अपरिचित शहर, अपरिचित लोग और नया स्टेशन. मैं ट्रेन से उतर पड़ा. प्रातः की ठंडी बयार ने शरीर को कंपकंपा दिया. रोम-रोम सिहर उठा. लगा सुमी का लहराता आंचल होंठों को छू गया है. यह सत्य है कि सुमी के लहराते आंचल के स्पर्श से ही मेरा रोम-रोम सिहर उठता था. आज पुनः सुमी के क़रीब जा रहा हूं. एक लंबी चुप्पी के बाद उसका पत्राचार, मुलाक़ात का आमंत्रण…! उसके अलगाव ने तो धीरे-धीरे अतीत पर अंकित अफ़साने को अमिट कर ही डाला था, इस ठंडी बयार ने न जाने कैसे ज़ख़्म उधेड़ दिया.
एक बार और यूं ही सुमी के आमंत्रण पर उसके गांव गया था. तब समय अनुकूल था और सुमी स्टेशन पर ही रिसीव करने आई थी. आशान्वित नयनों में थी प्रसन्नता की चमक और होंठों पर बहुत कुछ कहने की बेताबी. शाम को उसके साथ गंगा किनारे सैर करने गया था. बालू की रेत पर बैठे उसे अपलक निहारने लगा. मेरी निर्निमेष दृष्टि के समक्ष उसने एक प्रश्न अंकित कर दिया, “यूं घूर-घूर क्या देख रहे हो?”
“सोच रहा हूं, तुम मेरी ज़िंदगी में पहले क्यों नहीं आई?”
“तब मैं शायद तुम्हारे क़ाबिल ही नहीं थी.”
उसने मेरे आग्रह पर एक गीत सुनाया था- बिल्कुल वही गीत, जो मेरी डायरी में अंकित था, जो मेरी लेखनी की तड़प थी. दिल की व्याकुलता का भाव था. लिखा था सुमी के लिए और उसने गाया मेरे लिए. उस समय जो उसका रूप देखा, प्रेरणा का प्रतीक था. और सुमी मेरी प्रेरणा बन गई.
आज उसी प्रेरणा की पुकार मुझे यहां खींच लाई थी. स्टेशन से बाहर निकलते ही सिगरेट सुलगाई, एक कस खींचने के बाद जेब से पत्र निकालकर उस तक पहुंचने के निर्देशों को पुनः पढ़ा और मेन रोड की ओर बढ़ चला. थोड़ी दूर जाने पर ही मंदिर की घंटी सुनाई पड़ी और मैं मंदिर के सम्मुख पल भर के लिए रुक गया. मुझे याद है कि जीवन में स़िर्फ एक बार ही मंदिर के अंदर प्रविष्ट हुआ हूं- सुमी के साथ. वह भी काफ़ी तर्क-वितर्क के बाद. सुमी ने प्रश्न किया था, “तुम ईश्वर को क्यों नहीं मानते?”
“इसलिए कि ईश्वर मात्र एक कल्पना है और इस वैज्ञानिक युग में कल्पना के सहारे जीना बेवकूफ़ी है. हां, आत्मबल के लिए ईश्वर की कल्पना सटीक है.”
“मगर ईश्वर तो सर्व-शक्तिमान एवं इस जग के सृष्टा हैं.”
“दुनिया के अन्य देशों के मुक़ाबले हमारे देश में सबसे ज़्यादा ईश्वर भक्त व आस्तिक हैं, फिर भी हमारा देश इतना पिछड़ा है.”
“तो क्या इतने लोग नामसझ हैं?”
“नहीं, नासमझ नहीं हैं. लोग मंदिरों में जाकर अपने आस्तिक होने का ढोंग रचते हैं.”
फिर वह चुप हो गई, परंतु मैं उसका आग्रह न टाल सका. मैं द्वार पर खड़ा रहा और वह पूजा करने गई. लौटकर माथे पर टीका लगा दिया. मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए. वह आश्चर्य से मुझे देखने लगी.
“किसे प्रणाम कर रहे हो?”
“तुम्हें?”
“क्यों?”
“सुमी, तुम मेरे मन-मंदिर की देवी हो. इस भटकते मुसाफिर को तुम्हारे प्यार ने अपने पाश में बांधकर प्रगतिपथ पर अग्रसर होने हेतु प्रेरित किया है.”
“इस नश्वर शरीर के प्रति इतनी आस्था! हास्यास्पद-सी बात लगती है.”
