कहानी- आंधी (Short Story- Aandhi)


“बच्चे हमारी ज़िंदगी का सबसे अहम् हिस्सा हैं. सोसायटी से कटकर ज़िंदगी जी जा सकती है, पर ज़िंदगी का अहम् हिस्सा ही कट गया तो…”
“तुम बेकार की ज़िद ले बैठी हो. बच्चों को बिगड़ना होगा, तो वे वैसे ही बिगड़ जाएंगे. क्या दुनिया में जितने भी अपराधी हुए हैं, उनके लिए उनके माता-पिता कसूरवार थे? बगावत और बुरी आदतों का झोंका कभी भी कहीं से भी आ सकता है.”



आज काफ़ी दिनों बाद थोड़ा फ्री हुए, तो मैं और अतुल अपने-अपने चाय के कप लेकर बाहर लॉन में आकर बैठ गए.
“चलो, सब कुछ अच्छे-से व्यवस्थित हो गया. घर भी अच्छे से सेट हो गया है और बच्चे भी अपनी-अपनी पढ़ाई वगैरह में लग गए हैं. सवेरे मिसेज़ वर्मा आई थीं. कह रही थीं, यहीं कॉलोनी में ही क्लब बिल्डिंग में अपने बीएसएफ की सभी लेडीज़ ने मिलकर एक लेडीज़ क्लब चला रखा है. मुझे भी उसकी सदस्या बनने के लिए कह रही थीं.”
“हां, तो बन जाओ.” अतुल ने चाय के घूंट के साथ अपनी सहमति व्यक्त की.
“हम लोग तो वैसे ही इतनी पार्टीज़ वगैरह करते रहते हैं, तुम कहते हो तो एक और सही. वर्माजी की बेटी हमारी पलक के बराबर की ही है. मिसेज़ वर्मा कह रही थीं कि ज़माने के बिगड़ते रंग-ढंग को देखकर उन्होंने तो अपनी बेटी को आत्मरक्षा के लिए कराटे क्लासेस में भेजना आरंभ कर दिया है. मैं सोचती हूं हमें भी पलक को ये क्लासेस जॉइन करवा देनी चाहिए. दोनों साथ आ-जा सकेंगी.”
“पलक इतना वक़्त निकाल पाएगी? कोचिंग, कॉलेज, कंप्यूटर क्लास सब कुछ तो हम उसे पहले ही जॉइन करवा चुके हैं.” चाय समाप्त कर अतुल ने अब सिगरेट सुलगा ली थी.
“हां, वो तो है, पर यह भी बहुत ज़रूरी है. मैं उससे बात करके मनाने का प्रयास करती हूं. आपने उसके लिए दिल्ली से वो पेपर स्प्रे तो ऑर्डर कर दिया है ना? सुरक्षा के जितने उपाय हों, हमें अपनी ओर से तो अपना ही लेने चाहिए. आपने आज का अख़बार देखा? उसमें लड़कियों की सुरक्षा के लिए कुछ मोबाइल एप्स सुझाए गए थे. मैं समझती हूं हमारी पलक के मोबाइल में भी वे सब एप्स होने चाहिए.”
“हां, सरसरी तौर पर ही देखे थे. डिटेल पढ़कर देखता हूं. वैसे तुमने उसे अपनी ओर से तो सावधान रहने की बात समझा दी है न? नई जगह है, पता नहीं कैसे लोग हैं?”
“हां. वैसे वह ख़ुद काफ़ी समझदार है. अरे, वो उधर पीला-सा बादल कैसा है?” मैं अचरज में तेज़ी से इधर ही बढ़ते आ रहे बादल को ग़ौर से देखने लगी.
“ओह नो! यह तो पीली आंधी है. जल्दी से अंदर भागो और फटाफट सब खिड़की-दरवाज़े बंद कर परदे खींच दो, वरना सारा घर धूल से भर जाएगा. ये रेगिस्तानी आंधियां बड़ी ख़तरनाक होती हैं.” अतुल सामान समेटते हुए अंदर भागने लगे, तो मैं भी उनके पीछे हो ली.
“शुक्र है, दोनों बच्चे घर पर ही हैं. इन्हें भी बताना होगा कि ऐसी विपत्ति के समय ये घर से बाहर हों, तो जहां हों, वहीं किसी बंद जगह में छुप जाएं.”
समय रहते हमने सब खिड़की-दरवाज़े बंद कर लिए थे. इसके बावजूद जब आंधी थमी, तो पूरा घर बारीक़ पीली मिट्टी से भर गया था. दो नौकरों की मदद लेने पर भी पूरा घर साफ़ करने में हमें तीन-चार घंटे लग गए थे.
