कहानी- इस्ला 2 (Story Series- Isla 2)

 

“रहमत भाई, मैं स्त्री को डायन घोषित कर उसे अपमानित करने के इस प्राचीन और क्रूरतम विचारधारा से भलीभांति परिचित हूं. हमारे इस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को सदा से दोयम दर्जा प्राप्त है. स्त्री को सदा पुरुष के समक्ष कमज़ोरी के रूप में दिखाया जाता रहा है. अत: उस पर दोषारोपण करना हमेशा से सरल रहा. जिस बीमारी अथवा प्राकृतिक आपदा का हल न प्राप्त हो, उसका दोष किसी स्त्री पर डालकर उसे डायन घोषित कर दो. यहां की स्थिति भी भिन्न नहीं है.”

 

 

… प्यारे की आवाज़ ने सभी को थरथरा दिया. मिवान ने चौंककर पूछा, “क-क… कौन आ गई?”
“आपकी मंज़िल आ गई साहब.” प्यारे के जवाब पर मिवान को पहले तो ग़ुस्सा आया, लेकिन फिर सभी के सहमे हुए चेहरों पर नज़र पड़ते ही वह ज़ोर से हंस पड़ा. बोला, “प्यारे भाई, आपने तो हमारी टीम को बेकार ही डरा दिया.”
“नहीं-नहीं… हम डरे तो नहीं, बस चौंक गए.” अनिल ने इतना कहकर सभी की तरफ़ समर्थन के लिए देखा. लेकिन कोई कुछ नहीं बोला. सभी चुपचाप सामान उतरने लगे.
मिवान और उसके दल के रुकने का इंतज़ाम सर्किट हाउस में किया गया है. उन्हें पहुंचने में सांझ हो गई थी. पहाड़ों में सांझ से रात होने का समय बहुत कम होता है. सो शीघ्र ही रात हो गई. रात्रि भोजन के बाद सभी अपने-अपने कमरों में विश्राम के लिए चले गए. मिवान को नींद नहीं आ रही थी. इसलिए वो लॉन में लगी लोहे की कुर्सियों पर बैठकर, सिगरेट को उंगलियों के मध्य जला, हर फूंक के साथ विचारों के छल्ले बनाने लगा.
“सर, नींद नहीं आ रही है.” मिवान को पता ही नहीं चला कब सर्किट हाउस का मैनेजर रहमत उसके पीछे खड़ा हो गया. रहमत सर्किट हाउस में ही रहता था. यहां का रसोइया रामू और उसके दो सहयोगी चमन और लता अपने-अपने परिवार के साथ रहते. इसलिए वे डिनर के बाद ही अपने घर चले जाते. किन्तु रहमत और प्यारे का घर और कार्यालय दोनों ही सर्किट हाउस था.
रहमत दुर्गापुर से तो प्यारे ग्वालियर से, शम्भू सर्किट हाउस का मैनेजर तो प्यारे ड्राइवर, रहमत स्नातक तो प्यारे आठवीं पास, रहमत की अवस्था ५० के आसपास तो प्यारे ३०-३५ का. दो भिन्न परिवेश, धर्म, प्रदेश, आयु और यहां तक कि कार्य श्रेणी में भी विभेद, किन्तु उनका लगाव देखते ही बनता.
रहमत ने दुबारा पूछा, “क्या हुआ सर?”
गर्दन घुमाकर मिवान ने उसे देखा और बोला, “किसी ने बहुत ख़ूब कहा है कि तुम्हें नींद नहीं आती, तो कोई और वजह होगी, अब हर ऐब के लिए कसूरवार इश्क़ तो नहीं…”
“वाह… वाह!”
“शुक्रिया.” कहकर मिवान ने उसे बैठने का इशारा किया और सिगरेट का डब्बा उसकी तरफ़ बढ़ा दिया. रमहत ने झिझकते हुए एक सिगरेट लेकर जला ली.
बात आगे बढ़ाने के लिए मिवान ने पूछा, “आप जंगल के बारे में फैली अफ़वाहों के बारे में क्या सोचते हैं?”
“सर!”
“रहमत भाई, आप अगर मुझे मिवान कहेंगे, तो मुझे अच्छा लगेगा.”
मिवान की इस बात के उत्तर में रहमत ने कहा तो कुछ नहीं, लेकिन उसकी आंखों और होंठों पर बिखरी हुई मुस्कान ने सब कुछ कह दिया. थोड़ा रुककर बोला, “मिवान, मैं यह तो नहीं कहूंगा कि सभी कहानियां सच हैं. लेकिन कुछ तो ज़रूर है.”
रहमत के इस ज़रूर ने मिवान की उत्सुकता बढ़ा दी. बोला, “जैसे…”
“वहां कुछ तो तिलस्मी है. एक दफ़ा मैं भी गया, पर लौटने के बाद कुछ भी याद नहीं रहा. जैसे दिमाग़ की स्लेट से किसी ने उस समय को मिटा दिया हो. हां, मगर पायल की रुनझुन कानों में आज भी कभी-कभी सुनाई पड़ती है.” इतना कहते ही रहमत कि आंखों में जो क्षणिक प्रभा प्रकट हुई, उसे देखकर पल भर को मिवान भी ठिठक गया.
फिर बोला, “रहमत भाई, मैं स्त्री को डायन घोषित कर उसे अपमानित करने के इस प्राचीन और क्रूरतम विचारधारा से भलीभांति परिचित हूं. हमारे इस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को सदा से दोयम दर्जा प्राप्त है. स्त्री को सदा पुरुष के समक्ष कमज़ोरी के रूप में दिखाया जाता रहा है. अत: उस पर दोषारोपण करना हमेशा से सरल रहा. जिस बीमारी अथवा प्राकृतिक आपदा का हल न प्राप्त हो, उसका दोष किसी स्त्री पर डालकर उसे डायन घोषित कर दो. यहां की स्थिति भी भिन्न नहीं है.”