“आदमी की आस्था का केंद्र यदि आदमी ही हो, तो प्रगतिशील समाज का निर्माण हो सकता है.”
वैसे आस्था और भावना तो सुमी के प्रति आज भी मेरे दिल में है. परंतु आज समझ रहा हूं कि इस वैज्ञानिक युग में आस्था और भावुकता के लिए कोई जगह नहीं है. सुमी के प्रति मेरा प्यार एक दुस्साहस है. संस्कारों एवं रस्मों के समक्ष आलोचना का विषय है.
प्यार… वह भी एक विवाहिता से? हां, सुमी की ज़िंदगी में मैं तभी आया, जब वह किसी की दुल्हन बन चुकी थी. शादी के बाद बेमेल स्वभाव के कारण उसके अंदर कुछ रिक्तता थी. न जाने कैसे मैं उन रिक्त स्थानों को भरने लगा और वहीं से आकर्षण का अंकुर फूट पड़ा. जब उस पर चाहत की ओस गिरी तो प्यार की कोपल खिल उठी.
सुमी के अंदर वे सारे गुण मौजूद थे, जो सामाजिक मर्यादा, शालीनता एवं शिष्टता के लिए एक नारी में होने चाहिए. फिर न जाने क्यों वो मेरी ओर आकर्षित हो गई? इसे वह व्यभिचार नहीं मानती. सुमी सदा यही कहती, “यह तो मेरी अतृप्त आकांक्षा की विवशता है. एक निःस्वार्थ समर्पण है… भावनाओं का समन्वय है.” यह तो अच्छा हुआ कि पति के स्थानांतरण के कारण वह बहुत दूर चली आई, वरना कलंक का टीका लग ही जाता.
आज पहली बार इस दूरी को तय करने का प्रयास किया. स्कूल के क़रीब आकर रुक गया. दो आशान्वित नयन दिखाई दिए. वह झट से क्लास से बाहर आकर मेरे सामने खड़ी हो गई. मैंने उसकी तरफ़ ग़ौर से देखा. नज़रें मिलीं और मिलते ही उसकी आंखों से आंसू के दो मोती टपक पड़े. यह वह सुमी नहीं थी, जिसे मैंने चाहा था. चार वर्षों में ही इतना परिवर्तन. न वह चंचल नयना, न शोख लटें और न ही अधरों पर मुस्कान. गोरे-गोरे गालों पर काली-काली झाइयां शायद पीड़ा की छाप हों. यह तो सुमी का सुड़ौल शरीर नहीं, बल्कि किसी मरीज़ का शरीर है. वह बरबस मुस्कुराने का प्रयास करने लगी.
“कैसे हो?” सुमी की उत्सुकता
फूट पड़ी.
“ठीक ही हूं.” मैंने औपचारिकता निभाई.
“घर चलोगे न?” सुमी का आग्रह भरा स्वर लगा.
“नहीं, चलो कहीं होटल में चलें.”
“नहीं, घर चलो.” पुनः ज़िद की, मैं आग्रह टाल न सका.
“घर में कौन-कौन हैं?”
“दीदी, ननद… सब हैं, स़िर्फ वो नहीं.”
“लोग पूछेंगे, तो क्या कहोगी?”
“लोगों को कुछ जवाब देने से बेहतर है ख़ामोश रहूंगी.”
हम दोनों एक साथ चल पड़े. न जाने क्यों आज कुछ बातें करने में झिझक-सी महसूस हो रही थी. पता नहीं, कितनी बार इस तरह पैदल गप्पे मारते हम दोनों गंतव्य स्थान से आगे तक निकल गए थे, परंतु आज… नहीं आज शायद सुमी वह सुमी नहीं रही या फिर मैं ही कुछ दब्बू-सा हो गया. दोनों के बीच एक चुप्पी, एक ऐसी चुप्पी कि इंसान तो ख़ामोश रहता है, मगर अंतर्मन में हाहाकार मच जाता है. बातचीत का सिलसिला आख़िरकार मैंने ही शुरू किया, “तुमने टीचिंग जॉब ज्वाइन कर लिया?”
“अपने आपको व्यस्त रखने के लिए.” सुमी का संक्षिप्त उत्तर था.
“क्यों घर में व्यस्त नहीं रह पाती?”
“वहां बहाना ढूंढ़ना पड़ता था. चेहरे पर सदा अतीत की कुछ छाया छाई रहती थी, जिससे वो शंकित नयनों ने निहारते रहते थे.”
