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भारत में डोमेस्टिक वॉयलेंस से 40% अधिक मौतें… (Domestic Violence In India)

भारत में डोमेस्टिक वॉयलेंस से 40% अधिक मौतें… (Domestic Violence In India)

बेटी होना कोई गुनाह नहीं है, लेकिन हमारी सामाजिक सोच ने इसे भी किसी अपराध से कम नहीं बना रखा है… बेटियों को हर बात पर हिदायतें दी जाती हैं, हर पल उसे एहसास करवाया जाता है कि ये जो भी तुम पहन रही हो, खा रही हो, हंस रही हो, बोल रही हो… सब मेहरबानी है हमारी… घरों में इसी सोच के साथ उसका पालन-पोषण होता है कि एक दिन शादी हो जाएगी और ज़िम्मेदारी ख़त्म… ससुराल में यही जताया जाता है कि इज़्ज़त तभी मिलेगी, जब पैसा लाओगी या हमारे इशारों पर नाचोगी… इन सबके बीच एक औरत पिसती है, घुटती है और दम भी तोड़ देती है… भारत के घरेलू हिंसा व उससे जुड़े मृत्यु के आंकड़े इसी ओर इशारा करते हैं…

वो कहते हैं तुम आज़ाद हो… तुम्हें बोलने की, मुस्कुराने की थोड़ी छूट दे दी है हमने… वो कहते हैं अब तो तुम ख़ुश हो न… तुम्हें आज सखियों के संग बाहर जाने की इजाज़त दे दी है… वो कहते हैं अपनी आज़ादी का नाजायज़ फ़ायदा मत उठाओ… कॉलेज से सीधे घर आ जाओ… वो कहते हैं शर्म औरत का गहना है, ज़ोर से मत हंसो… नज़रें झुकाकर चलो… वो कहते हैं तुमको पराये घर जाना है… जब चली जाओगी, तब वहां कर लेना अपनी मनमानी… ये कहते हैं, मां-बाप ने कुछ सिखाया नहीं, बस मुफ़्त में पल्ले बांध दिया… ये कहते हैं, इतना अनमोल लड़का था और एक दमड़ी इसके बाप ने नहीं दी… ये कहते हैं, यहां रहना है, तो सब कुछ सहना होगा, वरना अपने घर जा… वो कहते हैं, सब कुछ सहकर वहीं रहना होगा, वापस मत आ… ये कहते हैं पैसे ला या फिर मार खा… वो कहते हैं, अपना घर बसा, समाज में नाक मत कटा… और फिर एक दिन… मैं मौन हो गई… सबकी इज़्ज़त बच गई…!

 

