उसके सपनों को पंख तो मिल गए, लेकिन वो आसमान अब तक नहीं मिला, जिसकी कल्पना उसने की थी… उसके क़दमों को रास्ते तो मिल गए, पर वो मंज़िल कहां मिली, जिसकी उसे तलाश थी… रस्मो-रिवाज़ के नाम पर कई ग़ैरज़रूरी बेड़ियों में वो अब भी जकड़ी हुई है… रिश्तों और मर्यादाओं के नाम पर अब भी सीलनभरी चारदीवारी में वो घुट रही है… तोड़ भी नहीं सकती इन दीवारों को, क्योंकि इन पर सभ्यता-संस्कारों के नाम की जिल्द चढ़ी हुई है. कहने को वो आज़ाद है, पर कतरे हुए पंखों से कोई उड़ सकता है भला?
सच है कि आर्थिक आत्मनिर्भरता ने महिलाओं को अधिक आत्मविश्वासी बना दिया है, लेकिन क्या सच में इससे उनकी स्थिति बेहतर हुई है? यह सवाल डरानेवाला भी है और सोच में डालनेवाला भी. एक तरफ़ देखा जाए, तो महिलाओं की आज़ादी की पहली शर्त ही है आर्थिक आत्मनिर्भरता. इससे वे निर्णय लेने में अधिक सक्षम और सहज हो पाती हैं, लेकिन क्या ऐसा यथार्थ में संभव हो पाता है?
– आज भी दहेज व दहेज हत्याओं जैसे अपराध समाज में पूरे ज़ोर-शोर से कायम हैं. उस पर अब तो शादी की कई शर्तों के साथ एक और शर्त भी जुड़ गई है कि लड़की कमानेवाली होनी चाहिए, साथ ही वो घर के कामों में भी निपुण हो.
– 56 भोग बनाने के साथ-साथ सिलाई-कढ़ाई भी आनी ज़रूरी है. ऑफिस में भले ही कितने भी बड़े पद पर आसीन हों, जब तक खाना बनाने में पूरी तरह से निपुण न होंगी, तब तक उनका लड़की होना व्यर्थ है और उनकी कोई भी कामयाबी ज़्यादा मायने नहीं रखती.
शादी के बाद लड़की की कमाई पर उसके मायकेवालों का कोई हक़ नहीं होगा, सारी कमाई पर ससुरालवाले ही अधिकार
जता सकेंगे.
– क्या ख़र्च करना है, कैसे ख़र्च करना है और किस पर ख़र्च करना है- यह भी पति की इजाज़त से ही होना चाहिए.
– कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी बड़ा निर्णय कोई भी लड़की अपनी मर्ज़ी से नहीं ले सकती.
– यह कोई कहने की बात नहीं कि परिवार व समाज में अब भी यही माना जाता है कि पति का प्रमोशन पत्नी के प्रमोशन से अधिक ज़रूरी होता है, इसलिए अगर दोनों में से किसी एक को कॉम्प्रोमाइज़ करना है, तो वो पत्नी ही होगी, फिर भले ही वो पति से अधिक क़ाबिल व कमानेवाली क्यों न हो.
– ऑफिस में समान रूप से तनाव झेलने के बावजूद पति-पत्नी जब घर लौटते हैं, तो खाना बनाने से लेकर बर्तन धोने तक की ज़िम्मेदारी पत्नी की ही है.
– बच्चों का होमवर्क, उनके स्कूल व कल्चरल एक्टिविटीज़ से संबंधित ज़रूरी बातों का लेखा-जोखा मां की ही ज़िम्मेदारी होती है.
– बच्चों की संगत का ख़्याल रखना, उन्हें संस्कारी बनाना मां के ही हाथ में होता है. फिर चाहे पति बच्चों के सामने सिगरेट-शराब पीए या अपनी पत्नी पर हाथ तक उठाए, लेकिन रोल मॉडल बनना और बच्चों को ग़लत बातों से बचाना मां की ही ज़िम्मेदारी होती है.
– बच्चों के नंबर्स कम आएं या वो ग़लत संगत में पड़ जाएं- सारे सवाल मां से ही किए जाते हैं.
– नाते-रिश्तेदारों से मेल-जोल बढ़ाना, उनकी शादियों में जाना, उनके सुख-दुख में शामिल होना पत्नी का ही कर्त्तव्य होता है.
– इसके अलावा पति की लंबी उम्र के लिए व्रत-उपवास रखना बेहद ज़रूरी है.
– वो ख़ुद चाहे कितनी भी स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही हो, पति-बच्चों व अन्य परिवारजनों की सेहत का ख़्याल रखना उसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है.
– खाने में नमक कम हो जाए या खाना बनने में थोड़ी देर हो जाए, तो उसकी क्षमताओं पर सवालिया निशान लगाने में देर नहीं करता कोई भी.
