कहानी- इस्ला 1 (Story Series- Isla 1)

 

प्यारे इसी जंगल के बारे में बताने लगा. बोला, “कहते हैं कि कुछ लोग जो यहां घूमने गए, उनमें से किसी को कुछ याद नहीं रहा कि वह कहां गायब हो गए थे. पर इस जंगल कि रक्षा कोई देवी नहीं करती.”
“फिर कौन करता है? कोई देवता!” मिवान ने कहा तो प्यारे लगभग फुसफुसाते हुए बोला, “इस जंगल कि रक्षा करती हैं कुछ रहस्मयी शक्तियां, जिन्हें स्थानीय लोग पिशाचनी कहते हैं.”
“कमाल है! कहीं स्त्री को देवी मान उसे पूज रहे हैं, तो कहीं अपने डर को स्त्री का नाम देकर उससे नफ़रत कर रहे हैं.” अब तक शांत बैठी नीला ने कहा.

 

 

मेघाच्छन्न आकाश. प्रकाशहीन सांयकाल. चंचल पवन. पीड़ा से तड़पता एक पक्षी अंतिम संदेश देने के लिए छटपटा रहा है. उसके पंख टूट गए हैं. वह विवश गिरता हुआ चीखता जा रहा है. उस स्वर की आद्र पुकार ने मिवान को जगा दिया. उसकी पुकार में जाने क्या था, प्रेम, विरह, व्यथा, युत्सा, या चारों? जो कुछ भी हो, वह एक सम्मोहन की तरह आकर मिवान को उन्मुक्त स्वप्नलोक से खींच लाया. मानो वह मिवान को आने वाली यात्रा के लिए सावधान कर रहा हो. उठते ही मिवान को याद आया कि सपने में पक्षी जिस महल की छत से उड़ा, वह ‘मोह नीड़’ ही था.
बचपन से ही मिवान कई कलाओं में निपुण रहा. मूर्तिकला और चित्रकला तो जैसे जन्म के साथ वरदान रूप में प्रदत हुईं. सभी उसे ऊर्जा का महासागर कहते. आर्कीआलजी में अन्डर्ग्रैजूइट की डिग्री लेकर उसने, मैसूर विश्वविद्यालय से आर्ट रेस्टोरेशन की पढ़ाई भी की. समय के साथ प्राचीन विरासत वाली इमारतों से उसका लगाव बढ़ता ही चला गया और उसने इसे अपना व्यवसाय बना लिया. प्रारंभिक दिनों में संघर्ष कुछ अधिक ही करना पड़ा, किन्तु कई वर्षों के अथक परिश्रम के बाद आर्ट रेस्टोरर के रूप में उसका नाम देश और विदेश दोनों में प्रसिद्ध हो गया. द इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चर हेरिटेज में बारह साल काम करने के पश्चात चार साल पहले उसने अपने व्यक्तिगत आर्ट फर्म ‘कला’ की स्थापना की.
आर्ट रेस्टोरेशन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके ज़रिए प्रशिक्षित पेशेवर हेरिटेज इमारतों, कलाकृतियों और प्रस्तर प्रतिमाओं को स्वच्छ, सुधार और नवीकरण करके उन्हें मूल अवस्था में लाने का प्रयास करते हैं. एक आर्ट रेस्टोरर में धीरज का होना बहुत आवश्यक समझा जाता है. मिवान बचपन से ही धैर्यवान है. इसीलिए जब तक वह स्वयं संतुष्ट नहीं हो जाता, तब तक काम में लगा रहता.
सबसे पहले वह स्वयं अपने दल के साथ संलग्न होकर एक-एक पुरावस्तु को साफ़ करता. उसके बाद रात-रात बैठकर उसकी जांच करता. इस दौरान वह यह पता लगाने की कोशिश करता कि उसमें क्या क्षति हुई और उसे किस तरह ठीक किया जा सकता है.फिर उसके इतिहास पर अनुसंधान किया जाता, ताकि यह पता लगाया जा सके कि वह जिस युग से संबंधित है, उस दौर में किस तरह के साधनों का इस्तेमाल किया जाता होगा. इसके बाद ही वह मरम्मत और नवीकरण का कार्य आरंभ करता. अत: कोई भी कार्य हाथ में लेते ही वह पारिश्रमिक से भी पहले एक ही मांग रखता; समय.
आमतौर पर वह एक समय में एक ही काम करता. किन्तु ‘मोह नीड़’ की तस्वीर मात्र ने उसे इतना बेचैन कर दिया कि उसने पहले से लिए अपने प्रोजेक्ट को बीच में ही रोक दिया. उसका एकमात्र लक्ष्य ‘प्रोजेक्ट मोह नीड़’ बन गया. इसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में मिवान और उसकी टीम को आज दोपहर सोनगढ़ के लिए निकलना था.
समय पर आंख खुल जाने के कारण, मिवान जल्दी तैयार होकर एयरपोर्ट पहुंच गया. उसे एंट्री गेट पर अपनी टीम के सदस्य प्रतीक्षा करते हुए मिले. मिवान के दल में चार लड़के और तीन लड़कियां हैं. वे सभी किसी न किसी कला में पारंगत थे. मौसम ख़राब होने के कारण फ्लाइट एक घंटे की देरी से देहरादून के जौली ग्रांट हवाई अड्डे पर लैंड हुई.
एयरपोर्ट पर उन्हें ड्राइवर प्यारे, एक बड़ी गाड़ी के साथ इंतज़ार करता हुआ मिला. वह बहुत बातूनी था. गाड़ी चलाने के साथ-साथ सोनगढ़ का इतिहास भी बताता जाता.
“देहरादून से पिथौरागढ़ के मध्य खड़ा सोनगढ़, भारत के उत्तराखंड राज्य का एक छोटा गांव है. ऐसा माना जाता है कि एक समय यहां पर पांच सोर अर्थात सरोवर थे. किन्तु, कालांतर में सरोवरों का पानी सूखता चला गया और पठारी भूमि का जन्म हुआ. शीघ्र ही इस भूमि पर सरोवर का स्थान घने जंगलों ने ले लिया. रोचक बात यह है कि जहां पिथौरागढ़ के वन अवैध कटान से पीड़ित हैं, यहां की धरती पर कोई अराजक तत्व कदम भी नहीं रख पाया है. यहां राय स्वरूप तोमर की राजधानी थी. मोह नीड़ उनका ही बनाया हुआ है.”
मिवान को न तो शहर के इतिहास में रूचि थी और न ही उसके वर्तमान में. इसी कारण से जब प्यारे लाल शहर के बारे में जानकारी देता रहा, मिवान बस ‘मोह नीड़’ की कल्पना में खोया रहा. वह सोचता रहा कि जब ‘मोह नीड़’ नामक उस इमारत के चित्र मात्र में; संवेदनाएं उभारने, प्रवृत्तियों को ढालने तथा चिंतन को मोड़ने तथा अभिरुचि को दिशा देने की अद्भुत क्षमता है, तो जब वह उसे अपने सामने देखेगा तो क्या होगा.

