व्यंग्य- विक्रम और बेताल रिटर्न (Satire- Vikram Aur Betal Return)

आगे कुआं पीछे खाई! मजबूर विक्रम को मौन भंग करना पड़ा, “सियासत में एक पुरानी परंपरा है बेताल. विपक्ष को कभी सत्तापक्ष का ‘विकास’ नहीं नज़र आता. हमारे देश के विपक्ष ने ये रूटीन बना लिया है कि सत्ता से बेदख़ल होते ही वो आंखों पर गांधारी पट्टी बांध लेता है. सत्ता पक्ष की अच्छाई और विकास ना देखने की इस ‘धृतराष्ट्र परंपरा’ को बड़ी निष्ठा और लगन से निभाया जाता है. इस काजल की कोठरी में कोई बेदाग़ नहीं है. मेरा मतलब सास भी कभी बहू थी…

अगस्त 2020. रात के डेढ़ बजते ही महाराजा विक्रम महल से बाहर आए. बाहर घनघोर ख़ामोशी थी, गलियों में कुत्ते तक क्वारंटाइन होकर कोरोना नियमों का पालन कर रहे थे. थोड़ी देर पहले ही बारिश हुई थी और अब बादल सोशल डिस्टेंसिंग के बगैर आसमान में चहलकदमी कर रहे थे. महाराजा विक्रम काफ़ी रफ़्तार के साथ नगर से जंगल को जानेवाले रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे. महारानी के जागने से पहले ही उन्हें वापस महल लौटकर आना था.
थोड़ी देर बाद वो घने जंगल के रास्ते श्मशान की ओर बढ़ रहे थे. विक्रम ने अपने ‘ओप्पो’ चाइनीज़ फोन में टाइम देखा, रात के १.४५ हो चुके थे. आसमान में चांद बादलों के पीछे दुर्भाग्य की तरह मुस्कुरा रहा था. ओस की बूंदें नेताओं के आश्वासन की तरह टपक रही थीं. अंधेरे में जंगली जानवर इस तरह इधर-उधर दौड़ रहे थे, जैसे कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल कर युवक पकौड़े का “ठीया” तलाश रहे हों. दूर किसी बस्ती में कोई कुत्ता बड़ा इरिटेट होकर भौंक रहा था, जैसे देहात का कोई कुत्ता शहर के कुत्ते से अपने रिश्तेदार का पता पूछ रहा हो.
महाराजा विक्रम तेज़ी से आगे बढ़े. अभी वो श्मशान के सामने पहुंचे ही थे कि ठिठककर रुक गए. बड़ा खौफ़नाक मंज़र था. श्मशान के मेन गेट के सामने चटाई बिछाकर एक शेर बैठा था. दोनों एक-दूसरे को बड़ी देर तक ताकते रहे. आख़िरकार शेर ने मुंह खोला, “काहे नर्भसाए खड़े हो? डरिए मत, ऊ का है कि अब हम भेजिटरियन हो गया हूं- टोटल शाकाहारी. हमने तो अपने गुफ़ा के सामने नोटिस बोर्ड लगा दिया हूं कि ‘कृपया गाय, बैल, भैंस, बकरा-बकरी सब इहां से दूर जाकर चारा खाएं. चारा… मतलब घास.”
महाराजा विक्रम की जान में जान आई, क्योंकि शेर ख़ुद को शाकाहारी बता रहा था. विक्रम ने भोजपुरी बोल रहे शेर से पूछा, “एक्सक्यूज़ मी सर, आप गौवंश का शिकार नहीं करते, वो बात समझ में आती है. भैंस का शिकार नहीं करते, क्योंकि कई बार संख्या बल आप पर भारी पड़ता है. पर… बकरे के शिकार में क्या ख़तरा है. बकरे को काहे अवॉयड किया सर?” शेर ने माथा पीट लिया, “कोरोना में एकदम बुडबक हो गए हो का! सोशल मीडिया नहीं देखते? आप का चाहते हो कि हम बकरा का शिकार करूं और हमारा विरोधी लोग मीडिया से मिलकर ऊ बकरे को गाय साबित कर दें! हमरी तो हो गई “माब लिंचिंग” यही अनुष्ठान करवाना चाहते हो का. हम कोई अजूबा वाली बात नहीं कह रहा हूं. ऐसा चमत्कार कई बार हो चुका है. त्रिफला का चूर्ण है तुम्हारे पास?”
“वो क्या करेंगे सर?”
“का बताएं, परसो डिनरवा में बगैर सत्तू मिलाए चारा खा लिया था, तब से पेट अपसेट है. ख़ैर अब आप जाइए, हम योगा करूंगा. आप जाकर कहानी सुनिए. पूरा देश बेताल से कहानी ही सुन रहा है. रोज़ नई-नई कहानी. इतने दिन से रोज़ कहानी सुन रहे हो, पर लगता है कि अभी तक आत्मनिर्भर नहीं हुए. बहुत ढीले हो! कुछ लेते क्यों नहीं.”
शर्मिन्दा होकर विक्रम श्मशान की ओर बढ़ गए, जहां चिताएं विपक्ष के अरमानों की तरह जल रही थीं. एक बड़े वृक्ष की ऊंची डाल पर बेताल का शव, सुशांत सिंह राजपूत के संदिग्ध हत्यारे के गिरफ़्तारी के उम्मीद की तरह, लटका हुआ था. विक्रम ने पेड़ के नीचे से बेताल को आवाज़ दी, “तू जीडीपी की तरह नीचे आएगा या बेरोज़गारी की तरह मैं ऊपर आऊं?”
