कहानी- अपराजिता 4 (Story Series- Aparajita 4)

 

‘‘आचार्य, मेरे कारण आप पर इतनी बड़ी विपत्ति आई है. मैं अपराधिन हूं आपकी. आप जो भी दंड देंगे मुझे स्वीकार है.’’
‘‘कारण तो कुछ और होगा, तुम तो निमित्त मात्र थीं, इसलिए अपने को दोषी मत मानो.’’ आचार्य ने श्वेता को पकड़कर ऊपर उठाया, फिर गंभीर स्वर में बोले, ‘‘मैं वचनबद्ध हूं. तुम्हें शिक्षा अवश्य दूंगा, क्यूंकि मेरा जितना भी ज्ञान है उसकी सुयोग्यतम उत्तराधिकारी तुम्ही हो.’’
बहुत मुश्किलों से श्वेता के आसूं रूक पाए.

 

मृत्यु! उसके पश्चात तो सब कुछ समाप्त हो जाता है. प्रण, हठ, वचन, तपस्या, सिद्धांत सब अर्थहीन हो जाते हैं. आचार्य की सोच को झटका सा लगा और उनके चेहरे के भाव तेजी से बदलने लगे. चंद पलों में ही उनके चेहरे पर हमेशा तैरने वाली निर्मल शांति छा गई.
भगवान रूद्र को प्रणाम कर वह उठे और श्वेता की ओर देखते हुए बोले, ‘‘देवी, तुम अपराजिता प्रतीत होती हो, अतः मैं तुम्हें शिक्षा दूंगा लेकिन एक शर्त है.’’
‘‘मुझे सारी शर्तें स्वीकार हैं.’’ श्वेता ने हाथ जोड़े.
‘‘मुझसे शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात तुम नृत्य का कोई भी व्यवसायिक प्रस्तुतीकरण नहीं करोगी.’’ आचार्य ने शर्त बताई.
‘‘मैं वचनबद्ध होती हूं आचार्य.’’ श्वेता ने झुककर प्रणाम किया. इसी के साथ उसका शरीर लहराया और वह फ़र्श पर गिरकर अचेत हो गई. शायद उसकी समस्त इंन्द्रियां इस आशीर्वाद को ग्रहण करने की आस में ही अभी तक जागृत थीं.
प्रखर ने तुंरत डॉक्टर को फोन कर सारी बात बताई, तो वे फौरन श्वेता के पास पहुंच गए. आचार्य से आज्ञा लेकर वह भी उसी दिन मुंबई लौट आया.
श्वेता ने एक सप्ताह पश्चात पद्म जाने का कार्यक्रम बनाया था. आचार्य नागाधिराज ने उसे बताया कि हमेशा बर्फ़ से घिरे रहने वाले पद्म की उंचाई समुद्रतल से 12,000 फीट है. यहां ऑक्सीजन की कमी भी रहती है, इसलिए उसे आश्रम में रहने में कुछ दिक़्क़त हो सकती है. अतः पहले वह एक सप्ताह किसी होटल में रूके और जब यहां के वातावरण से सामंजस्य स्थापित हो जाए, तभी आश्रम आए. इसीलिए श्वेता उस होटल में रूकी थी.
जिस अद्वितीय शिष्या ने आचार्य नागाधिराज के सिद्धांतों को परिर्वतित कर दिया था, उससे साक्षात्कार कर कुछ महत्वपूर्ण बिंदु समझाने के उद्देश्य से वे उससे मिलने होटल आए थे. उन्होंने दूर से ही श्वेता को ‘हिमधारा’ की ओर जाते देख लिया था. उन्होंने उसे आवाज़ें भी दीं, लेकिन वह सुन न सकी. आचार्य तेजी से हिमधारा की ओर बढ़े, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. बर्फीली नदी में डूब रही शिष्या को बचाने के प्रयास में स्नो-बाइट से उनकीं उंगलियां सुन्न हो गईं. गैंगरीन फैलने के कारण उनकी दाएं हाथ की तर्जनी और मध्यमा को आधा-आधा काटना पड़ गया था.
अगले दिन श्वेता को जब होश आया, तो वह उनके चरणों में जा गिरी, ‘‘आचार्य, मेरे कारण आप पर इतनी बड़ी विपत्ति आई है. मैं अपराधिन हूं आपकी. आप जो भी दंड देंगे मुझे स्वीकार है.’’
‘‘कारण तो कुछ और होगा, तुम तो निमित्त मात्र थीं, इसलिए अपने को दोषी मत मानो.’’ आचार्य ने श्वेता को पकड़कर ऊपर उठाया, फिर गंभीर स्वर में बोले, ‘‘मैं वचनबद्ध हूं. तुम्हें शिक्षा अवश्य दूंगा, क्यूंकि मेरा जितना भी ज्ञान है उसकी सुयोग्यतम उत्तराधिकारी तुम्ही हो.’’
बहुत मुश्किलों से श्वेता के आसूं रूक पाए.
पांच दिन होटल में विश्राम करने के पश्चात वह आश्रम आ गई, किंतु वहां का वातावरण बदला हुआ था. आचार्य नागाधिराज ने तबले की ओर देखना भी छोड़ दिया था. इसके लिए श्वेता को दोषी मानकर कोई भी आश्रमवासी उससे बात नहीं करता था.
आचार्य को जब इस बात का पता लगा, तो उन्होंने सबको एकत्रित कर कहा, ‘‘यह देवी, इस आश्रम की अतिथि हैं और अतिथि का अपमान मेरा व्यक्तिगत अपमान होगा.’’
पता नहीं यह आचार्य की चेतावनी का असर था या श्वेता का मृदु व्यवहार या फिर उसकी प्रतिभा, किंतु धीरे-धीरे सभी उससे सामान्य व्यवहार करने लगे. यह देख एक दिन आचार्य ने उसका नाम ही ‘अपराजिता’ रख दिया.

