कहानी- इस्ला 4 (Story Series- Isla 4)

“इस्ला! इस्ला का क्या अर्थ है?”
इस प्रश्न के बाद मिवान ने सभी को अपनी ओर घूरता पाया, जैसे उसने कोई विचित्र बात कह दी हो.
उसने पूछा, “क्या हुआ भाई? ऐसे क्यों घूर रहे हो?”
नीला ने सभी पर एक सरसरी दृष्टि डाली और फ़िर बोली, “वास्तव में हमारे बीच इसी नाम को लेकर चर्चा हो रही है. तभी तो तुम्हारे मुंह से यह नाम सुनकर हम चौंक उठे. हमारी इस विषय में तुमसे कोई बात भी नहीं हुई है फिर तुमने ये नाम कहां सुना?”
अब चकित होने की बारी मिवान की थी. बोला, “तुमने यह नाम कहां सुना?”

 

 

एक करुण क्रंदन के साथ उसके कदम बढ़ रहें हैं. गोचर और अगोचर दोनों ही उसके इर्दगिर्द एक श्रृंखला बना रहे हैं. एक अस्पष्ट आकृति उसे अपने पास होने का अनुभव दे रही है. अनायास ही एक मधुर किन्तु गंभीर कंठ स्वर उसके कानों से टकराया, “मिवान!”
वह धीमे स्वर में मात्र, “कौन?” कह पाया.
“मैं हूं वो.
मैं कल भी थी,
आज भी हूं,
और कल भी रहूंगी…
अपवाद, अनिर्वचनीय,
अनादि, अज्ञेय और अनुपम…
मैं इस्ला हूं…”
अंधकार के पट पर बिजली की तरह चमकती हुई उसकी दो आंखें पास आती हुई लग रही थीं. मिवान एक चीख के साथ उठकर बैठ गया. थोड़ी देर बाद ही वह सच और स्वप्न के बीच भेद कर पाया. स्थिति समझ में आने पर वह हंस पड़ा.
रविवार की सुबह थी. दल के सभी सदस्य हॉल में बैठकर किसी चर्चा में तल्लीन थे. मिवान को देखकर सभी उत्साहित हो गए. उनके बीच किसी गंभीर विषय पर चर्चा चल रही थी. मिवान को यह जानते देर नहीं लगी कि उनकी शंकाओं का अंकुर कहां है. लेकिन आज किसी से बात करने अथवा किसी भी शंका का समाधान करने में उसकी तनिक भी रूचि नहीं थी.
नीला की बातों पर भी मिवान का ध्यान नहीं था. वो बस सुनने का अभिनय करता रहा, पर तभी नीला ने कुछ ऐसा कहा, जिसने मिवान का ध्यान आकर्षित कर लिया.
“हमारे जीवन में नाम न सिर्फ़ हमारे व्यक्तित्व के विषय में जानकारी देता है, बल्कि यह हमारे भविष्य का भी एक अहम् हिस्सा होता है. किसी मनुष्य की भौतिक पहचान उसका नाम ही है, जिसके दूवारा उसके गुणों और व्यवहार आदि का पता चलता है. प्राचीन काल में नाम यू़ ही नहीं रखे जाते थे, इसके पीछे एक सोच होती थी… वो…”
“इस्ला! इस्ला का क्या अर्थ है?”
इस प्रश्न के बाद मिवान ने सभी को अपनी ओर घूरता पाया, जैसे उसने कोई विचित्र बात कह दी हो.
उसने पूछा, “क्या हुआ भाई? ऐसे क्यों घूर रहे हो?”
नीला ने सभी पर एक सरसरी दृष्टि डाली और फ़िर बोली, “वास्तव में हमारे बीच इसी नाम को लेकर चर्चा हो रही है. तभी तो तुम्हारे मुंह से यह नाम सुनकर हम चौंक उठे. हमारी इस विषय में तुमसे कोई बात भी नहीं हुई है फिर तुमने ये नाम कहां सुना?”
अब चकित होने की बारी मिवान की थी. बोला, “तुमने यह नाम कहां सुना?”
इस बार जवाब मोक्ष ने दिया. बोला, “हमने नाम सुना नहीं, देखा. कल मोह नीड़ के एक गुबंद की सफ़ाई करते हुए यह नाम एक स्थान पर खुदा हुआ मिला और…”
“साथ ही वहां एक अधजली तस्वीर के ऊपर भी यह नाम स्याही से लिखा हुआ था.” मोक्ष के वाक्य के समाप्त होने के पूर्व ही अनिल ने कहा.
इस कथन के पश्चात यह कहने की तो आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि मिवान की दशा क्या रही होगी. वह उस चित्र को देखने के लिए बेचैन हो गया. जब तक ज्योति चित्र लेकर आई, वह तड़पता रहा. उसका मन और मस्तिष्क दोनों एकमत होकर मान बैठे कि चित्रवाली लड़की वो ही होगी.