 

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घोंघें के भीतर रहनेवाला जीव तभी बाहर निकलता है, जब वह भूखा होता है अथवा जब वह साथी कि तलाश में रहता है. दोनों ही प्रकार कि क्षुधा तृप्ति के पश्चात वह घोंघे के भीतर पुनः घुस जाता है. मिवान ने भी अपने इर्द-गिर्द एक घोंघा बना लिया था, वह उससे तभी बाहर निकलता जब उसकी कलात्मक क्षुधा उसे विवश अथवा कोई अनिवार्यता उसे बाध्य कर देती. और ‘मोह नीड़’ ने वह भूख जगा दी थी.
मिवान का मित्र विक्रमजीत रावत, विरासत में मिली इस रहस्यमयी इमारत का नवीकरण करा इसे सरकार को सौंप देना चाहता था. विक्रमजीत अब अपने परिवार के साथ कनाडा में बस गया है. इसलिए उनका सम्बन्ध इस प्रदेश से तो क्या देश से भी सीमित रह गया है. किन्तु एक स्थानीय सरकारी अधिकारी की पहल पर, इस महल का भविष्य निश्चित करने उसे विवश हो भारत आना ही पड़ा. मिवान से उसका परिचय कनाडा में एक चित्र के नवीकरण के दौरान ही हुआ था. कला में रूचि होने के कारण दोनों जल्द ही निकट आ गए. तभी मित्र के आग्रह को मिवान टाल नहीं पाया. हालांकि इमारत की तस्वीर देखने के बाद मना करना लगभग असंभव हो गया. लेकिन वह कहां जान पाया कि उसने ‘मोह नीड़’ को नहीं, ‘मोह नीड़’ ने उसे चुना है.
पिथौरागढ़ के आस-पास कई जंगल थे, और उनमें लोगों का आना-जाना भी सामान्य है. यहां तक कि इनमें से कई जंगल अवैध कटान कि भेंट चढ़ चुके हैं. इन जंगलों कि रक्षा हेतु ही स्थानीय लोगों ने अपनी प्रचलित मान्यता के अनुसार, जंगल को न्याय की देवी के रूप में विख्यात कोटगाड़ी (कोकिला) देवी को चढ़ा दिया है. कोटगाड़ी देवी को पिथौरागढ़ जिले ही क्या पूरे कुमाऊं में न्याय की देवी के रूप में मान्यता है. स्थानीय लोगों का मानना था कि देवी को जंगल चढ़ाने से काफ़ी हद तक जंगलों के अवैध कटान पर रोक लगी है.
इस बात की सत्यता तो वे ही जानें. लेकिन इन जंगलों से अलग एक और जंगल था; असमान्य रूप से विशाल देवदार के वृक्षों से घिरा हुआ. यहां अवैध कटान तो दूर कि बात, इस जंगल में प्रवेश करने से पूर्व भी लोग दो बार सोचते. यह जंगल सोनगढ़ में था, पिथौरागढ़ से कुछ किलोमीटर आगे.
प्यारे इसी जंगल के बारे में बताने लगा. बोला, “कहते हैं कि कुछ लोग जो यहां घूमने गए, उनमें से किसी को कुछ याद नहीं रहा कि वह कहां गायब हो गए थे. पर इस जंगल कि रक्षा कोई देवी नहीं करती.”
“फिर कौन करता है? कोई देवता!” मिवान ने कहा तो प्यारे लगभग फुसफुसाते हुए बोला, “इस जंगल कि रक्षा करती हैं कुछ रहस्मयी शक्तियां, जिन्हें स्थानीय लोग पिशाचनी कहते हैं.”
“कमाल है! कहीं स्त्री को देवी मान उसे पूज रहे हैं, तो कहीं अपने डर को स्त्री का नाम देकर उससे नफ़रत कर रहे हैं.” अब तक शांत बैठी नीला ने कहा.
नीला इस टीम की सबसे पुरानी सदस्या होने के साथ-साथ मिवान की बहुत अच्छी दोस्त भी है. गंभीर व्यक्तित्व वाली अंतर्मुखी नीला को टीम के कुछ लोग अधिक पसंद नहीं करते. यहां तक कि उसके आसपास के अधिकांश लोग उसे प्रगल्भा समझ, उसके निकट आने के सभी पैंतरे आज़माते. जब वो ऐसा करने में सफल नहीं हो पाते, तब उसके चरित्र को कठघरे में खड़ा कर, मंनगढ़त कहानी रच लेते.