 

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आचार्य ने श्वेता के लिए अलग से कक्षाओं की व्यवस्था की थी, क्योंकि संगीत के जिस स्तर तक वह पहले ही पहुंच चुकी थी वहां तक वर्षों की साधना के पश्चात भी अन्य साधकों का पहुंच पाना संभव न था. आचार्य नागाधिराज की प्रतिभा, उनकी दक्षता और कौशल देख श्वेता तो उनकी अनन्य भक्त हो गई थी. नृत्य की सूक्ष्मतम बारीकियों के साथ-साथ उसके विराट स्वरूप की जटिलताओं को भी वे इतनी आसानी से समझा देते कि वह मंत्रमुग्ध हो जाती.
एक दिन उसने कहा, ‘‘आचार्य, मैंने सुना है कि आप वर्ष में एक दिन ‘दायां’ तबला को बाएं हाथ से और बाएं तबले ‘डुग्गी’ को दाहिने हाथ से बजाते हैं. वह भी पूर्ण दक्षता और प्रवीणता के साथ.’’
‘‘यह सब अतीत की बातें हैं.’’ आचार्य ने सांस भरी.
‘‘लेकिन ऐसा वादन तो आप प्रतिदिन कर सकते हैं, क्योंकि बाएं तबले ‘डुग्गी’ को बजाने में तर्जनी और मध्यमा की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका नहीं होती. दाएं हाथ से आप उसे आसानी से बजा सकते हैं.
‘‘जानता हूं.’’
‘‘तो फिर शुरूआत क्यूं नहीं करते? देवालय सूना-सूना सा लगता है.’’ श्वेता ने कहा, तो आचार्य के चेहरे पर पीड़ा के चिह्न उभर आए और उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं.
‘‘मेरा उद्देश्य आपके ज़ख़्मों को कुरेदना नहीं था. मैं जानती हूं कि आप ऐसा कर सकते हैं, इसलिए कह रही थी.’’
‘‘शायद मैं ऐसा कर सकता हूं यह मैं भी जानता हूं, लेकिन…’’
‘‘लेकिन क्या आचार्य?’’
‘‘लेकिन यदि उन वाद्ययों से निकली ध्वनि में कोई त्रुटि हुई, तो मेरी अंतरात्मा उसे सहन नहीं कर पाएगी. मैं पराजित हो जाऊंगा अपराजिता.’’ आचार्य के होंठ थरथराए और वह उठ कर वहां से चले गए. श्वेता ने साफ़ देखा था कि उनकी आंखो में अश्रुकण झिलमिला रहे था. वह सन्निपात की स्थिति में काफ़ी देर वहीं बैठी रही.