– सेक्स को लेकर भी उसे वो आज़ाद सोच व खुला आसमान नसीब नहीं हुआ है, जो पुरुषों को प्राप्त है. आज भी पति की इच्छा व अनिच्छा ही मायने रखती है. पत्नी का कर्त्तव्य है मात्र उसकी इन इच्छाओं का ख़्याल रखना.
– कई चौंकानेवाले आंकड़े व तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि अन्य देशों के साथ-साथ भारत में भी पढ़ी-लिखी महिलाएं व सेलिब्रिटीज़ भी कई तरह की हिंसा का शिकार होती हैं.
– भारत में लगभग 70% महिलाएं किसी न किसी तरह की घरेलू हिंसा का शिकार हैं यानी हर रोज़ महिलाएं हिंसा का शिकार होती हैं.
– नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक़ देश में हर 77 मिनट में दहेज हत्या होती है.
– चाहे लड़कियां कितनी भी पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर हो जाएं, इन सामाजिक व घरेलू बुराइयों से उतनी तत्परता से आज भी नहीं लड़ पा रहीं, जितना उन्हें लड़ना चाहिए.
– एक समस्या यह भी हो गई कि अब लड़की जितनी अधिक पढ़ी-लिखी और कमानेवाली होगी, उसके लिए लड़का भी उतना ही अधिक पढ़ा-लिखा व पैसेवाला ढूंढ़ने का प्रयास होता है, फिर चाहे अपनी क्षमता से अधिक दहेज ही क्यों न देना पड़े. ऐसे रिश्ते तय करते व़क्त न तो लड़की और न ही उसके परिवारजन दहेज का विरोध करते हैं.
– यह सच है कि अब लड़कियां विरोध करने का साहस ज़रूर दिखाने लगी हैं, लेकिन दूसरी ओर यह भी सच है कि इस तरह की लड़कियों की आख़िर संख्या ही कितनी है?
– मात्र आर्थिक आत्मनिर्भरता ही काफ़ी नहीं है. भावनात्मक आत्मनिर्भरता के साथ-साथ निर्णय लेने की आज़ादी भी ज़रूरी है.
– मानसिक स्तर पर उन्हें समान नागरिक के नज़रिए से देखना ज़रूरी है. हालांकि इस बदलाव के लिए अभी उन्हें बहुत इंतज़ार करना होगा, क्योंकि घरों में भी हर छोटी-बड़ी बात पर उन्हें यह एहसास दिलाया जाता है कि वे लड़की हैं और इसलिए कुछ बातों में उन्हें ही समझौते करने होंगे, जैसे- शादी के बाद घर और बाहर की दोहरी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए उन्हें तैयार रहना होगा, सहन करने की आदत डालनी होगी, ज़्यादा ग़ुस्सा दिखाना या अपने अधिकारों के लिए बहुत ज़्यादा बोलना ठीक
नहीं… आदि.
– हर तरह से अपने पैरों पर खड़े होने के बावजूद उन्हें समाज में तक सेटल नहीं माना जाता, जब तक कि शादी न हो जाए.
– इसी मानसिकता के तहत उन्हें अपने घर में एक सामान्य बच्चे की तरह परवरिश न मिलकर, पराये घर जाने की ट्रेनिंग ही दी जाती है.
– यही वजह है कि आर्थिक आत्मनिर्भरता के बावजूद आज भी वो भेदभाव और हर तरह के शोषण का शिकार होती हैं.
– कई बार चाहकर भी अन्याय के ख़िलाफ़ बोल नहीं पातीं, क्योंकि पारिवारिक व सामाजिक मर्यादा के नाम पर चुप रहकर सब कुछ सहना संस्कार व सभ्यता के तौर पर उन्हें सिखाया जाता है.
– जबकि ज़रूरी यह है कि लड़कियों के साथ-साथ लड़कों को भी अच्छा पति बनने की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए.
– आजकल पति-पत्नी दोनों ही कामकाजी होते हैं, ऐसे में पति को भी पत्नी के साथ घरेलू कामों में पूरी तरह से सहयोग करना चाहिए.
जितनी आज़ादी पुरुषों को है बड़े निर्णय लेने की, उतनी ही महिलाओं को भी देनी चाहिए. लेकिन शादी के बाद दोनों ही आपसी सहयोग व सहमति से निर्णय लें यह भी ज़रूरी है.
– बच्चों के प्रति व रस्मो-रिवाज़ से लेकर नाते-रिश्तेदारों के प्रति जो भी कर्त्तव्य बनते हैं, उसे दोनों को आपसी सामंजस्य से तय करना ज़रूरी है कि किस अवसर पर कौन जाए और कौन-सी ज़िम्मेदारी कौन निभाए. शायद तब ही सही मायनो में आत्मनिर्भरता का एहसास हो पाएगा, वरना उनकी क़ाबिलियत कमाऊ बेटी, कमाऊ व अच्छी पत्नी, पढ़ी-लिखी व संस्कारी बहू या वर्किंग मदर तक ही सिमटकर रह जाएगी.
– गीता शर्मा
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