मेरे समझाने पर पलक ने कराटे क्लासेस जाना शुरू कर दिया. ज़िंदगी की गाड़ी सुव्यवस्थित ढर्रे पर चलना आरंभ ही हुई थी कि अतुल को एक प्रशिक्षण के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर जाना पड़ा.
मेरी ज़िम्मेदारियां विशेषतः बच्चों को लेकर और भी बढ़ गईं. उस दिन पलक कॉलेज से आकर सोई, तो कराटे क्लासेस का टाइम हो जाने तक भी नहीं उठी. मैंने उसे झिंझोड़कर उठाया और जल्दी तैयार होने के लिए कहा.
“आज रहने देते हैं ममा, बहुत थकान हो रही है. अभी और सोने का मूड है.”

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“नहीं पलक, क्लासेस को लेकर कोई लापरवाही नहीं होनी चाहिए. चलो, जल्दी से उठ जाओ. मैं तुम्हारा प्रोटीन शेक लेकर आ रही हूं.” मैं शेक बनाकर ले भी आई, पर पलक अभी तक सो रही थी. मेरा पारा चढ़ गया. वैसे मैं ज़्यादा ग़ुस्सा नहीं होती, पर इधर दिन-प्रतिदिन अख़बार में बढ़ती रेप, हिंसा जैसी ख़बरों ने पलक को लेकर मेरी चिंताएं कुछ ज़्यादा ही बढ़ा दी थीं. वही चिंता और डर अचानक ज़ुबां से फूट पड़ा.

“तुम्हें ख़बर भी है मैं और तुम्हारे पापा तुम्हें लेकर कितने फ़िक़्रमंद रहते हैं? पलक को यह सिखाना चाहिए, पलक को वह आना चाहिए. तुम्हारे लिए पेपर स्प्रे मंगवाया है, जिसे अचानक हुए हमले के समय छिड़ककर भागा जा सके. तुम्हारे लिए मोबाइल एप्स डिस्कस कर रहे हैं और तुम? तुम्हें कोई परवाह ही नहीं है. हमारी नींद उड़ाकर इन्हें सोने की पड़ी है. अरे, नींद ज़्यादा ज़रूरी है या कराटे क्लास?”

पलक की नींद उड़ चुकी थी. उसका मूड बुरी तरह उखड़ चुका था. “मुझे तो लगता है, मैंने लड़की के रूप में पैदा होकर ही सबसे बड़ा गुनाह कर दिया है. कहने को हम 21वीं सदी में जी रहे हैं, पर क्या फ़र्क़ आया है पुराने ज़माने से अब तक की लड़कियों की स्थिति में?…”
पलक का आक्रोश चरम पर था, “तब सारी चिंताओं व दुष्परिणामों से निबटने के लिए लड़की को पैदा होते ही ख़त्म कर दिया जाता था. यदि कोई जीवित भी रह जाती थी, तो उसे घूंघट या बुर्के में छुपा दिया जाता था. वह घर की ड्योढ़ी भी नहीं लांघ पाती थी. घरेलू कामों में पति को ख़ुश रखने और बच्चों को पालने में ही उनकी सारी ज़िंदगी निकल जाती थी. बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक कभी पिता, कभी पति, तो कभी बेटे के अंकुश में रहते-रहते वह भूल ही जाती थी कि उसका अपना भी कोई वजूद है. और आज… आज क्या तीर मार लिया है हमने? या तो कोख़ में ही ख़त्म कर दी जाती हैं, नहीं तो पंख देकर ज़मीन पर ही फुदकने की हिदायत दी जाती है. आसमां में स्वच्छंद उन्मुक्त उड़ान भरना हम छोटी नाज़ुक चिड़ियाओं-मैनाओं के लिए हसरत मात्र है… कुछ नहीं बदला है ममा, कुछ नहीं. सारी वर्जनाएं, सारी हिदायतें, सारे बचाव के उपाय सब कुछ लड़कियों के लिए ही क्यों? कोई उन गिद्धों और कौओं को क्यों नहीं रोकता? उन्हें क्यों नहीं
समझाता कि आसमां उनकी बपौती नहीं है.”
मैं एकदम सकते में आ गई थी. मैंने धैर्य से काम लेना उचित समझा.
“बेटी, जो हमारे बस में है, वही तो हम करेंगे. हम पूरे समाज को कैसे बदल सकते हैं? हां, इतना ज़रूर कर सकते हैं कि घर में तुम्हारे साथ कोई अन्याय न हो. हम तुम्हें उच्च शिक्षा दिलवा रहे हैं. तुम्हें कहीं भी जाने की आज़ादी है. बेटे पलाश की ही तरह तुम्हारा भी पालन-पोषण कर रहे हैं. बताओ, तुममें और पलाश में हमने कभी कोई भेदभाव किया है?”