घरेलू हिंसा और भारत…
  • भारत में डोमेस्टिक वॉयलेंस व प्रताड़ना के बाद महिलाओं की मृत्यु की लगभग 40% अधिक आशंका रहती है, बजाय अमेरिका जैसे विकसित देश के… यह ख़तरनाक आंकड़ा एक सर्वे का है.
  • वॉशिंगटन में हुए इस सर्वे का ट्रॉमा डाटा बताता है कि भारत में महिलाओं को चोट लगने के तीन प्रमुख कारण हैं- गिरना, ट्रैफिक एक्सिडेंट्स और डोमेस्टिक वॉयलेंस.
  • 60% भारतीय पुरुष यह मानते हैं कि वो अपनी पत्नियों को प्रताड़ित करते हैं.
  • हाल ही में हुए एक सर्वे के अनुसार महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देशों में भारत अब पहले स्थान पर पहुंच चुका है. हालांकि इस सर्वे और इसका सैंपल साइज़ विवादों के घेरे में है और अधिकांश भारतीय यह मानते हैं कि यह सही नहीं है…
  • 2011 में भी एक सर्वे हुआ था, जिसमें यूनाइटेड नेशन्स के सदस्य देशों को शामिल किया गया था, उसमें पहले स्थान पर अफगानिस्तान, दूसरे पर कांगो, तीसरे पर पाकिस्तान था और भारत चौथे स्थान पर था.
  • भारतीय सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि 2007 से लेकर 2016 के बीच महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों में 83% इज़ाफ़ा हुआ है.
  • हालांकि हम यहां बात घरेलू हिंसा की कर रहे हैं, लेकिन ये तमाम आंकड़े समाज की सोच और माइंड सेट को दर्शाते हैं.
  • नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक़, प्रोटेक्शन ऑफ वुमन फ्रॉम डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट के पास होने के बाद से (2005) अब तक लगभग दस लाख से अधिक केसेस फाइल किए गए, जिनमें पति की क्रूरता और दहेज मुख्य कारण हैं.
मानसिकता है मुख्य वजह
  • हमारे समाज में पति को परमेश्‍वर मानने की सीख आज भी अधिकांश परिवारों में दी जाती है.
  • पति और उसकी लंबी उम्र से जुड़े तमाम व्रत-उपवास को इतनी गंभीरता से लिया जाता है कि यदि किसी घर में पत्नी इसे न करे, तो यही समझा जाता है कि उसे अपने पति की फ़िक़्र नहीं.
  • इतनी तकलीफ़ सहकर वो घर और दफ़्तर का रोज़मर्रा का काम भी करती हैं और घर आकर पति के आने का इंतज़ार भी करती हैं. उसकी पूजा करने के बाद ही पानी पीती हैं.
  • यहां कहीं भी यह नहीं सिखाया जाता कि शादी से पहले भी और शादी के बाद भी स्त्री-पुरुष का बराबरी का दर्जा है. दोनों का सम्मान ज़रूरी है.
  • किसी भी पुरुष को शायद ही आज तक घरों में यह सीख व शिक्षा दी जाती हो कि आपको हर महिला का सम्मान करना है और शादी से पहले कभी किसी भी दूल्हे को यह नहीं कहा जाता कि अपनी पत्नी का सम्मान करना.
  • ऐसा इसलिए होता है कि दोनों को समान नहीं समझा जाता. ख़ुद महिलाएं भी ऐसा ही सोचती हैं.
  • व्रत-उपवासवाले दिन वो दिनभर भूखी-प्यासी रहकर ख़ुद को गौरवान्वित महसूस करती हैं कि अब उनके पति की उम्र लंबी हो जाएगी.
  • इसे हमारी परंपरा से जोड़कर देखा जाता है, जबकि यह लिंग भेद का बहुत ही क्रूर स्वरूप है.

