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कहानी- नई कोपलें (Story- Nai Koaplay)

 
          साधना राकेश
“क्योंकि यह आज के बच्चे की मांग है. उसका एक दायरा है. एक सोच है, एकाग्रता की सीमा है. वह वही कर सकता है, जो वह ठीक समझता है. उससे ज़बरदस्ती न करें. पराजय की पीड़ा से वह टूट जाएगा. आपकी बेटी ने आत्महत्या का प्रयास यूं ही नहीं किया होगा. कितनी बार टूटी होगी वह बेचारी अपने अंतर में. क्या महसूस किया है आपने?”

 

“दीदीजी कॉफी…” कॉफी का मग मेरी मेज़ पर रखकर रमिया वहीं नीचे बैठ गई.
“3 नंबर के बेड के मरीज़ का क्या हाल है रमिया, होश आया या नहीं?” मैंने धीरे-से पूछा.
“अभी कहां दीदीजी, वहीं से तो मैं देखती आ रही हूं. लेकिन आप यहां कब तक बैठी रहेंगी. जब उस बिटिया को होश आएगा, तो मैं आपको बता दूंगी. रात के 2 बज गए हैं, थोड़ी देर सो लीजिए.”
“नहीं रमिया, नींद नहीं आ रही है. मैं ठीक हूं. यहीं बैठी हूं.”
थोड़ी देर निस्तब्धता बनी रही. हॉस्पिटल के इस कक्ष में हम दोनों के अलावा आईसीयू और इमरजेन्सी अटेंड करने वाले स्टाफ़ को छोड़कर लगभग सभी अलसाए पड़े थे. मरीज़ों के तीमारदार भी लगभग सो गए थे, पर मेरी आंखों में नींद दूर-दूर तक नहीं थी.
“दीदीजी, एक बात पूछूं?” रमिया ने फिर मुंह खोला.
“पूछ.”
“3 नं. बेडवाली बिटिया से आपका कोई ख़ास रिश्ता है क्या?”
“ख़ास से तुम्हारा क्या मतलब है? हम डॉक्टर हैं और हर मरीज़ हमारे
लिए ख़ास है.”
“वह तो है दीदीजी, पर इस लड़की के लिए मैंने आपकी आंखों में एक अलग ही दर्द देखा है.”
रमिया ठीक कह रही थी. आज शाम पांच बजे इस लड़की का जो केस आया है, उसने मुझे हिलाकर रख दिया है. नींद की ढेर सारी गोलियां खाकर इस ल़ड़की ने मरने की कोशिश की थी, पर ऐन व़क़्त पर मां को शक हुआ और इसे अस्पताल ले आई.
आज दोपहर में ही हाईस्कूल का रिज़ल्ट निकला था.
“दीदीजी, एक बात बताइए? इस बिटिया ने नींद की इत्ती सारी गोली काहे खा ली? कोई ऊंच-नीच हो गई थी क्या?” फुसफुसाकर रमिया ने पूछा तो मैंने उसे कसकर घूरा. रमिया सच कह रही थी. एक व़क़्त ऐसा था, जब कुंवारी लड़कियां आत्महत्या करती थीं, तो इसके पीछे एक ही वजह लोग मानते थे कि कहीं कुछ ग़लत हुआ है, लेकिन यह समस्या क्रमशः कम होती चली गई. सह-शिक्षा और विज्ञान के कारण चेतना जागी है, परंतु इधर कुछ सालों से किशोर व युवा आए दिन मौत को गले लगा रहे हैं. प्रगति के साथ-साथ जीवन में तनाव भी आ गया है, जिसे आज की पीढ़ी झेल नहीं पा रही है.
“दीदीजी, कॉफ़ी ठंडी हो रही है.” रमिया के कहने पर मैंने कॉफ़ी का मग उठा लिया. कॉफ़ी ठंडी हो गई थी, लेकिन मेरे अंदर का लावा दपदपा रहा था. वह अभी तक ठंडा नहीं हुआ है. बार-बार एक ही आवाज़, एक ही चित्र मेरे अंतर में उभरता है… मेघा…मेघा…
इससे दो वर्ष बड़ी थी मेरी बेटी. अठारवां जन्मदिन था. क्लीनिक से जल्दी-जल्दी काम निपटाकर जब मैं घर पहुंची, तो देखा मेघा बड़े से एक्वेरियम में मछली को खाना डाल रही थी. मुझे देखकर वह थोड़ी सहम गई. “यह क्या है? कहां से ले आई?”