“हां किया है. भैया कल रात 11 बजे घर लौटे थे. आपने एक बार भी उनसे पूछा कि वह इतनी रात गए कहां थे?”
“वह अपने दोस्त की बर्थडे पार्टी में गया था. मुझसे कहकर गया था.”
“बर्थडे पार्टी तो साढ़े नौ बजे ख़त्म हो गई थी. उसके बाद वे कहां थे?”
ज़ोर-ज़ोर की आवाज़ें सुनकर अब तक पलाश भी स्टडीरूम से कमरे में आ चुका था.
“क्या हुआ ममा? पलक इतनी ज़ोर-ज़ोर से क्यूं बोल रही है?”
“कल रात आप कहां थे भैया? ज़रा ममा को बता दीजिए.”
“सोहम की बर्थडे पार्टी में यार. बताकर तो गया था.”
“वह पार्टी साढ़े नौ बजे ख़त्म हो गई थी. उसके बाद?” मेरी उत्सुक और आशंकित निगाहें पलाश पर जम गई थीं.
“वो.. हम लोग डिस्कोथेक चले गए थे. सोहम के यहां पार्टी में ज़्यादा मज़ा नहीं आया, तो दोस्तों ने कहा डिस्कोथेक में चलकर डांस करते हैं.”
“सिर्फ़ डांस ही किया था या और कुछ?” पलक का स्वर तीखा था.
मुझे लगा मुझे हार्टअटैक आ जाएगा. “पलाश, सच-सच बताओ क्या किया था तुम लोगों ने?”
“ममा, मैंने कुछ नहीं किया. दोस्तों ने ड्रिंक्स की थी. मैं तो सॉफ्ट ड्रिंक ही
ले रहा था.”
“ओह!” मेरी अटकी हुई सांसें फिर से चलने लगी थीं. एक ही पल में मैं जाने क्या-क्या सोच गई थी. न चाहते हुए भी स्वर कड़क होने की बजाय रूंधने लगा था, “तुम सच बोल रहे हो न पलाश?”
“हां ममा बिल्कुल! आर्यन ने मेरा मज़ाक उड़ाते हुए मेरी सॉफ्टड्रिंक में थोड़ी वाइन डाल दी, तो मैंने वो ग्लास वहीं छोड़ दिया.”
“उफ़्, क्या हो रहा है यह सब?” मेरा माइग्रेन अचानक ही उभर आया था. मैं दोनों हाथों से सिर थामते हुए अपने बेडरूम की ओर लपकी. पलाश और पलक मेरे पीछे-पीछे भागे आए. पलाश ने मेरे सिर पर कपड़ा बांधकर मुझे लिटाया, तो पलक ने दवा निकालकर दी. बत्ती बुझाकर मुझे सोने की सख़्त हिदायत देकर वे बाहर निकल गए. दवा के प्रभाव से मैं जल्दी ही नींद के आगोश में समा गई.
सवेरे आंख देर से खुली. “ओह, बच्चों के जाने का टाइम हो गया.” मैं चप्पलें घसीटती बाहर आई, तो देखा पलक तैयार हो चुकी थी. “आप आराम कीजिए ममा. भैया और मेरा टिफिन मैंने तैयार कर लिया है. आज एक्स्ट्रा क्लास है, तो मैं कोचिंग से सीधे कॉलेज निकल जाऊंगी. भैया कॉलेज चले गए हैं. और हां, भैया और मेरी सुलह हो चुकी है. भैया ने अपनी ग़लती मान ली है. ममा, आई एम सॉरी! कल मैंने आपके साथ काफ़ी बेरुखी से बात की. अब ऐसा नहीं होगा. मैं आपकी और पापा की चिंता समझ सकती हूं. आप जो कुछ कर रहे हैं, मेरे भले के लिए ही कर रहे हैं.”
मैं दरवाज़ा बंद कर फिर से बिस्तर पर आ गिरी.
बच्चों की समझदारी और ज़िम्मेदारी पर मुझे फ़ख़्र था, पर अंदर से कहीं मन बहुत टूटा-टूटा और उद्विग्न-सा हो रहा था. पलक ठीक ही तो कहती है, हम लड़कियों को लेकर ज़रूरत से ज़्यादा सतर्क और जागरूक हो गए हैं. यह तो भूल ही जाते हैं कि बेटे, भाई, पति आदि भी तो हैं. उन्हें भी तो कुछ सदाचार सिखाने और समझाने की ज़रूरत है. समस्या के निवारण के ही उपाय किए जाते हैं, समस्या के मूल में जाकर उसके रोकथाम के प्रयास क्यों नहीं किए जाते? जबकि उपचार से रोकथाम हमेशा ही ज़्यादा ज़रूरी होता है.