नीला की बात से वातावरण में आई गंभीरता को कम करने के लिए मिवान हंसते हुए बोला, “भला हो इन पिशाचनियों का, जंगल तो सेफ हैं.”
इतना सुनते ही सभी हंस पड़ें. लेकिन प्यारे नहीं हंसा. अपनी खिलदड़ी आवाज़ को गंभीर बनाकर बोला, “मैं जानता हूं कि आप लोग नहीं मानोगे. पर सोनगढ़ में रहने वाले लोग शाम होते ही अपने घर की खिड़की-दरवाज़ों में ताला लगाकर, अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं. शाम होते ही जंगल से अजीब-अजीब सी आवाज़ें और सुनाई पड़ती हैं. कई लोगों ने तो कभी-कभी सुंदर औरतों को घूमते हुए भी देखा है.”
“सुनो, लड़कों, शाम के बाद तुम्हारा बाहर निकलना बंद. मैं काम पूरा होने से पहले तुम में से किसी को गायब होने नहीं दे सकता.” मिवान ने कहा तो प्यारे, सुमित और शिवांगी को छोड़कर सभी हंस पड़ें.
“सर, हम जिस बात को नहीं समझ पाते, उस पर यूं ही हंसकर, स्वयं को बुद्धिमान सिद्ध करने का प्रयास करते हैं.” शिवांगी की इस बात का जवाब अनिल ने दिया. बोला, “डॉन्ट टेल मी, यू बिलीव इन ऑल दिस रबिश.”
“जस्ट बिकॉज़ यू नो नथिंग, वो रबिश नहीं हो जाता.” शिवांगी चिढ़ गई.
बात बढ़ती देख मिवान ने बात बदलते हुए प्यारे से पूछा, “हो सकता है कोई चोर, डकैत या आतंकवादी हों. कोई जान-माल का नुक़सान हुआ कभी.”
“साहब जी, हालांकि उनसे कभी किसी स्थानीय को जान-माल का कष्ट नहीं हुआ, पर फिर भी सभी रात के बाद उस जंगल में पांव रखने से भी डरते हैं. सो जो मजदूर आप रखेंगे, वे भी शाम से पहले काम बंद कर देंगे. यहां तक कि अवैध कटान वालों ने भी कोशिश की, पर हर बार तेज आंधी ने उन्हें बाहर फ़ेंक दिया. सभी उन जंगलों में असामान्य ठंड होने की बात करते हैं.”
“मोह नीड़ के बारे में क्या जानते हो?” सुमित ने पूछा.

 

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“बहुत कुछ तो नहीं जानते. पर सुना है कि विक्रमजीत साहब के पूर्वजों को ये महल अंग्रेज़ों से इनाम में मिला था. वे राजा लोग थे. उस समय में वो लोग शायद इस जगह का इस्तेमाल अपने ऐशोआराम के लिए करते थे. किन्तु एक रात जब राजा लोग और उनके मेहमान वहां शिकार के बाद आराम कर रहे थे, उन पर हमला हुआ. अगली सुबह वहां कोई जीवित नहीं मिला. कहने वाले कहते हैं कि महल पर अपना अधिकार सिद्ध करने के लिए ही डायनों ने हमला किया था. इस घटना के बाद साहब के परिवार ने उस महल का त्याग कर दिया. समय के साथ साहब का परिचय तो बदल गया, पर महल रह गया.”
खच-खच-खचाक… एक उछाल के साथ गाड़ी अचानक रुक गई. सभी अपनी-अपनी जगह से फिसल गए.
“आ.. आ.. आ गई!” प्यारे ने लड़खड़ाती आवाज़ में कहा.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें

 

 

 

 

 

 

 

पल्लवी पुंडीर

 

 

 

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