श्वेता नृत्य के लिए तो परिश्रम करती ही थी, उसने धीरे-धीरे आचार्य की भोजन व्यवस्था सहित अन्य आवश्यकताओं की भी ज़िम्मेदारी ले ली. ऐसा करके उसे एक अजीब सा संतोष हासिल होता था.
धीरे-धीरे छह माह व्यतीत हो गए. कुछ अपने अपराधबोध के चलते, कुछ आचार्य की प्रतिभा से प्रभावित होकर वह उनके प्रति एक अजीब सा सम्मोहन और आकर्षण महसूस करने लगी थी, जिसे वह चाह कर भी कोई नाम न दे पाती. आचार्य भी उसकी सभी बातों को मान लेते थे, लेकिन जब भी वह पुनः तबला वादन का अनुरोध करती वह इनकार कर देते.
श्वेता की प्रखर से मोबाइल पर पहले प्रतिदिन बात होती थी, किंतु 11 माह बीतते-बीतते यह सिलसिला काफ़ी कम हो गया था. एक दिन प्रखर ने कहा, “श्वेता, तुम्हारी शिक्षा तो अब पूर्ण होने वाली होगी, कब तक वापस आओगी?’’
‘‘शिक्षा तो पूर्ण हो रही है, लेकिन कर्तव्य अभी अधूरा है.’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘मेरे कारण आचार्य के जीवन में जो अभाव हुआ है उसकी पूर्ति के पश्चात ही मैं वापस आ पाऊंगी.’’
‘‘अर्थात?’’
‘‘अर्थात जब मैं आचार्य को पुनः तबला वादन के लिए प्रेरित कर पाऊंगी तभी वापस लौटूंगी.’’
‘‘यदि उन्होंने कभी तबला वादन नहीं किया तो?’’
‘‘तो उनके श्री चरणों में पूरा जीवन काट दूंगी.’’
‘‘इसका मतलब मैं तुम्हें खो रहा हूं?’’ प्रखर का धैर्य समाप्त होने लगा.
‘‘खो तो मैं गई हूं अपराधबोध की गहरी अंधेरी खाइयों में जहां से वापस निकलने का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा.’’ श्वेता के स्वर से उसका दर्द छलक उठा.
उस दिन इस बात पर उन दोनों में पहली बार बहस हो गई. संयोग से यह बातें उधर से गुज़र रहे आचार्य नागाधिराज के कानों में पड़ गईं. उन्होंने उस समय तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उस दिन जब आश्रम की सारी गतिविधियां सम्पन्न हो गईं, तब उन्होंने श्वेता को अपने कक्ष में बुलवाया.
आचार्य ने पहली बार रात्रि के समय उसे अपने कक्ष में बुलवाया था. श्वेता को इसका कारण समझ में नहीं आ रहा था. विचारों के भंवरजाल में उलझी हुई वह उनके कक्ष में पहुंची. आचार्य अपनी शैय्या पर बैठे हुए थे. उनके चेहरे पर अजीब से भाव छाए हुए थे, जिससे उनके अन्तर्मन में चल रही हलचल का अंदाज़ा लगा पाना संभव न था.
‘‘जी आचार्य, आज्ञा करें?’’ श्वेता ने श्रद्धा से हाथ जोड़े.
‘‘तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है. अगले सप्ताह वापस जाने की तैयारी करो.’’ आचार्य नागाधिराज की गंभीर वाणी गूंजी.
‘‘लेकिन आचार्य मैं अभी जाना नहीं चाहती.’’ अप्रत्याशित आदेश सुन श्वेता व्यथित हो उठी.
‘‘इस आश्रम का नियम है कि शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात कोई भी साधक एक दिन भी अधिक यहां नहीं रूक सकता.’’
‘‘लेकिन आचार्य…’’
‘‘तुम अपराजिता हो इसका यह अर्थ नहीं कि हर बार अपने हठ का अस्त्र लेकर खड़ी हो जाओ. जो मैंने कहा वह आश्रम का नियम भी है और मेरी आज्ञा भी. इस पर तर्क-वितर्क करने की अनुमति मैं किसी को भी नहीं दूंगा.’’क्षआचार्य ने उसकी बात काटते हुये सख्त स्वर में कहा, फिर उसकी ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हुए बोले, ‘‘शायद यही हम दोनों के हित में भी होगा.’’
‘‘हित और अहित की बात तो मैं नहीं जानती, लेकिन आपकी आज्ञा का उल्लंघन करने की धृष्टता मैं स्वप्न में भी नहीं कर सकती.’’ श्वेता के होंठ थरथराने लगे थे और वह अपनी आंखों को पोंछते हुए वहां से चली गई.
आचार्य ने गहरी सांस ली फिर पहली बार अपने कक्ष के कपाट बंद कर लिए. इसका कारण क्या था यह वह स्वयं नहीं जानते थे.
इस आश्रम के सभी साधक प्रतिदिन कक्षाओं की समाप्ति के पश्चात पद्म में भिक्षाटन के लिए जाते थे. पद्म के निवासियों से जो कुछ भी प्राप्त हो जाता उसी से आश्रम की गतिविधियां चलती थीं. इसके अतिरिक्त आचार्य किसी से भी कोई अनुदान या सहायता नहीं लेते थे. श्वेता आश्रम की अतिथि थी, इसलिए उन्होंने उसे कभी भिक्षाटन पर जाने की अनुमति नहीं दी थी.
उस रात्रि श्वेता जब अपने कक्ष में आई, तो आसमान के साथ-साथ उसके अन्तर्मन में भी अंधेरा छाया हुआ था. एक भयानक तूफ़ान उसको और पूरे पद्म के वातावरण को मथे दे रहा था. थोड़ी ही देर में आकाश में बिजली पूर्ण प्रचंडता के साथ कड़की और मूसलाधार बारिश शुरू हो गई. उस रात्रि ऐसा प्रचंड तूफ़ान आया जैसा पद्मवासियों ने पहले कभी न देखा था न सुना था.
पूरी रात पानी बरसता रहा और अगले दिन भी रूकने का नाम नहीं ले रहा था. पूरे आश्रम में चारों ओर पानी भर गया था, जिसके कारण उस दिन की कक्षाएं स्थगित हो गई थीं. अचानक पर्वतों के शिखर से ऐसी भयानक ध्वनि गूंजने लगी कि सबके हृदय कांप उठे. भूस्खलन के कारण एक पहाड़ी की चोटी दरक गई थी और बड़े-बड़े पत्थर तेज गड़गड़ाहट के साथ नीचे आने लगे.
ऊंचाइयों से बरसे पत्थरों ने पद्म के आधे से ज़्यादा घरों के साथ-साथ आश्रम के बड़े हिस्से को भी ध्वस्त कर दिया. गनीमत थी कि दिन का समय होने के कारण लोग जाग रहे थे और इधर-उधर भाग कर सबने अपने प्राणों की रक्षा कर ली.
तांडव के पश्चात आकाशीय विपदा थम चुकी थी, लेकिन हमेशा गुलज़ार रहने वाले पद्म में श्मशानी सन्नाटा पसरा हुआ था. आश्रम में सभी लोग सुरक्षित थे, अतः आचार्य पद्मवासियों का कुशल जानने निकल पड़े. चारों ओर विनाश ही विनाश दृष्टिगोचर हो रहा था. आचार्य के प्रयासों से प्रशासन ने तत्परता से राहत कार्य प्रारम्भ कर दिया था, किंतु विनाश की विकरालता देखते हुए सरकारी प्रयास नगण्य से थे.
आचार्य ने अपने आधे शिष्यों को पद्मवासियों की सेवा-सुश्रवा हेतु भेज दिया और शेष के साथ आश्रम को संवारने में जुट गए. तीन-चार दिन के अथक प्रयासों से इतना हो गया कि शनै-शनै गतिविधियां पुनः प्रारम्भ हो सकें.