 

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लेकिन वह गलत था. वह चित्र उस स्त्री का नहीं था, जो मिवान को जंगल में मिली थी. मिवान ने अपने मन को काबू किया और चित्र को पुनः फ़ाइल में रखते हुए नीला से दुबारा पूछा, “तुमने इस्ला का अर्थ नहीं बताया.”
नीला ने सभी को बैठने का इशारा किया किन्तु स्वयं खड़ी हो गयी. उसके अंग विन्यास से प्रकट हुआ कि इस प्रश्न का उत्तर जटिल और बड़ा है. बोली, “इस्ला! यह नाम स्कॉटलैंड में प्राय: मिल जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ अजीरा अथवा द्वीप है. किन्तु इसकी सोर्स कहां है, यह जान पाना सरल नहीं है. इतना तय है कि कालांतर के शोधों से यह बात पता चलती है कि इस्ला और प्रेम का गहरा सम्बन्ध है. यहूदीवाद में, इस्ला शब्द का प्रयोग आवेग, लालसा, वासना और कामुकता के प्रसंग में किया गया है. हालाँकि आगे जाकर इसमें परिवर्तन आया और इसे प्रेम, आकर्षण और यहां तक कि यौन क्रिया जैसे शब्दों में अनुकूलित कर दिया गया.”
कुछ देर रुककर नीला ने सब पर दृष्टि डाली. सभी ध्यान से नीला को सुन रहे थे.
उसने फिर कहना शुरू किया, “कहते हैं, जो स्त्री इस नाम को वहन करती है, वो अधिकांशत: सुभग, विद्रोही और प्रलोभक होती है. अजीरा के समान एकांत प्रिय, स्वावलम्बी, स्वाधिनी और निर्बाध. ऐसा मानते हैं कि इन स्त्रियों का यौवन और दीप्ति साल दर साल यूं ही बनी रहती है. लेकिन इनकी प्रज्ञता और शोभा बढ़ती रहती है. ‘इस्ला’, इस एक शब्द में स्त्री के अनगिनत गुणों का समावेश है. सुंदरी, स्वावलम्बी, मानिनी, प्रलोभी, मोहिनी, रहस्यमयी, बुद्धिमती, मुक्ता, संकोची, हसोड़, कभी अंतर्मुखी तो कभी मुखर, कामुक, आध्यात्मिक, एक श्रेष्ठा जिससे इस जीवन में सम्भवतः मिल पाना असाध्य है. वैसे इनमें से कई लक्षणों को समाज आज भी स्त्रियोचित नहीं मानता. कारण यह रहा हो अथवा ये सभी रहे हों, डायनों के अनेक नामों में से एक नाम इस्ला भी है.”
नीला की बात समाप्त हो गयी. मिवान ने अपने मन में भावनाओं की स्याही से उसकी प्रतिलिपि तैयार की और उसे अपने अंत: मन में ही छिपाकर रख लिया. पिछली सांझ की सभी बातों का मर्म वह अब समझ पा रहा था.
पास बैठे नयन ने मिवान को चुप देखकर पूछा, “आप क्या सोच रहे हो?”
मिवान ने सिर से पैर तक उसे देखा, मानो उत्तर देने से पूर्व उसे माप रहा हो.
“सुनो, मैं रहमत की बाइक से गेस्ट हाउस जा रहा हूं. तुम सभी के लिए गाड़ी बाहर है !”
“मिवान! यहां हम चर्चा कर रहे है और तुम्हें भ्रमण पर निकलना है. तुम्हें वहां किससे मिलने जाना है?”
नीला का प्रश्न मिवान को बुरा और अपमानजनक लगा. लेकिन वह चुप ही रहा, क्योंकि अभी तो वह स्वयं भी स्थिति से अनभिज्ञ था. वह मात्र उसकी तरफ़ एक सूखी मुस्कान बिखेर कर आगे बढ़ गया. मिवान के चले जाने के पश्चात कुछ देर तक दल के सदस्यों के मध्य उसके इस अजीब व्यवहार पर चर्चा हुई, किन्तु जल्दी ही सब रविवार के लिए अपनी योजना बनाने में व्यस्त हो गए.
मात्र एक सदस्य ऐसा था जो मिवान के व्यवहार में आए इस बदलाव का न केवल अध्ययन करता रहाबल्कि उसके पीछे गेस्ट हाउस जाने के लिए निकल भी पड़ा. सभी बातों में इतने व्यस्त रहे कि नीला कब उनके बीच से उठकर प्यारे के साथ गाड़ी में बैठ गयी, उन्हें पता ही नहीं चला.
