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पुरुषों में बढ़ रहा है मेंटल डिसऑर्डर… (Men and Mental Illness)

कभी जी करे, तो फूट-फूटकर रो लेना, कभी मन करे, तो ख़ुश होकर तितलियों को पकड़ लेना… कभी मम्मी की साड़ी लपेट लेना, कभी बहन की गुड़िया से खेल लेना… चूड़ियां बेड़ियां नहीं, न ही साड़ियां हैं कमज़ोरी की कहानी… रोने से मन होता है हल्का, सच है ये बात नहीं है कोई झूठी कहानी… किसी के दर्द पर कराह लेना, किसी की तकलीफ़ को समझना ही है सही इंसान की निशानी, किसी से माफ़ी मांगने में बुराई नहीं है, तुम उतने ही मर्द रहोगे गर किसी के आगे कभी झुक जाओगे…

…तुम परिवार के मुखिया हो, तुम मज़बूत हो, तुम ही धुरी हो, तुमसे ही वंश चलता है, तुम ही वंश बढ़ाते हो, तुम कमाते हो, तुम रक्षक हो… यह बात याद रखना, तुम कमज़ोर नहीं, तुम कभी रोना नहीं, आंसू बहाना तो औरतों का काम होता है, तुम सब कुछ सह सकते हो, पर तुम किसी से कुछ कह नहीं सकते, क्योंकि शिकायतें भी औरतें ही करती हैं, तुमने चूड़ियां नहीं पहन रखी, तुम क्यों भावुक होते हो… ये तमाम हिदायतें आए दिन हम अपने घर में पल रहे लड़कों को देते हैं… उन्हें यही सिखाते रहते हैं कि वो फौलाद का सीना रखते हैं और कभी थकते नहीं, कभी हारते नहीं, कभी रोते भी नहीं… पर इन सबके बीच हम भूल जाते हैं कि वो भी इंसान हैं, उनके सीने में भी दिल है, जिसमें भावनाएं भी होती हैं और ये भावनाएं उन्हें भावुक भी कर सकती हैं, कभी हंसा सकती हैं, तो कभी रुला भी सकती हैं. हम जिस समाज में रहते हैं, वहां पुरुष का पर्याय ही कठोरता होती है, यही वजह है कि पुरुषों में मानसिक समस्याएं बढ़ रही हैं और अब उनके घातक परिणाम भी सामने आने लगे हैं.
यह हाल स़िर्फ भारतीय समाज का ही नहीं है, बल्कि यह पूरे विश्‍व की तस्वीर है. इंग्लैंड में हर आठ पुरुषों में से एक को मेंटल प्रॉब्लम है. वहीं अमेरिका जैसे देश में भी हर साल 6 मिलियन से अधिक पुरुष डिप्रेशन का शिकार होते हैं.

क्या वजहें हैं पुरुषों में बढ़ते मेंटल डिसऑर्डर की ?
दरअसल हमारी सोच यही रहती है कि महिलाएं ही शोषण व तिरस्कार का शिकार होती हैं, इसलिए उन्हें ही अधिक मानसिक व शारीरिक समस्याएं होती हैं, इसलिए पुरुषों की तरफ़ ध्यान ही नहीं जाता.
सामाजिक अपेक्षाएं और समाज में लिंग के आधार पर काम व ज़िम्मेदारियों का बंटवारा: हमारे समाज में काम से लेकर हर चीज़ को लिंग के आधार पर ही बांटा गया है. पारंपरिक भूमिकाओं को लेकर अब भी सोच वही बनी हुई है. घर के बाहर की ज़िम्मेदारी पुरुषों की और घर के भीतर की महिलाओं की. पुरुषों को हम घर का मुखिया मानते हैं. उन्हें मज़बूत नज़र आना चाहिए, हर संघर्ष को चुप रहकर सहना चाहिए, क्योंकि वो कमज़ोर नहीं पड़ सकते. इस वजह से पुरुषों पर मज़बूत नज़र आने का अतिरिक्त दबाव आ जाता है, जो मानसिक रूप से उन्हें परेशान करता है.
पुरुष अपनी मानसिक परेशानी किसी से शेयर नहीं करते: उन्हें बचपन से अपनी कमज़ोरियों व परेशानियों को छिपाते रहना ही सिखाया गया है. ऐसे में उन्हें लगता है कि यदि उनकी समस्या का किसी को पता चला, तो उनकी मर्दानगी ख़तरे में आ जाएगी. उन्हें कमज़ोर समझ लिया जाएगा. यही कारण है कि पुरुष एक्सपर्ट हेल्प भी महिलाओं की अपेक्षा बहुत कम लेते पाए गए हैं.