“मां, मैंने इसे ख़रीदा है. आपसे कहा था ना… पर मुझे लगा आपके पास अभी समय नहीं है, सो ख़ुद जाकर ले आई.”
“बेवकूफ़ लड़की, तुम्हें कुछ इल्म भी है, तुम्हारा इस साल बोर्ड भी है. एक महीने बाद तुम्हारा पेपर है. डॉक्टरेट की प्रतियोगिता है. सारा समय तुम इन मछलियों को चारा खिलाओगी तो पढ़ोगी कब?”
“पढ़ लूंगी मां, आप टेंशन क्यों लेती हैं? मेरे नंबर कम आए हैं कभी?”
“हां, इस बार 5 नंबर कम आए हैं मैथ्स में. तुम समझती क्यों नहीं? मैंने और तुम्हारे पापा ने यह नर्सिंग होम तुम्हारे लिए बनाया है. तुम्हें ही संभालना है सब कुछ.”
“मां, मैं डॉक्टर नहीं बनूंगी. मैंने आप लोगों के कहने पर विषय ले तो लिया है, पर मैं प्रशासनिक सेवा में जाना चाहती हूं, प्लीज़ मां.” मैं बिना कुछ बोले ग़ुस्से में अंदर चली गई. बेवकूफ़ लड़की है. फिर मुझे लगने लगा कि मेघा पढ़ाई में कम समय दे रही है. जब वह घर में घुसती तो सबसे पहले एक्वेरियम की तरफ़ भागती. थोड़ा व़क़्त वहां गुजारती. अब मैं उसके एक-एक मिनट पर नज़र रखती थी. परीक्षाएं हो गईं. रिज़ल्ट भी आ गया, पर वह मेडिकल परीक्षा में सिलेक्ट नहीं हुई थी. उफ़, उस दिन कैसी महाभारत मची थी. ग़ुस्से से लाल-पीले हुए रवि ने एक्वेरियम ही उठाकर पटक दिया. सहमी मेघा रोती हुई कमरे में भाग गई और फिर… घड़ी ने टन-टन करके 3 का घंटा बजाया तो मैं अतीत से वर्तमान में आ गई.
उस बच्ची को दवा देने का व़क़्त हो गया था. इस तरह के सीरियस केस में मैं पूरी तरह नर्सों पर भरोसा नहीं करती. मैं स्वयं उस बच्ची के पास चली गई. जब मैं वहां पहुंची तो नर्स वहां उसे दवा देने के लिए मौजूद थी. मुझे देखकर वह मुस्कुराई, “मैम, मैं दे रही हूं दवा.” मैंने उसकी हार्ट बीट चेक की. आईसीयू से बाहर निकली तो देखा उसकी मां भरी हुई आंखों से दीवार पकड़े हुए खड़ी थी और उसके पिता थोड़ी दूर पर खड़े उसे घूर रहे थे.
“डॉक्टर साहब, मेरी बच्ची बच तो जाएगी.” हाथ जोड़कर बड़े ही कातर स्वर में उसने मुझसे पूछा. मैं कुछ जवाब देने ही जा रही थी कि उसके पति ज़ोर से चिल्लाए, “अब क्या आंसू बहा रही है? तेरे ही लाड़-प्यार का नतीज़ा है यह. सारा मान-सम्मान मिट्टी में मिला दिया. अगर किसी मीडियावाले को ख़बर लग जाए तो इ़ज़्ज़त खाक़ में मिलाकर रख देंगे.” मैंने उसे ध्यान से देखा. चेहरे-मोहरे से सभ्य संस्कारी पुरुष, लेकिन घृणा से ओत-प्रोत.
“कृपया, शांत हो जाएं, यह हॉस्पिटल है. मेरे केबिन में आइए. मुझे आप लोगों से कुछ बातें करनी हैं.” रमिया से दो कप कॉफ़ी भेजने को कहकर मैं अपने केबिन में चली आई. थोड़ी देर बाद दोनों मेरे सामने आकर बैठ गए.
“इकलौती बेटी है आपकी?” मैंने बात का सूत्र पकड़ते हुए कहा.
“नहीं, एक छोटा भाई भी है इसका.” महिला ने जवाब दिया.
“आप दोनों जॉब करते हैं?”