गेस्ट हाउस एक छोटे जलाशय के किनारे एक बाग़ के ठीक बीचोंबीच बना हुआ था. जब मिवान वहां पहुंचा, तो रिसेप्शन पर एक उनींदा पुरुष बैठा हुआ मिला. मिवान ने जब उसका अभिवादन किया, तो वह कुछ पल तक स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखता रहा.
“आपके गेस्ट हाउस में देहरादून की एक लेक्चरर मैडम रुकी हुई हैं!” मिवान ने ऐसे कहा जैसे पूछ नहीं, बता रहा हो.
“अच्छा! कावेरी मैडम से मिलना है आपको?”
कावेरी मैडम का नाम लेते ही अचानक जैसे वह आदमी गहरी नींद से जाग गया हो. निसंदेह वह उस स्त्री से प्रभावित था. मिवान ने भी यूं जतलाया जैसे वह कावेरी से परिचित हो. हालांकि वह उसका नाम भी नहीं जानता था. बोला, “जी, जी वहीं. ज़रा उन्हें बुलाने का कष्ट करेंगे.”
“कष्ट कैसा, हमारा तो काम ही यही है.” इतना कहकर उसने फोन उठाया और कावेरी को इन्फॉर्म कर दिया. अब बस मिवान को इंतज़ार करना था, उसके आने का. उसके लिए एक-एक पल काटना कठिन हो रहा था.
कुछ देर बाद उसके ठीक पीछे से एक परिचित नारी स्वर ने उसे पुकारा, “मैं ही कावेरी हूं आप कौन?”
मिवान को न पहचाने जाने का हल्का दुख तो हुआ. लेकिन फिर सोचा कि संभव है उसकी तरफ़ पीठ होने के कारण वह ठीक से देख नहीं पाई. सो वह कावेरी की तरफ़ मुड़ा और ख़ुद ही चौंक पड़ा. उस स्त्री के चेहरे पर दृष्टि पड़ते ही मिवान मौन हो गया.
वह बोली, “क्या हम पहले मिल चुके हैं?”
वही चेहरा, वही आवाज़, वही केश, लेकिन कावेरी वो नहीं थी. कावेरी के नेत्र, वो दीप्त नेत्र नहीं थे जिनकी ज्योति में मिवान कल से जल रहा था.
इस बार कावेरी ने कुछ शुष्क आवाज़ में पूछा, “कहते क्यों नहीं…”
“क्षमा करें, जिसे मैं तलाश रहा हूं, वो आप नहीं. पर आपसे मिल कर मैं यह अवश्य समझ गया हूं कि मेरी मंज़िल और मार्ग दोनों कहां हैं.”
मिवान के आगे जो अंधकार का एक पर्दा था, वह अब गिर गया. उस परदे के हटते ही वह सब समझ गया. किन्तु अभी भी काफ़ी कुछ समझ पाना शेष था. अत्यधिक व्यग्रता से उसने बाइक स्टार्ट की और उस मार्ग पर बढ़ चला, जहां मंज़िल से मिलन को लेकर वह आश्वस्त था. लेकिन अपनी बेचैनी में वह यह नहीं देख पाया कि कावेरी उसे पुकारते हुए बाहर तक आई है.
सांझ की चादर के साथ मिवान ने जंगल में प्रवेश किथा. कुछ घंटों के प्रयास के पश्चात निराशा ने उसे घेर लिया. निराशा इतनी बढ़ गयी कि निराश होना ही वो भूल गया. वह अनुभूति से परे चला गया. उसका हिलता हुआ पिंजर शांत हो गया और अब तो उसे यह भी पता नहीं रहा कि वह ज़िंदा है या मर गया.
मिवान को ज्ञात था कि उसकी उपस्थिति से वह अनभिग्य नहीं होगी, किन्तु वह कब उसके समक्ष प्रकट होगी, यह सर्वथा उसका निर्णय था. वह विशिष्ट थी, अंधकार का परिमल उसे संतुष्ट करता था. सर्द हवाओं का झोंका मुग्ध हो उसे आलिंगनबद्ध करने को उद्धत रहता था. निशाचर चंद्रमा समस्त रात्रि टकटकी लगाए उसे देखता रहता.
