‘काश! आज मम्मी-पापा होते!’ एक आह के साथ ही मन से प्रत्युत्तर भी आया. ‘मम्मी-पापा होते तो वो ये उसकी शादी नहीं, शादी की पंद्रहवीं सालगिरह होती. क्या इत्तेफ़ाक था. पंद्रह साल पहले भी उसकी शादी की यही तारीख निकली थी. यही माहौल, यही सजावट, ऐसा ही कोलाहल और सब इंतज़ाम देखने के लिए भागते-दौड़ते मम्मी-पापा. उफ़ ये यादें!
बॉलकनी से लटकती बिजली की झालरें, सीढ़ियों की रेलिंग पर सुसज्जित फूल मालाएं, रसोई से आनेवाली पकवानों की सुगंध और ख़ुशियों से भरा कोलाहल. कुल मिलाकर दिल की गहराइयों को गुदगुदाकर मन में ख़ुशियों के इंद्रधनुषी रंग बिखेर देनेवाला माहौल. लेकिन शायना के दिल को ये सारी चीज़ें गुदगुदाने की बजाए कुरेद रही थीं. ज़ख़्म हरे हो चले थे. मन को जितना ख़ुश होने के लिए समझाती, वो बिदके अड़ियल बच्चे की तरह उतना ही दुखी होता जाता. शिरीष जब भी उसकी ओर देखकर मन के दरवाज़े खोलने के आग्रह के साथ मुस्कुराते, तो दरवाज़ा खोलने को आतुर चंचल मन को व्यावहारिक बुद्धि डपटकर बिठा देती और प्रत्युत्तर में औपचारिकता में लिपटी फीकी मुस्कान परोस देती.
फूलवाले ने हल्दीवाले दिन की तरह गेट के आगे एक चादर तान दी थी, ताकि कोई प्रवेशद्वार को बनते न देखे. काम पूरा होने पर चादर हटनेवाली थी. छोटी बहन आन्या अपने उत्साह में शायना को भी वहां खींच लाई थी. शायना जानती थी कि द्वार कैसा होगा. हल्दीवाले दिन पीले गुलाबों और नारंगी मोतियों से बना था. बिल्कुल मम्मी की योजना के मुताबिक़. उसी दिन समझ गई थी कि मम्मी की डायरी से देखकर हो रहा है सब. मामी ने ज्ञान परोसा था, “हल्दी कीटाणुनाशक होती है. साथ ही पीला रंग उत्साह और उमंग का प्रतीक होता है. हल्दी लगाने का मक़सद केवल रंग निखारना नहीं है. ये इसलिए लगाई जाती है, ताकि मन से अवसादों के कीटाणु भी मर जाएं और हम नए उत्साह से भर जाएं…”
उत्साह! बिना मम्मी-पापा के! क्या ये संभव है? हुंह… हल्दी मन के विषाद को हर लेगी? कैसे? उस दिन भी नाच-गाने के बीच शायना अनमनी-सी अतीत की खट्टी-मीठी यादों में खोई रही थी.
“सारे अरमान मेरी शादी में पूरे कर लोगी, तो आन्या-मान्या की शादी में क्या करोगी?” मम्मी को गलबहियां डालते हुए उलाहना दिया था, तो पापा ने मम्मी से पहले लाड़ उड़ेल दिया था.
“तुमसे सात साल छोटी हैं तुम्हारी जुड़वा बहनें. तब तक तो इतने नए आइडिया आ चुके होंगे तुम्हारी मम्मी के दिमाग़ में कि तुम ईर्ष्या न करने लगो.”
… सुर्ख लाल रंग के गुलाबों और पान की धानी पत्तियों से बना बिल्कुल मम्मी के सपनोंवाला प्रवेशद्वार… हर्षध्वनि के बीच अपनी नम हो गई पलकें छिपाए शायना अपने कमरे में आ गई.
‘काश! आज मम्मी-पापा होते!’ एक आह के साथ ही मन से प्रत्युत्तर भी आया. ‘मम्मी-पापा होते तो वो ये उसकी शादी नहीं, शादी की पंद्रहवीं सालगिरह होती. क्या इत्तेफ़ाक था. पंद्रह साल पहले भी उसकी शादी की यही तारीख निकली थी. यही माहौल, यही सजावट, ऐसा ही कोलाहल और सब इंतज़ाम देखने के लिए भागते-दौड़ते मम्मी-पापा. उफ़ ये यादें! पापा का बिजली के तार से चिपक जाना… मम्मी का हड़बड़ी में उन्हें पकड़ लेना. लड़केवालों का आठ महीने इंतज़ार के बाद शादी कैंसिल कर देना… और इन सबसे बढ़कर एक दिन पहले तक बलाएं लेते, कोई भी काम करके कृतकृत्य से होते रिश्तदारों का वो उपेक्षित करनेवाला रवैया… वो सारे संघर्ष और संघर्ष का अकेलापन…
मम्मी-पापा के साथ घर की सारी ख़ुशियों, सपनों को भी लकवा मार गया था. साथ ही लकवा मार गया था तीनों बहनों की मासूमियत को, समाज, रिश्तेदारों के प्रति उनके आदर और विश्वास को, हर नैतिक संबल को.
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
भावना प्रकाश
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