“नहीं, स़िर्फ मैं करता हूं. यह घर देखती है.” इस बार पुरुष बोला.
“ओह! मतलब दोनों बच्चों को पढ़ाना-लिखाना सब आपकी पत्नी के ज़िम्मे है?”
“बचपन से मैंने ही उन्हें गाइड किया है. मेरी पत्नी ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है, इसलिए मुझे ही देखना पड़ता है. लेकिन अब मेरे पास उन्हें देखने का व़क़्त नहीं है.”
“ओह! तब भी बीच-बीच में आप बच्चों को प्रेरित तो करते ही होंगे?”
“जी हां, बिल्कुल.”
“क्या कहते हैं?”
“यही कि उन्हें फ़र्स्ट आना है. बड़ी नौकरी करनी है. इंजीनियर बनना है. आईआईटी में सिलेक्ट होगी, तभी तो बड़ी इंजीनियर बनेगी.”
“क्या वह भी यही बनना चाहती है?”
“वह तो बेवकूफ़ है, नासमझ है. उसे अपने करियर के बारे में कुछ नहीं पता.”
“आप काउंसलर हैं?”
“नहीं, पर जानता हूं.”
“आप कुछ नहीं जानते. बच्चा भविष्य में क्या बनेगा या बनना चाहता है, यह आप अपने नज़रिए से देखते हैं. कभी उसके नज़रिए से भी देखने की कोशिश की है आपने?
मिस्टर जोशी, आत्महत्या का प्रयास कोई बहुत टूट कर ही करता है. अपने ही शरीर को पीड़ा देने का कृत्य करने के लिए कितना बड़ा कलेजा चाहिए ! जो आत्महत्या करते हैं, इसके पीछे अभिभावक ज़िम्मेदार होते हैं. आपकी पत्नी अकेली ज़िम्मेदार नहीं है.”
“नहीं, मैं स्वयं को गुनहगार नहीं मानता. मैंने हमेशा इसकी हर ख़्वाहिश पूरी की है. लेकिन मेरी इच्छा इतनी-सी है कि मेरे बच्चे पढ़-लिखकर बड़े अधिकारी बनें.”
“क्या यह बच्ची फेल हुई है?”
“नहीं, फेल नहीं हुई है. नंबर कम आए हैं. इन्होंने उसे बहुत बुरी तरह डांटा था. यह भी कहा कि एक वर्ष बाद तुम्हें आईआईटी. में सिलेक्ट होना है.” रुंधे गले से इस बार मां बोली.
“मि. जोशी, आप कभी फेल हुए हैं?”
“हां, एक बार हाईस्कूल में.”
“फिर क्या प्रतिक्रिया थी आपके पैरेंट्स की?”
“मुझे थोड़ा डर लगा, इसलिए मैं शाम तक बाहर टहलता रहा. मैं मानता हूं मेरी संगत उस समय बहुत अच्छी नहीं थी और मेरे दो पेपर बिगड़ गए थे. जब मैं घर आया तो पिताजी ने मुझे अपने पास बिठाकर बड़े प्यार से समझाया था. मुझे आज भी याद है, उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘बेटा, पराजय की चोट खाकर ही आदमी दुगुने उत्साह से विजय के पथ पर आगे बढ़ता है और उसमें उसे सफलता भी ज़रूर मिलती है. तुम अपनी असफलता को अपने ऊपर हावी मत होने दो. फिर प्रयास करो. मुझे उम्मीद है कि तुम सफल होओगे. मैं नहीं चाहता मेरी तरह अच्छी शिक्षा के अभाव में तुम भी एक मामूली नौकरी पर गुज़र करो. मैं चाहता हूं तुम एक बड़े ऑफ़िसर बनो. मेरी यह इच्छा पूरी करोगे ना…?’
पिता की आंखों की उस क़ातर याचना को मैं आज तक नहीं भूला हूं. फिर तो मैंने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा और आज इस मुक़ाम पर खड़ा हूं.”