“बबलू कैसा है?” मैंने बात का रुख बदला.
“बबलू और पिंकी दोनों ठीक हैं.”
मैं थोड़ा असहज हो गया. तो सुमी दो बच्चों की मां बन गई, परंतु अभी तक पूर्ण पत्नी नहीं बन सकी. तब लगा कि शरीर के मिलन से कहीं ज़्यादा भावनाओं का समन्वय… विचारों का मिलन… प्यार का आदान-प्रदान ऊंचा होता है. रिश्ते में जकड़ कर रहना शायद मजबूरी है, परंतु प्यार के पाश में बंध जाना ही सच्ची आत्मीयता है.
“तुम कैसे हो?” बहुत देर के बाद सुमी ने एक प्रश्न किया.
“बस, जी रहा हूं.” पलभर मौन के बाद बोला.
वह एक लंबी सांस खींचकर पुनः मौन हो गई, मैं पुनः कुछ प्रश्न ढूंढ़ने लगा. पता नहीं क्यों सुमी के क़रीब चुप रहना नहीं चाहता, जबकि मुझे तन्हाई ही पसंद है. अचानक मैं चौंक गया जैसे कुछ भूल रहा था. हां, भूल ही तो रहा था वो प्रश्न, जो सर्वप्रथम करना चाहिए था. “मुझे बुलाने की वजह?” आवाज़ में कुछ ज़ोर लगाकर बोला.
“बताऊंगी इत्मीनान से… पहले घर चलो.” बहुत देर के बाद उसने अतीत की मुस्कान बिखेरकर तिरछी नज़रों से निहारा.
घर का दरवाज़ा उसकी ननद ने खोला. चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं… ज़ुबान से कोई शब्द नहीं निकला. उसकी पूर्वानुसार उपेक्षा से मैं आहत हो गया. मैंने इसी उपेक्षा के भय से मिलनस्थल होटल चुना था, परंतु सुमी के फैसले के विपरीत फैसला कभी नहीं कर पाया. यह मेरी एक कमज़ोरी थी.
मैं ग़ौर से कमरे को निहारने लगा. कहीं भी रौनक़ नज़र नहीं आई. बस, दीवारों पर उदासी की स़फेदी पुती लगी. सुमी की ननद बेला का पुनः आना, बेमन से नाश्ता देना मानो मैंने यहां आकर बहुत ज़्यादती की. फिर उनकी दीदी आई. औपचारिकता निभाने हेतु कुछ बातें कीं, तब कुछ राहत महसूस हुई.
फिर सुमी आई पिंकी को गोद में लिए. मैं पता नहीं किस अधिकारवश उसे गोद में लेने के लिए खड़ा हो गया. पिंकी हंसती हुई मेरी गोद में आने लगी. तब काफ़ी सावधानी के बाद भी मेरी उंगलियां उसके उरोजों से टकरा गईं. पूरे शरीर में झनझनाहट हो गई. एक अतृप्त प्यास दौड़ पड़ी. सुमी इसे जान-बूझकर की गई हरकत समझ तीव्र नज़रों से निहारने लगी. तब पहली बार मेरा अस्तित्व उसके समक्ष बौना हो गया. मैं शर्म से पानी-पानी हो गया, परंतु अपनी घबराहट छिपाने के लिए मैं बोल पड़ा, “बड़ी प्यारी है पिंकी.” नयन-नक्श बिल्कुल तुम्हारे जैसे ही हैं… प्रेरणा की पुष्प लगती है.”
सुमी अंदर चली गई. मैं पिंकी के साथ खेलने लगा, जिस तरह एक बाप अपनी बेटी से खेलता है. तभी बेला आई. न जाने क्यों उसके आते ही मैं सहम गया. पिंकी के साथ मेरा वात्सल्य जताना उसे अच्छा न लगा. वह पिंकी को मेरी गोद से लेकर चली गई.
उसके बाद औपचारिकता का दौर, नहाना-खाना… परिचितों के उत्थान-पतन का ब्यौरा. ऐसा लग रहा था कि सभी अपने औपचारिकता रूपी अभिनय को छिपाने का प्रयास कर रहे हैं. फिर रात भी आ गई. सुमी ने सेवईं बनाई थी. उसे मालूूम है कि सेवईं मुझे बहुत पसंद है. बहुत दिनों के बाद जी भरकर खाना खाया. सोने की तैयारी करने से पहले सुमी ने पूछा, “कमरे में बहुत उमस है. छत पर सोना पसंद करोगे?”