उस निशाचरी को सूर्य का स्पर्श भी निषेध था. किंतु उसे इस विपद क्रिया में रस प्राप्त होता, तभी तो सूरज के नेत्रों में स्वयं को प्रतिबिंबित कर आनंदित हो उठती. उस भुवनमोहिनी के मोह से स्वयं सूर्य भी कहां शेष रहा. उस बहिष्कृत और शापित रमणी के आकर्षण में बंधा वह अपनी किरणों से पृथक हो जाता. जिस क्षण सूर्य को इस कृष्णकली के स्पर्श का आभास होने वाला होता, तत्क्षण ही मेघों का एक दल उसे ढंक देता. अप्रत्याशित रूप से विशालकाय देवदार के वृक्ष सूर्य का साम्राज्य इस धरा पर स्थापित होने नहीं देते. यह इस स्वाधिनी का साम्राज्य है. वह एकांतवास में है, किन्तु एकाकी नहीं.
मिवान यह सब सोचने में व्यस्त रहा और इस बार भी उसे पता नहीं चला कि वो सामने खड़ी उसे टकटकी लगाए देख रही है.
वो मन पढ़ना जानती थी. मिवान को पढ़कर वह आश्वस्त हो गई. बोली, “मिवान.”
साहस कर मिवान नज़र उठा, उसे देख भर लेता है.
धरती पर फैले उसके केश धूल-धूसरित हो रखे थे. नासिका विहीन उसका मुख वीभत्स लग रहा था. किन्तु गहरी काली आँखों में सत्य और आत्मविश्वास की लौ प्रज्वलित रही. घनी पलकों में पीड़ा के मोती चमकते रहें, किन्तु कमान के समान चढ़ी हुई भौंवों में भय का लेश भी नहीं. उसके शरीर पर वस्त्र नहीं और न आंखों में लज्जा. हां, होंठों पर एक व्यंग्यमिश्रित मुस्कान अवश्य खेलती रही.
कोई ओर दिन होता तो वह सम्भवतः उस रूप को देखकर मूर्छित हो जाता, किन्तु आज स्थिति भिन्न थी. बोला, “तो आप है इस्ला?”
इस कथन पर फिर वह ही-ही… कर विकृत स्वर में हंसने लगी. उस अंधेरे में उसकी नासिका विहीन विकराल हंसी किसी भी सामान्य मनुष्य के कलेजे को धड़काने के लिय पर्याप्त थी.
“इस्ला! मैं भी इस्ला हूं!”
“मतलब?”
मिवान देखता है कि वह कांप रही है और वह जितना ही कांपती है, उसके शरीर के भीतर से एक नूतन शरीर उभरता गया. समय बीतता रहा, लेकिन न तो उसका कांपना थमा और न अंदर से शरीरों का निकलना बंद हुआ.
दुनिया मिवान के समक्ष खुल गयी थी. वह सब कुछ समझ गया, जो अस्पष्ट संकेत उसने देखे थे. जो पुकारें सुनी थीं, जो उतेजनाएं पायी थीं, जो दंश सहे थे, सब सुलझ गए थे. कालजयी का छाती पीटना, मेहरू का क्रोध, हेलेना की नंगी पीठ एवं यहां उपस्थित सभी असंख्य स्त्रियों के नेत्रों की चुभन- सब ही एक सूत्र में गुंथें हुए थें. सबकी गति एक ओर ही है. सभी इस पुरुष श्रेष्ठता के दुराग्रह द्वारा श्रापित हैं.
वो चीख उठा, “… रुक जाओ! मैं आपसे कहता हूं… इतना अत्याचार… इतनी पीड़ा…”
थोड़ी देर पश्चात शांति हो गयी. मिवान के हाथ पर एक बड़ा सा आंसू गिरा और उसके हाथ पर दबाव बढ़ गया. वह उठ नहीं सका.
वो बोली, “मिवान, इस्ला कोई स्त्री नहीं, एक भावना है. यहाँ उपस्थित हर स्त्री इस्ला है. हर क्षण एक नूतन इस्ला का जन्म हो रहा है और होता रहेगा. समस्त संसार में चाहे कितनी ही उपेक्षा हो, वे जन्म लेती रही हैं और लेती रहेंगी. उनकी अवहेलना कर पाना अब इस पितृ सत्तात्मक समाज के लिए संभव नहीं है. इस्ला खजुराहों की मूर्तियों में भी थी और क्लेओपेट्रा के जीवंतता में भी. इस्ला ने पश्चिमी देशों की गलियों में स्वयं की वैयक्तिकता का युद्ध लड़ा है. इस्ला ने हर पराजय के पश्चात पुनः आरम्भ किया है. इस्ला आज भी इस पुरुष दुराग्रह को पराजित कर रही है.उसे श्राप स्वीकार है. किंतु वो उस ग़लती के लिए क्षमाप्रार्थी नहीं होगी, जो उसने की ही नहीं.”

