कहानी- रूम नंबर ट्रिपल नाइन…1 (Story Series- Room Number Triple Nine…1)

दूर से आती एक कार मोड़ पर रुकी, तो एक क्षण को वह ठिठक गई. यह तो समीर की गाड़ी नहीं है. उसके पास बड़ी गाड़ी है फिर यह कौन है? कहीं वह किसी मुसीबत में तो फंसने नहीं जा रही. भय के कारण उसके शरीर में झुरझुरी दौड़ गई, तभी उसने समीर को कार से उतरते देखा. वह हाथ से उसे समीप आने का संकेत कर रहा था. लगभग दौड़ती हुई वह समीप पहुंची और हांफते हुए बोली, “यह किसकी कार ले आए? तुम्हारी कहां गई?”

रात्रि के दो बज रहे थे. चारों ओर घुप्प अंधकार. सड़क पर दूर जलता सोडियम बल्ब आसपास उजाला करने का असफल प्रयास कर रहा था. मेन गेट को बहुत धीरे से खोलकर अटैची हाथ में उठाए वह बाहर निकली. उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई. कहीं कोई देख तो नहीं रहा है. उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था. किसी ने उसे जाते देख लिया, तो सुबह तक बात जंगल में लगी आग की तरह फैल जाएगी. किंतु वहां कोई नहीं था. ज्योंहि उसने कदम आगे बढ़ाए, दूर खड़े दो कुत्ते भौंकते हुए नज़दीक आ गए. उसने तुरंत पत्थर उठाया, तो वे दूर खिसक गए. लेकिन उनका गुर्राना जारी था, मानों वे भी उसके इस तरह जाने से नाराज़ हों. तभी सामने से आते ऑटो को देख वह घबरा गई और तुरंत बगलवाले घर की ओट में छिप गई. मोहन चाचा का ऑटो था. अमूमन उनके घर लौटने का यही समय होता था. कहीं उन्होंने उसे घर से जाते देख लिया होता, तो उसकी ख़ैर नहीं थी. ऑटो खड़ा करके मोहन चाचा जब अपने घर के अंदर चले गए, तो उसने राहत की सांस ली और तेजी से सड़क की ओर बढ़ गई.
दूर से आती एक कार मोड़ पर रुकी, तो एक क्षण को वह ठिठक गई. यह तो समीर की गाड़ी नहीं है. उसके पास बड़ी गाड़ी है फिर यह कौन है? कहीं वह किसी मुसीबत में तो फंसने नहीं जा रही. भय के कारण उसके शरीर में झुरझुरी दौड़ गई, तभी उसने समीर को कार से उतरते देखा. वह हाथ से उसे समीप आने का संकेत कर रहा था. लगभग दौड़ती हुई वह समीप पहुंची और हांफते हुए बोली, “यह किसकी कार ले आए? तुम्हारी कहां गई?”
‘‘जल्दी बैठो, बताता हूं.’’ काव्या बगल की सीट पर जा बैठी. समीर ने कार आगे बढ़ा दी और बोला, ‘‘ऐन वक़्त पर मेरी कार ख़राब हो गई. दोस्त से मांगकर लाया हूं. तुम बताओ, सब कुछ लाई हो न.’’
‘‘हां, तुम्हारी उम्मीद से कहीं ज़्यादा.’’ वह बोली.
समीर गम्भीर हो गया, ‘‘काव्या, मेरी बहन की शादी तय न हो गई होती और मैंने अपना सारा पैसा चाचा को न दे दिया होता, तो मैं तुमसे हरगिज़ पैसा न मंगवाता.’’
‘‘ओह कम ऑन समीर. अब हम अलग थोड़े ही हैं.’’ ‘‘नहीं काव्या, जब तक तुम्हारा पैसा नहीं लौटा देता, मेरी आत्मा पर बोझ रहेगा.’’ उसने अपना हाथ समीर के हाथ पर रख दिया. कार तेज़ी से आगे बढ़ रही थी. उसने पीछे मुड़कर देखा. जिस शहर में वह पैदा हुई, पली बढ़ी, वह शहर, वे गलियां सब पीछे छूट रही थीं और वह बढ़ रही थी, एक नई मंज़िल की ओर.
दो माह पूर्व वह समीर को जानती तक नहीं थी. एक सुबह वह इंटरव्यू देने जा रही थी. बहुत देर से बस स्टाप पर खड़ी बस की प्रतीक्षा कर रही थी. तभी उसे एक कार आती दिखाई दी. उसने कार को रुकने का संकेत किया. कार उसके नज़दीक आकर रुकी.
‘‘जी कहिए.’’ खिड़की में एक स्मार्ट-सा युवक दिखाई दिया.

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‘‘मेरा ग्यारह बजे इंटरव्यू है. प्लीज़ आप मुझे नैल्सन फार्मास्यूटिकल कंपनी तक छोड़ देंगे क्या?” ‘‘ऑफकोर्स, बैठिए.’’ वह उसके बराबरवाली सीट पर बैठ गई थी. कार आगे बढ़ी तो युवक बोला, ‘‘मुझे समीर कहते हैं. क्या नाम बताया आपने अपना?”
‘‘मैंने नाम अभी बताया ही कहां है?” वह मुस्कुराई. उसने नहले पर दहला मारा, ‘‘अच्छा, अगर बतातीं, तो क्या बतातीं?” वह खिलखिला पड़ी, ‘‘काव्या.’’ ‘‘लवली नेम.’’ वह मुस्कुरा दी.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

 

रेनू मंडल

 

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