कुछ इतना मृतप्राय था कि उसे सड़े मांस की दुर्गंध आने लगी थी. घिन आ रही थी उसे. भीतर का अंतर्द्वंद इतना सघन और कालिमा लिए हुए था कि उसे अपने आप से भी घिन होने लगी.
विस्मय और स्वाति घर लौट चुके थे. फिर से वही ज़िंदगी… शूटिंग… कैमरे… लाइट्स… रात की पार्टियां और इन सबसे अलग विस्मय का सामाजिक कर्तव्य.
आज वह आमंत्रित था. शोषित वर्गों के लिए ठोस कदम उठाने के लिए उसे पुरस्कृत किया जाना था. उसने स्वाति से कहा, “स्वाति शायद मुझे लौटने में देर हो. पुरस्कार वितरण कार्यक्रम और पार्टी… बहुत समय लग जाएगा. तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. तुम साथ चलती तो अच्छा लगता.”
यकायक स्वाति के भीतर कहीं जमा हुआ ग्लेशियर, विस्मय के शब्दों के ताप से थोड़ा पिघला और बाहर निकलने को आतुर हुआ… और आख़िर निकल ही गया.
“पुरस्कार लेते हुए तुम्हारे हाथ नहीं कांपेंगे?”
व़क्त मानो जीवन के अंतिम बिंदु पर ठहर गया था. विस्मय अचंभित हो कुछ बोलने ही वाला था कि स्वाति ने पिघलते ग्लेशियर को बह जाने दिया.
“मुझे बताओगे कि प्रत्येक देश की स्त्रियों का शरीर और मन क्या भिन्न-भिन्न होता है?” विस्मय की आंखें फैल गईं.
“यह कैसा सवाल है स्वाति?”
“तुम्हारे लिए यह सवाल है, किंतु मेरे लिए, मेरे भीतर का वह अंतर्द्वंद है, जो बिल्कुल डे-वालेन के लाल शोकेस में बंद उन असहाय और बेजान शरीरों जैसा है और वहां से निकलने को छटपटा रहा है, तड़प रहा है. उनका शरीर क्या मेरी तरह नहीं था? या उनका मन स्त्रियों की तरह नहीं था? ऊपर से भले ही वह देह व्यापार में लिपटी, अश्‍लील, चरित्रहीनता की प्रकाष्ठा लिए हुए दिखती होंगी. लेकिन क्या उनके साथ रात बिताते हुए छटपटाती हुई उनकी अंतरात्मा का वह कोना तुम्हें नहीं दिखा, जिसके लिए अब तक के जीवन में तुम संघर्ष करते रहे और आज उसी के लिए पुरस्कार लेने जा रहे हो? ऐसा घिनौना दोहरा मापदंड?”
स्वाति को आज अपने शरीर से उस सड़े हुए मांस की दुर्गंध फिर से आ रही थी और वह घिसटती हुई अपने बेडरूम में चली गई. विस्मय भी अपने शरीर को खींचता हुआ वहां गया.
“आज मेरी ज़िंदगी भी तुम्हारे साथ नियॉन लाइट से नहाई हुई, उस शो केस में बंद छटपटा रही है, जहां से मैं बाहर निकलने को तड़प रही हूं.”
काफ़ी समय बीत गया. विस्मय सिर झुकाए स्वाति के सामने चुपचाप बैठा था. बड़ी मुश्किल से उसके होंठ हिले, “… स्वाति मैं नहीं पूछूंगा कि तुमने यह कैसे जाना, किसके द्वारा जाना. सत्य बस इतना ही है कि उस नियॉन लाइट में हज़ारों पुरुषों की तरह मैं भी नहा आया. कुछ समय के लिए मेरे सारे सिद्धांत, मेरे सारे उसूल, जीवन के मायने… सारे बदल गए थे. वह एक मायानगरी थी, जहां यथार्थ मैं भूल गया था. मेरे भीतर का पौरुष बाहर निकल गया था, जिसने मेरे सारे आदर्शों को कुचल दिया. तुम्हारे विश्‍वास को मैंने तोड़ा है. तुम चाहे जो सज़ा दो… तुम्हारा प्रेम समझ मैं उसे स्वीकार कर लूंगा.”
“आज ज़िंदगी की इस लंबी यात्रा की यातनाओं को पोंछ देना चाहती थी. कोई ऐसा डिलीट बटन ढूंढ़ रही थी, ताकि पीछे की घटनाओं को डिलीट किया जा सके.”
एक डोर ऐसी थी जिसे हाथों में लिए दोनों छोर पर स्वाति और विस्मय खड़े थे. ऊहापोह की स्थिति थी. विस्मय उस डोर को खींचना चाहता था, ताकि स्वाति उसके क़रीब चली आए.
किंतु स्वाति..? वह तो असमंजस में थी… डोर के सहारे वह पास भी नहीं जाना चाहती थी और मन में यह भी शंका थी कि कहीं डोर खींच दे, तो वह टूट ही ना जाए. कमरे में वह पल काफ़ी समय तक ठहरा रहा. जज बनकर वह कमरा उस अंतिम निर्णय का इंतज़ार कर रहा था.
स्वाति विस्मय के क़रीब गई… उसके होंठ हिले, मानो भीतर का कोई सांकल टूटा…शब्द कठोर, किंतु सधे हुए थे.
“तुम्हें छोड़कर कभी नहीं जाऊंगी, क्योंकि इससे तुम्हारी सज़ा कम हो जाएगी. हमारा यह कमरा जहां हमारा शरीर और मन मिला था, जीवनभर साक्षी रहेगा… कि मेरी कोई भी रात तुम्हारे साथ इस कमरे में नहीं बीतेगी, ताकि जीवनभर हमारा यह कमरा तुम्हें उस लाल शोकेस की याद दिलाता रहे… और तुम्हारा चरित्र फिर से गिरने ना पाए.”

प्रीति सिन्हा

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Usha Gupta

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