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मिवान की बात का समर्थन करते हुए रहमत ने अपनी गर्दन हिलाई और बोला, “आप सही कह रहे हैं मिवान. मैं भी इस डायन वाली मान्यता के सख्त ख़िलाफ़ हूं. परन्तु मेरा मानना हैं कि वहां कुछ तो अलौकिक है. यही कारण हैं कि मैं दूसरी प्रचलित धारा को अधिक सत्य मानता हूं.”
“कौन सी दूसरी प्रचलित धारा?”
“कुछ लोगों का मानना है कि यहां प्रेम में हारी हुई और समाज से बहिष्कृत स्त्रियों की आज़ुर्दा आत्माओं का निवास है. वे सभी किसी प्रिय के वादा ख़िलाफ़ी की शिकार हैं. उन्हें आज भी अपने उस प्रिय की प्रतिक्षा है.”
मिवान उनकी इस बात पर हंसते हुए बोला, “मतलब वह जंगल विप्रलब्धाओं का बसेरा है.”
“क्या मतलब?” रहमत कुछ नहीं समझ पाया.
“रहमत भाई, भारतमुनि ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में आठ प्रकार की नायिकाओं का वर्णन किया है. इन्हें अष्टनायिका कहते हैं. इन्हीं में से एक नायिका है विप्रलब्धा. यह वह नायिका है जिसका प्रिय उसे वचन देकर भी संकेत स्थल पर मिलने न आया हो. ऐसा जान पड़ता है आपके इस जंगल में भी ऐसी हीं स्त्रियों का बसेरा है.”
“जी, जनाब, लेकिन ज़िंदा नहीं मुर्दा.” रहमत ने गंभीर आवाज़ में कहा, तो मिवान उसकी वाणी कि शुष्कता से हैरान रह गया.
बोला, “देखिए रहमत भाई, मैं इस बारे में तर्क नहीं करना चाहता. मेरा विश्वास, निसंदेह व्यक्तिगत है. चाहे नास्तिक कहिए अथवा मूढ़, मैं भूत नहीं मानता. जिस पल दर्शन हो जाएंगे, मान लूंगा.”
“जी, अब मैं तो सोने जा रहा हूं, लेकिन लगता है आपकी रात अभी नहीं हुई.” रहमत के इतना कहते ही दोनों एक साथ हंस पड़ें. रहमत भीतर चला गया. थोड़ी देर बाद मिवान भी अपने कमरे की तरफ़ चल पड़ा, लेकिन उसके कदमों से तेज उसके विचार चल रहे थे.
‘आखिर वहां हैं क्या? स्त्री? पुरुष? देवता? पिशाच? क्या है? न जाने कौन उस जंगल में घूम रहे हैं. यदि वे मनुष्य हैं, तो उन्हें भय क्यों नहीं है? क्या उनका कलेजा पत्थर का बना है? वे कहीं चोर या डकैत तो नहीं, लेकिन उन्होंने गांव पर कभी हमला भी नहीं किया. और यदि वे मनुष्य नहीं हैं, तो क्या रहमत सही है. क्या इस बार मेरा परिचय किसी भिन्न शक्ति से होने वाला है. लेकिन वचन भंजन से आक्रोशित तथा विरह की दावाग्नि में निरंतर जलती हुई वो, क्या अपना परिचय मुझे सहर्ष दे देगी.’
उस रात्रि जब ये सब सोचते हुए मिवान की आंखें बंद हुईं, कोई उसके कानों के पास आकर धीरे से गुनगुनाया; “विप्रलब्धा, मैं नहीं विप्रलब्धा… मैं विद्रोहिनी!”
अगली सुबह से प्रोजेक्ट मोह नीड़ आरंभ हो गया.
एकांत और ख़ामोशी मिवान के लिए कोई नई बात नहीं है. वह भीड़ में भी ख़ामोशी और एकांत को ढूंढ़ निकालता था. उसके जीवन में मनुष्यों का स्थान लिया पत्थरों ने, चित्रों ने, पुरानी इमारतों ने, निर्जन और उजाड़ कोठियों ने, पशुओं ने और पक्षियों ने.
ईश्वर का स्थान उसके ह्रदय में प्रकृति ने ले लिया. जिस भाषा को मनुष्य-समाज ने पढ़ने की चेष्टा भी नहीं की, उस मौन को मिवान पढ़ना जान गया. इमारतों, पत्थरों और चित्रों को गढ़ने से पूर्व वह उनसे मित्रता करता, परस्पर एक संवाद स्थापित करता. किन्तु वह भी सोनगढ़ के इन वनों की ख़ामोशी को पढ़ नहीं पा रहा, यह पीड़ा उसके लिए असहनीय हो गई.