बेताल रोज़गार की तरह ख़ामोश था.
अब विक्रम पेड़ पर डॉलर की तरह चढ़ा और बेताल के शव को कंधे पर लादकर चीन के चरित्र की तरह नीचे आया. अभी बिक्रम ने मुश्किल से दो-चार कदम बढ़ाए थे कि शव में स्थित बेताल बोल पड़ा, “राजन, तेरा धैर्य मायावतीजी की तरह प्रशंसनीय है. जिस निष्ठा, धैर्य और उम्मीद से तू मुझे ढो रहा है, उस तरह तो सतयुग में श्रवण कुमार ने अपने मां-बाप को भी नहीं ढोया होगा. ख़ैर, मै तेरी थकावट उतारने के लिए तुझे एक कहानी सुनाता हूं, मगर सावधान राजन, अगर तुमने कुछ बोलकर मौन भंग किया, तो शव लेकर मैं वैसे ही उड़ जाऊंगा, जैसे बैंकों की इज्ज़त लूटकर ‘विजय माल्या’ उड़ गया.
बेताल कह रहा था, “मुझे बहुत मज़ा आता है, जब मैं अपने मन की बात करता हूं और आप ना चाहते हुए भी उसे सुनते हैं- बड़े दिनों में ख़ुशी का दिन आया. आपकी जेब में रखा ‘दिल धक धक’ गुटखे का पाउच मैंने निकाल लिया है. बुरा मत मानना, पिछले जन्म में बिहार पुलिस में हुआ करता था. ख़ैर, आपको कहानी सुनाता हूं, मगर चेतावनी देता हूं कि बीच में कुछ बोल कर मौन भंग किया, तो मैं शव लेकर ऐसे उड़ जाऊंगा, जैसे सतयुग के हाथ से अच्छे दिन के तोते उड़ गए.”
विक्रम मन ही मन गालियां दे रहा था और बेताल एक करेंट कहानी शुरू कर चुका था, “कलियुग को धकेल कर सतयुग आ चुका था. पूरे देश में चारण बधाई गीत गा रहे थे, ‘दुख भरे दिन बीते रे भैया सतयुग आयो रे… लेकिन अभी सतयुग बकैयां बकैयां चलना सीख ही रहा था कि दूध में’ कोरोना’ टपक पड़ा. एक्ट ऑफ गॉड का करिश्मा देखिए, रोगी नज़र आ रहे थे और रोग नदारद! जैसे-जैसे कोरोना मज़बूत हो रहा था, उसी रफ़्तार से अर्थव्यवस्था मज़बूत हो रही थी.
दुनिया दंग थी. सड़क पर भय को हराकर भूख उतर पड़ी थी. देश के महानगरों को जोड़नेवाली सभी सड़कों पर पैदल चलने का मैराथन शुरू हो गया था. प्रशासन चाहता था कि सर्वे भवन्तु सुखिन: और जनता सतयुग की भावना को सम्मान देते हुए बसों को छोड़कर पैदल चलने में आत्मनिर्भर होने में लगी थी. चारों ओर हरियाली ही हरियाली नज़र आ रही थी. कोरोना सिर्फ़ अख़बार, न्यूज़ चैनल, अस्पताल और कब्रिस्तान में नज़र आ रहा था…”
थोड़ा रुककर बेताल फिर शुरू हुआ, “राजन, देश में कोरोना के बावजूद आत्मनिर्भर होने में किसी तरह की कमी नहीं पाई गई. चोर, गिरहकट, दुकानदार, प्राइवेट डॉक्टर, पुलिस सबको छुट्टा छोड़ दिया गया था. अब कारोबार और बेकारी के बीच आत्मनिर्भरता भ्रमित होकर खड़ी थी कि जाएं तो जाएं कहां. और विपक्ष रामराज पर सवाल उठा रहा था, “हमारे अंगने में तुम्हारा क्या काम है…
राजन, मेरा सवाल है कि जब एनडीए के साथ-साथ देश के समस्त ऋषि-मुनि, मीडिया और देवताओं को सतयुग साफ़-साफ़ नज़र आ रहा है, तो विपक्षी दलों को क्यों नहीं नज़र आता? जवाब जानते हुए भी तुम अगर मौन रहे, तो तुम्हारा सिर जनता दल की तरह टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा.”
आगे कुआं पीछे खाई! मजबूर विक्रम को मौन भंग करना पड़ा, “सियासत में एक पुरानी परंपरा है बेताल. विपक्ष को कभी सत्तापक्ष का ‘विकास’ नहीं नज़र आता. हमारे देश के विपक्ष ने ये रूटीन बना लिया है कि सत्ता से बेदख़ल होते ही वो आंखों पर गांधारी पट्टी बांध लेता है. सत्ता पक्ष की अच्छाई और विकास ना देखने की इस ‘धृतराष्ट्र परंपरा’ को बड़ी निष्ठा और लगन से निभाया जाता है. इस काजल की कोठरी में कोई बेदाग़ नहीं है. मेरा मतलब सास भी कभी बहू थी…
विक्रम के मौन भंग करते ही बेताल शव के साथ उड़ा और फिर उसी पेड़ की डाल से फौजदारी के पुराने मुक़दमे के फ़ैसले की तरह लटक गया.
विक्रम सिर पकड़कर बैठ गए ‘दिल धक धक’ गुटखे की पहली दुकान यहां से तीन किलोमीटर दूर थी…

सुल्तान भारती

यह भी पढ़ें: व्यंग्य- एक्ट ऑफ गॉड (Satire- Act Of God)

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