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कहीं न कहीं लिंग भेद से ही उपजती हैं ये समस्याएं…
  • महिलाओं के ख़िलाफ़ जितने भी अत्याचार होते हैं, चाहे दहेजप्रथा हो, भ्रूण हत्या हो, बलात्कार हो या घरेलू हिंसा… इनकी जड़ लिंग भेद ही है.
  • बेटा-बेटी समान नहीं हैं, यह सोच हमारे ख़ून में रच-बस चुकी है. इतनी अधिक कि जब पति अपनी पत्नी पर हाथ उठाता है, तो उसको यही कहा जाता है कि पति-पत्नी में इस तरह की अनबन सामान्य बात है.
  • यदि कोई स्त्री पलटवार करती है, तो उसे इतनी जल्दी समर्थन नहीं मिलता. उसे हिदायतें ही दी जाती हैं कि अपनी शादी को ख़तरे में न डाले.
  • शादी को ही एक स्त्री के जीवन का सबसे अंतिम लक्ष्य माना जाता है. शादी टूट गई, तो जैसे ज़िंदगी में कुछ बचेगा ही नहीं.
शादी एक सामान्य सामाजिक प्रक्रिया मात्र है…
  • यह सोच अब तक नहीं पनपी है कि शादी को हम सामान्य तरी़के से ले पाएं.
  • जिस तरह ज़िंदगी के अन्य निर्णयों में हमसे भूल हो सकती है, तो शादी में क्यों नहीं?
  • अगर ग़लत इंसान से शादी हो गई है और आपको यह बात समय रहते पता चल गई है, तो झिझक किस बात की?
  • अपने इस एक ग़लत निर्णय का बोझ उम्रभर ढोने से बेहतर है ग़लती को सुधार लिया जाए.
  • पैरेंट्स को भी चाहिए कि अगर शादी में बेटी घरेलू हिंसा का शिकार हो रही है या दहेज के लिए प्रताड़ित की जा रही है, तो जल्दी ही निर्णय लें, वरना बेटी से ही हाथ धोना पड़ेगा.
  • यही नहीं, यदि शादी के समय भी इस बात का आभास हो रहा हो कि आगे चलकर दहेज के लिए बेटी को परेशान किया जा सकता है, तो बारात लौटाने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए.
  • ग़लत लोगों में, ग़लत रिश्ते में बंधने से बेहतर है बिना रिश्ते के रहना. इतना साहस हर बेटी कर सके, यह पैरेंट्स को ही उन्हें सिखाना होगा.
सिर्फ प्रशासन व सरकार से ही अपेक्षा क्यों?
  • हमारी सबसे बड़ी समस्या यही है कि हम हर समस्या का समाधान सरकार से ही चाहते हैं.
  • अगर घर के बाहर कचरा है, तो सरकार ज़िम्मेदार, अगर घर में राशन कम है, तो भी सरकार ज़िम्मेदार है…
  • जिन समस्याओं के लिए हमारी परवरिश, हमारी मानसिकता व सामाजिक परिवेश ज़िम्मेदार हैं. उनके लिए हमें ही प्रयास करने होंगे. ऐसे में हर बात को क़ानून, प्रशासन व सरकार की ज़िम्मेदारी बताकर अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेना जायज़ नहीं है.
  • हम अपने घरों में किस तरह से बच्चों का पालन-पोषण करते हैं, हम अपने अधिकारों व स्वाभिमान के लिए किस तरह से लड़ते हैं… ये तमाम बातें बच्चे देखते व सीखते हैं.
  • बेटियों को शादी के लिए तैयार करने व घरेलू काम में परफेक्ट करने के अलावा आर्थिक रूप से भी मज़बूत करने पर ज़ोर दें, ताकि वो अपने हित में फैसले ले सकें.
  • अक्सर लड़कियां आर्थिक आत्मनिर्भरता न होने की वजह से ही नाकाम शादियों में बनी रहती हैं. पति की मार व प्रताड़ना सहती रहती हैं. बेहतर होगा कि हम बेटियों को आत्मनिर्भर बनाएं और बेटों को सही बात सिखाएं.
  • पत्नी किसी की प्राइवेट प्रॉपर्टी नहीं है, सास-ससुर को भी यह समझना चाहिए कि अगर बेटा घरेलू हिंसा कर रहा है, तो बहू का साथ दें.
  • पर अक्सर दहेज की चाह में सास-ससुर ख़ुद उस हिंसा में शामिल हो जाते हैं, पर वो भूल जाते हैं कि उनकी बेटी भी दूसरे घर जाए और उसके साथ ऐसा व्यवहार हो, तो क्या वो बर्दाश्त करेंगे?
  • ख़ैर, किताबी बातों से कुछ नहीं होगा, जब तक कि समाज की सोच नहीं बदलेगी और समाज हमसे ही बनता है, तो सबसे पहले हमें अपनी सोच बदलनी होगी.
बेटों को दें शिक्षा…
  • अब वो समय आ चुका है, जब बेटों को हिदायतें और शिक्षा देनी ज़रूरी है.
  • पत्नी का अलग वजूद होता है, वो भी उतनी ही इंसान है, जितनी आप… तो किस हक से उस पर हाथ उठाते हैं?
  • शादी आपको पत्नी को पीटने का लायसेंस नहीं देती.
  • अगर सम्मान कर नहीं सकते, तो सम्मान की चाह क्यों?
  • शादी से पहले हर पैरेंट्स को अपने बेटों को ये बातें सिखानी चाहिए, लेकिन पैरेंट्स तो तभी सिखाएंगे, जब वो ख़ुद इस बात को समझेंगे व इससे सहमत होंगे.
  • पैरेंट्स की सोच ही नहीं बदलेगी, तो बच्चों की सोच किस तरह विकसित होगी?
  • हालांकि कुछ हद तक बदलाव ज़रूर आया, लेकिन आदर्श स्थिति बनने में अभी लंबा समय है, तब तक बेहतर होगा बेटियों को सक्षम बनाएं और बेटों को बेहतर इंसान बनाएं.

– गीता शर्मा

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Geeta Sharma

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