 

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इस विपदा के कारण श्वेता के वापस जाने का समय कुछ दिनों के लिए टल गया था. एक दिन पद्म के कुछ नागरिक आचार्य से मिलने आए. वे अपने साथ अख़बार में छपी एक विज्ञप्ति लिए हुए थे.
अमेरिका में रहने वाले कुछ अप्रवासी भारतीय, शास्त्रीय संगीत की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कत्थक नृत्य की एक वैश्विक प्रतियोगिता का आयोजन कर रहे थे, जिसका लाइव टेलीकास्ट 160 देशों में होना था. प्रतियोगिता के विजेता को एक करोड़ डॅालर का पुरस्कार देने की घोषणा भी की गई थी.
‘‘यह आप मुझे क्यों दिखा रहे हैं?’’ आचार्य ने विज्ञप्ति को देखते हुए कहा.
‘‘आपके आश्रम में एक से बढ़ कर एक श्रेष्ठ कलाकार हैं. यदि वे यह प्रतियोगिता जीत लें, तो इस राशि से पूरे पद्म का पुर्ननिर्माण हो सकता है.’’ एक व्यक्ति ने बताया.
‘‘आप तो जानते हैं कि मेरे शिष्य आश्रम में आने से पहले ही किसी भी व्यवसायिक कार्यक्रम में भाग न लेने की सौगंध ले चुके होते हैं.’’ आचार्य का चेहरा गंभीर हो गया.
“हम जानते है, लेकिन हमारा सर्वस्व नष्ट हो चुका है. यदि आपका आशीर्वाद मिल जाए, तो हमारे जीवन की ख़ुशियां वापस आ सकती हैं. इसलिए हम प्रार्थना करने आए हैं कि अपने नियमों में थोड़ी-सी ढील दे दीजिए.’’ पूरी भीड़ हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई.
“कलाकारों की यह प्रतिभागिता व्यवसायिकता हेतु नहीं, अपितु मानवता की सेवा हेतु होगी.’’ नगर श्रेष्ठि ने भी हाथ जोड़ याचना की.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें..

 

संजीव जायसवाल ‘संजय’

 

 

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