 

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मिवान बीच में ही बोला, “मैं समझ गया. हर वह स्त्री इस्ला है, जिसने सत्ता द्वारा स्वयं पर थोपे गए दंड की अवहेलना कर, किसी क्रूर हृदयहीन आक्रमणकारी शत्रु की भांति उसके पौरुष दुर्ग की धज्जियाँ उड़ा दी.”
“हां, वह अबाध है, अपठित है, कल्पनातीत है, स्वाधीनता हेतु प्राणदा है, वह वर्णनातित खड्गहस्तिका सर्वव्यापी है. इस वन में उनका आधिपत्य तो तुम जान पाए हो. लेकिन वे तो तुम्हारे अपने संसार में तुम्हारे बीच भी उपस्थित हैं. वहां उनकी उपस्थिति को समझ पाना तुम्हारे लिए इतना दुष्कर क्यों हुआ! जाओ मिवान, शीघ्र ही भेंट होगी, तुम्हारे अपने संसार में. आशा करती हूं, तुम्हें साथ खड़ा पाऊंगी.”
मिवान के दिल की धड़कन धीरे-धीरे शांत होने लगी. उसका ह्रदय सुख से भरने लगा और उसके साथ ही साथ उसमें एक साहस का उदय हो गया.
“मिवान!” अबकी बार कांपते हुए स्वर से, “मिवान, तुम यहां क्यों आ गए?” थोड़ा रूक कर फिर बोली, “वह तो अच्छा हुआ कि कावेरी ने हमें बता दिया कि वो तुमसे कल यहां मिली थी. तुमने उसके मज़ाक को समझा ही नहीं और बिना उसकी बात सुने यहां आ गए. वो तो तुम्हारे पीछे भी भागी थी. ओह! तुम इतने इम्पल्सिव क्यों हो!”
मिवान ने आंखें खोल दीं. नीला उसे पुकार रही थी. उसके पीछे टीम के अन्य सदस्यों के साथ रहमत और प्यारे भी थे. शायद और भी कुछ लोग थे. लेकिन मिवान की दृष्टि तो नीला की आंखों के भूरे गोलकों में अटक गई. आज उसने नीला को यूं देखा, जैसे पहली बार देख रहा हो. नीला की आंखों की उस ज्योत्सना को वह पहले कभी कहां देख पाया.
“तुम ठीक तो हो मिवान. हम तुम्हें कल शाम से ढूंढ़ रहे हैं. पुलिस की एक छोटी टुकड़ी भी हमारे साथ है. मिवान, यार कुछ तो बोलो!” नीला ने पुनः कहा, तो मिवान जैसे नींद से जागा. बोला, “सॉरी ! बहुत परेशान किया मैंने तुम्हें, पर अब सवेरा हो गया है!”
हो सकता है जो घटित हुआ वह मात्र मिवान का भ्रम हो, मानव मस्तिष्क का रचा हुआ भ्रमजाल. हो तो यह भी सकता है कि जो घटा वह एक पवित्र रहस्य हो. एक ऐसा संसार हो, जिसका प्रहरी बन समय हमें उस घेरे को पार करने ही नहीं देता. मिवान जैसे चंद गिने-चुने लोग समय के इस घेरे के पार जाकर, उस काल को भी देख लेते हो, जिसके अस्तित्व को यह सुविज्ञ दुनिया नकारती है. क्या सही है, कौन जाने. लेकिन इतना तो सत्य है कि जिस संसार में हम रहते हैं, वहां इस्लाओं का होना भ्रम नहीं…

 

 

पल्लवी पुंडीर

 

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Usha Gupta

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