“आपने देखा मि. जोशी, आपके पिता ने भी आपके सामने स़िर्फ अपनी इच्छा रखी थी. अपने सपनों को थोपा नहीं था. आप क्या पढ़ें या क्या बनें, यह चयन आपके लिए छोड़ दिया था उन्होंने. वरना वह भी कह सकते थे कि तुम कलेक्टर या वकील बनो, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. आज हम अपने सपनों को अपने बच्चों के जरिए पूरा करवाने मेंे लगे हैं. आज यह हर घर की समस्या बन चुकी है. प्रतिस्पर्धा में प्रत्येक माता-पिता सुरसा की तरह मुंह फाड़े बेहतरीन रंगीन कैरियर के अंदर निवाले की तरह अपने बच्चों को ढकेल रहे हैं, बिना यह जाने-समझे कि उनके बच्चे की रुचि इसमें है या नहीं और जब वह बच्चा रेल की पटरी से कटता है या अपना जीवन समाप्त करता है तो सारी ज़िंदगी माता-पिता एक-दूसरे को कोसते हुए बिताते हैं. क्यों बनाना चाहते हैं हम अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर? क्यों नहीं उन क्षेत्रों पर नज़र दौड़ाते हैं, जिनकी हमारे देश को भी आवश्यकता है. कितनी ख़्वाहिशें रखेंगे ये पैरेंट्स? ये ख़्वाहिशें तो अंतहीन हैं, इलास्टिक वहीं तक खींचनी चाहिए, जहां जाकर वह टूट न जाए.” आवेश में मेरी आवाज़ कांपने लगी थी.
“मैम, मैं समझता हूं, लेकिन समझौता हम ही क्यों करें?”
“क्योंकि यह आज के बच्चे की मांग है. उसका एक दायरा है. एक सोच है, एकाग्रता की सीमा है. वह वही कर सकता है, जो वह ठीक समझता है. उससे ज़बरदस्ती न करें. पराजय की पीड़ा से वह टूट जाएगा. आपकी बेटी ने आत्महत्या का प्रयास यूं ही नहीं किया होगा. कितनी बार टूटी होगी वह बेचारी अपने अंतर में. क्या महसूस किया है आपने?”
“डॉ. साहब, मेरी बच्ची को बचा लीजिए.” मां गिड़गिड़ाई.
“देखा आपने? यह वही मां है, जिसे आप कम पढ़ी-लिखी बता रहे हैं. अगर यह समय पर अपनी बुद्धि का उपयोग करके इसे मेरे पास न लाई होती तो क्या आपकी बच्ची की सांसें अब तक चल रही होतीं?”
थोड़ी देर जोशी साहब चुप बैठे पहलू बदलते रहे. फिर धीमे से बोले, “आप शायद ठीक कहती हैं मैम. मेरे पिता तो पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उन्होंने मेरी असफलता से ही मेरी सफलता को जोड़ दिया और मैं इक्कीसवीं सदी का पढ़ा-लिखा योग्य ऑफ़िसर पिता बनकर भी अपनी बेटी के मन की व्यथा को नहीं समझ सका. अपनी ही इच्छा उस पर लादता गया. वह क्या बनना चाहती है, यह जानने की कोशिश ही नहीं की. डॉक्टर साहब, मेरी बच्ची बच तो जाएगी?”
यह प्रश्‍न एक पिता ने सच्चे दिल से पूछा था, क्योंकि तभी रमिया ने यह कहते हुए कमरे में प्रवेश किया कि दीदीजी 3 नं. बेडवाली बच्ची को होश आ गया है. “ईश्‍वर ने आपकी पुकार सुन ली जोशी साहब. अब आगे आपको क्या करना है, यह आप दोनों बेहतर समझते होंगे.” कहते हुए मैं उठ गयी.
आईसीयू की तरफ़ जाते हुए मैंने घूरकर अपनी मेज़ पर रखी मेघा की तस्वीर पर आंखें टिका दीं. अपने आंसुओं को रोकते हुए मैं तेज़ी से आईसीयू की तरफ़ बढ़ी. एक बच्ची के प्राण बचाकर, उसके माता-पिता को समझाकर शायद मैंने अपने प्रायश्‍चित का एक अंश और कम कर दिया है. पता नहीं मेरी यह बच्ची मुझे माफ़ कर पाएगी या नहीं, जिसका नाम मेघा था और जिसके जीवन का लक्ष्य कुछ और था, लेकिन अपने नर्सिंग होम के लालच में कि इसे कौन चलाएगा, मैं और रवि उसे डॉक्टर बनाने पर तुले थे. क्रोध और डिप्रेशन में उसने अपना जीवन समाप्त कर दिया. काश! हर माता-पिता मेरी इस ग़लती से सबक़ ले सकें.

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Meri Saheli Team

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