अगले तीन महीनों तक मिवान और उसके दल के सदस्य मोह नीड़ के नवीकरण में व्यस्त रहे. न तो मानवीय, न प्राकृतिक और न ही अमानवीय अथवा परलौकिक तत्वों ने किसी तरह का प्रतिरोध किया. सभी कार्य निर्विघ्न पूरे होते रहे.
विक्रम भी आया और निश्चिंत हो कर वापस कनाडा लौट गया. किन्तु इस शांति के मध्य मिवान ही एकमात्र अशांत रहा. अत्यंत प्रयास के बाद भी वह इस स्थान को पढ़ नहीं पाया था. वह कभी तितलियां पकड़ता, उनसे पूछने का प्रयास करता और फिर पराजित हो उन्हें छोड़ देता. पेड़ों पर चढ़ कर चिड़ियों के घोसलों को निहारना उसे बचपन से पसन्द था. इसलिए जब उसने गुबंद के ऊपर चिड़िया का घोसला देखा तो बड़ें प्रेम और सावधानी से घोसले को वहां से उठाकर पेड़ पर रख दिया. प्रतिदिन एक बार पेड़ पर चढ़कर घोसले में देखना उसकी दिनचर्या में शामिल हो गया. वह उस घोसले के घर बनने की प्रतीक्षा करता रहा. यह उसका इस वन से सम्बन्ध स्थापित करने का एक प्रयास भी था. किन्तु विफलता ही हाथ लगी.
एक सांझ मिवान ने कार्य समाप्ति की घोषणा जल्दी कर दी. अगले दिन रविवार था, उनके बीच सर्वसम्मति से तय हुआ छुट्टी का एक दिन. मिवान के कार्यालय से सम्बन्धित सभी निर्णयों में उसके दल के लोगों का समभाग लेना अनिर्वाय है. इसलिए जब मिवान ने उस दिन काम को बीच में रोकने का अपना व्यक्तिगत निर्णय सुनाया, तो सभी चौंक गए. वैसे सभी उसके इस निर्णय से ख़ुश ही थे. सो किसी ने कोई सवाल नहीं उठाया. जब रश्मि ने मिवान से साथ चलने के बारे में पूछा, तो उसने मना कर दिया. सभी के चले जाने के बाद मिवान भी वहां नहीं रुका. वह जंगल के अंदर चल पड़ा.
कुछ देर यूं ही घूमता हुआ वह आगे निकल आया और रास्ता भटक गया. यह उसके एकांतवास और सहायता के प्रति उपेक्षा का ही कमाल रहा कि वह घबराया नहीं. एक देवदार के वृक्ष के नीचे लहरा रही लम्बी घास के नीचे आसन बनाकर बैठ गया और बादलों के कैनवास पर अपनी कल्पना के रंग बिखेरने लगा. जब कोई जंगली कीड़ा अथवा पक्षी उसकी ओर आता, तब वह उनकी तरफ़ अपलक निहारता रहता, कभी उसकी मटमैली पीठ को देखता तो कभी उसकी बोली को पढ़ने कि चेष्टा करता.

 

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अभी वह बैठा ही था कि पास ही कुछ हलचल हुई. जोश में आकर मिवान उठ खड़ा हुआ. वह एक हिरण था. पहले तो वह कुछ सशंक सा स्तब्ध होकर मिवान को देखता रहा. उसकी आंखों में अजनबीपन तो था, किन्तु भय का लेश मात्र भी नहीं था. अगले ही पल वह चौकड़ी भरता हुआ भागा और क्षण भर में ओझल हो गया. उसके गठन के सौन्दर्य और गति के लय को, उसके ही प्राकृतिक परिवेश में इतने निकट से देख पाने के दुर्लभ अनुभव ने मिवान को प्रफुल्लित कर दिया.
अपनी जैकेट कि जेब में सदा पड़ीं रहने वाली डायरी और पेन निकालकर, वहीं नीचे बैठकर कुछ बनाने लगा. सोचा कि मन के भावों को शब्दों से रूप देगा, लेकिन अप्रत्याशित रूप से भाव चित्र के रूप में निकलने लगें. एक हिरण के रूप में नारी का स्वरूप.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें


पल्लवी पुंडीर

 

 

 

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