पुरुषों को अपनी भावनाओं को नियंत्रित रखने की हिदायतें बचपन से ही मिलती हैं: परेशान होने पर भी वो कभी दोस्तों या करीबियों से अपनी परेशानियां या मन की बात शेयर नहीं करते और न ही वो रोकर अपना मन हल्का करते हैं. जबकि महिलाएं रोकर व शेयर करके अपना दुख बांट
लेती हैं.
वो अपनी भावुकता व संवेदनशीलता दिखा नहीं सकते: उनके ज़ेहन में कहीं-न-कहीं यह बात होती है कि उन्हें बहुत अधिक भावुक होने व संवेदनशील होने की छूट नहीं है. जबकि हर किसी का स्वभाव अलग होता है. कोई स्त्री होकर भी कम भावुक हो सकती है और कोई पुरुष भी अधिक संवेदनशील हो सकता है. पर असली मर्द तो वही होता है, जिसे कभी दर्द ही न हो. लेकिन क्या यह संभव है? हर इंसान को दर्द व तकलीफ़ होती ही है, इसे लिंग के आधार पर परखना सही नहीं.
पुरुषों से अपेक्षाओं का दायरा: यह सच है कि महिलाओं से भी अपेक्षाएं काफ़ी की जाती हैं, लेकिन उनसे उनके काम व घर की ज़िम्मेदारी से संबंधित अपेक्षाएं अधिक होती हैं, जबकि पुरुषों से मानव स्वभाव की मूल भावनाओं को छिपाकर रखने की अपेक्षाएं होती हैं, जो उन्हें भीतर ही भीतर बुरी तरह प्रभावित करती हैं. मर्द बनो, किसी से शिकायत मत करो, अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ो, अपना दुख-दर्द मत बांटों और रोना तो कभी नहीं है. उन्हें रोने की इजाज़त ही नहीं देता यह समाज. स्वयं महिलाएं भी यदि पुरुषों को रोते देखेंगी, तो उन्हें अजीब लगता है कि कैसा आदमी है, जो लड़कियों की तरह आंसू बहाता है.

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रिश्ते टूटने का कारण पुरुष ही होते हैं: यदि कोई शादी टूटती है या कोई लव अफेयर, तो आमतौर पर हमारी यही सोच बनती है कि ज़रूर लड़के ने ही कुछ किया होगा या तो वो पार्टनर को प्रताड़ित करता होगा या फिर उसका ज़रूर कोई और अफेयर होगा, जबकि कई मामलों में वजह कुछ और ही होती है. यही वजह है कि पुरुषों को सोशल सपोर्ट महिलाओं की अपेक्षा कम मिलता है. स़िर्फ सोशल ही नहीं, पारिवारिक सपोर्ट भी कम मिलता है, जिससे उनकी तकलीफ़ व अकेलापन कोई देख ही नहीं पाता और वो सब कुछ सहकर मज़बूत बने रहने का दिखावा करते हैं. इन्हीं वजहों से न स़िर्फ उन्हें मानसिक समस्याएं, बल्कि कई शारीरिक समस्याएं भी होती हैं, जैसे- हार्ट प्रॉब्लम, डायबिटीज़, हाई ब्लड प्रेशर आदि.
पैसे कमाने का प्रेशर: पैसे कमाने का जितना दबाव पुरुषों पर होता है, उतना महिलाओं पर अब भी नहीं है. यदि कोई महिला कमाती है और पति घर का काम करे, तो समाज में उस पुरुष को सम्मान की नज़रों से नहीं देखा जाता. बीवी की कमाई खानेवाला, अपने स्वाभिमान से समझौता करनेवाला आदि कहकर उसे बार-बार यह एहसास दिलाया जाता है कि घर का काम स्त्रियों का व दोयम दर्जे का है, जबकि उसका काम बाहर जाकर पैसे कमाना है. और ये बातें उसे बाहरवाले नहीं, घर के सदस्य ही कहते हैं. यहां तक कि उसकी पत्नी भी उसका सम्मान नहीं करती, क्योंकि उसकी भी सोच यही है कि पैसे तो पति को ही कमाने चाहिए.
पुरुषों में तेज़ी से बढ़ रहे हैं आत्महत्या के मामले: ये तमाम बातें पुरुषों पर अतिरिक्त दबाव डालती हैं और यही वजह है कि उनकी मेंटल हेल्थ इससे प्रभावित अब ज़्यादा हो रही है और उनमें आत्महत्या के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं, क्योंकि आज के समय में बाहर भी बहुत कॉम्पटीशन है, बाहर का तनाव, काम का स्ट्रेस, करियर, रिलेशन आदि हर जगह ख़ुद को बार-बार साबित करने का दबाव पुरुषों पर बढ़ता जा रहा है और वो डिप्रेशन, एंज़ायटी व स्ट्रेस जैसी कई मानसिक बीमारियों की गिरफ़्त में अधिक आने लगे हैं.

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कैसे होगा बदलाव?
बेहतर होगा कि समाज अपनी सोच बदले और हर घर में बच्चों की परवरिश एक समान हो. लिंग के आधार पर भावनाओं का प्रदर्शन व उन पर नियंत्रण का दबाव किसी पर न हो. उन्हें सिखाया जाए कि रो लेने में कोई बुराई नहीं. अपनी ग़लती स्वीकार करने में, माफ़ी मांगने में, भावनाओं में बहने में, संवदेनशील होने में कोई हर्ज़ नहीं, क्योंकि ये तमाम गुण मूल रूप से एक सामान्य इंसान में होते ही हैं और वो भी उतने ही इंसान हैं, जितनी महिलाएं. वो सुपरमैन या भगवान नहीं हैं.
    -गीता शर्मा

Shilpi Sharma

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