“तुम्हें तो मालूम है कि मुझे खुली हवा बेहद पसंद है.”
“तो फिर चलो, छत पर बिस्तर लगा देती हूं.”
खुली छत, चांदनी रात, शीतल पवन और मैं अकेला. पहले करवटें बदलीं, तो पवन ने शरीर को गुदगुदा दिया. फिर मैं चादर ओढ़कर सोने का उपक्रम करने लगा, पर नींद भी इतनी ज़ालिम है कि ऐन व़क़्त पर दगा दे जाती है. सुकून के व़क़्त तो चुपचाप आकर लिपट जाती है. घड़ियाल ने बारह के घंटे बजाए, तभी सुमी एक ग्लास पानी लेकर आई. उसे मालूम है कि आधी रात को उठकर पानी पीना, कुछ लिखना मेरी आदत है.
सुमी मेरे क़रीब आकर बैठ गई और उसने पानी का ग्लास बढ़ा दिया. मैं भी उठ बैठा और बड़ी हसरत भरी निगाहों से उसे देखा. खुली ज़ुल्फ़ों एवं नाइटी में बड़ी भली लगी सुमी. भावावेश में ग्लास पकड़ने की बजाय मैंने उसकी कलाई पकड़ ली. मेरा संयम लड़खड़ा गया. उंगलियों का कसाव तीव्र हो गया. तभी पानी भरा ग्लास गिर पड़ा. उसका बदन कांपने लगा. चेहरा भयभीत हो गया, शायद जिस विश्वास की आशा थी वह टूटता-सा लगा.
बड़ी मुश्किल से वह बोल पाई. “जिन अरमानों को बड़ी मुश्किल से सुलाया है, उन्हें फिर से मत जगाओ. यह सच है कि मैं तुम्हारे समक्ष बहुत कमज़ोर हो जाती हूं. अब इतनी कमज़ोर भी मत बना दो कि जीने के लायक़ ही न रह सकूं.”
“सुमी… तुमसे मिलने के लिए मैं कितना बेचैन था, फिर भी कभी आने का साहस न किया. तुम्हारे पास आने से मैं भी कमज़ोर हो जाता हूं. मैं तुम्हारे परिवार में अशांति का बीज बोना नहीं चाहता. मुझे यहां नहीं आना चाहिए था सुमी.”
“मैंने तुम्हें यह पूछने के लिए बुलाया है कि तुम शादी कब करोगे?”
“अभी कुछ फैसला नहीं कर पाया हूं?”
“कब करोगे फैसला? कुछ फैसले समयानुकूल ही उचित होते हैं. कब तक अपने आपको झूठी तसल्ली देते रहोगे? समाज के भी कुछ नियम हैं… दायरे हैं.”
“मैं समझता हूं, परंतु पता नहीं क्यों…?”
“तुम अब जल्द ही शादी कर लो.” बहुत देर के बाद सुमी ने अधिकार भरे शब्दों में अपना फैसला सुनाया. वह जानती है कि उसके फैसले के विरुद्ध फैसला नहीं कर पाना मेरी कमज़ोरी है.
“यह तुम कह रही हो सुमी?” मैंने आश्चर्य से पूछा. “हां, मैं कह रही हूं… तुम्हारी सुमी नहीं, दो बच्चों की मां कह रही है… पति से अपने अधिकारों के लिए लड़ती हुई एक पत्नी कह रही है. आख़िर मैं कब तक तिरस्कृत होती रहूंगी? दो बच्चों की मां हो गई. कल को बच्चे बड़े होंगे, तो इस वैमनस्य को देखकर क्या सोचेंगे? …शायद तुम नहीं जानते कि उन्हें यह भ्रम हो गया है कि तुम अभी तक मेरा इंतज़ार कर रहे हो और मैं भी अभी तक आस संजोए बैठी हूं. एक साथ तीन ज़िंदगियां तबाह हो रही हैं… तुम तो बहुत महत्वाकांक्षी हो… आगे बढ़ो और सबकी ज़िंदगियां आबाद कर दो.” इतना कहकर सुमी सुबकती हुई चली गई.
मैं अवाक् हो शून्य को ताकने लगा. रात का तीसरा पहर समाप्त हो चुका था… चल पड़ा मैं पहली ट्रेन पकड़ने… ज़िंदगी में पहली बार पराजित हुआ था, फिर भी सुमी के फैसले के विरुद्ध फैसला करने का साहस न जुटा सका.
सेवा सदन प्रसाद
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