जैसे-जैसे मेरी सोच का दायरा बढ़ता गया, दिमाग़ की खिड़कियां खुलती चली गईं और मैं अतुल के लौटने का बेसब्री से इंतज़ार करने लगी.
मुझसे भी ज़्यादा बेसब्री शायद अतुल को हो रही थी. प्रशिक्षण का सब विस्तृत ब्योरा देकर उन्होंने बड़े ही अच्छे मूड में अपने प्रमोशन की संभावना व्यक्त की. “बॉस मुझसे बहुत ख़ुश हैं. क्यों न हम एक पार्टी आयोजित कर उन्हें और ख़ुश कर दें? मैंने तो इस बार उनके लिए शैंपेन खोलने की सोची है. ड्रिंक्स, स्नैक्स, कार्ड्स, डांस, डिनर वगैरह… क्यों, तुम्हारा क्या ख़्याल है?”
“मेरा ख़्याल कुछ अलग है अतुल! स्नैक्स, डांस और डिनर तक तो ठीक है, लेकिन यह ड्रिंक्स, कार्ड्स, स्मोकिंग वगैरह अब हमें बंद कर देने चाहिए.” मैं गंभीर हो उठी थी.
“क्यों? क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?”
“मैं ठीक हूं अतुल! समस्या मेरी नहीं, बच्चों की है. घर में बड़े हो रहे बच्चों के सामने अब यह शराब-सिगरेट पीना, जुआ खेलना मुझे ठीक नहीं लगता.” मैंने उन्हें उनकी अनुपस्थिति में हुए घटनाक्रम का ब्योरा सुना दिया.
“यह तो बहुत छोटी-सी बात है डार्लिंग! तुम बेकार ही इतना सीरियस हो रही हो. हमारे बच्चे समझदार हैं. देखो, कितनी समझदारी से उन्होंने अपनी ग़लती मान ली और वक़्त पर अपनी ज़िम्मेदारी भी संभाल ली.”
“वे भविष्य में भी ऐसे ही समझदार और ज़िम्मेदार बने रहें, इसके लिए हमें भी तो अपनी ज़िम्मेदारी समझदारी से निभानी होगी. आए दिन घर में शराब-जुए की पार्टी करके हम उनके सामने कौन-सा आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं?”

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“लेकिन ये पार्टीज़ हमारी सोसायटी का एक अहम् हिस्सा हैं.”
“बच्चे हमारी ज़िंदगी का सबसे अहम् हिस्सा हैं. सोसायटी से कटकर ज़िंदगी जी जा सकती है, पर ज़िंदगी का अहम् हिस्सा ही कट गया तो…”
“तुम बेकार की ज़िद ले बैठी हो. बच्चों को बिगड़ना होगा, तो वे वैसे ही बिगड़ जाएंगे. क्या दुनिया में जितने भी अपराधी हुए हैं, उनके लिए उनके माता-पिता कसूरवार थे? बगावत और बुरी आदतों का झोंका कभी भी कहीं से भी आ सकता है.”
“पर हमें तो अपनी ओर से ज़्यादा से ज़्यादा खिड़कियां बंद रखने का प्रयास करना चाहिए. आंधी आती है, तो हम क्या दरवाज़ा खोलकर उसका स्वागत करते हैं? यह जानते हुए भी कि वह पूरे घर में अपनी बर्बादी के निशान छोड़ जाएगी. हम सारे खिड़की-दरवाज़े बंद कर परदे खींचकर उसे रोकने का प्रयास तो करते ही हैं, ताकि वह बर्बादी के चिह्न कम से कम छोड़े और उसके चले जाने के बाद उसके छोड़े चिह्नों यानी धूल-मिट्टी को साफ़ भी करते हैं. इंसान को तो वो सब कुछ करना ही चाहिए ना, जो उसके बस में है और वह कर सकता है. जवानी की आंधी को रोकना हमारे बस में नहीं है, पर उससे अपने घर को, समाज को ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षित रखना तो हमारे बस में है.”
मैं नहीं जानती अतुल मेरी बातों से कितना सहमत हुए थे? हुए भी थे या नहीं? क्योंकि दो दिनों तक हमारे बीच मौन पसरा रहा.
तीसरे दिन मैं किसी पुस्तक में खोई थी कि बाहर ठक-ठक की आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई. बाहर आकर देखा अतुल एक कारपेंटर से खिड़की-दरवाज़ों की दरारें ठीक करवा रहे थे.
“काली-पीली आंधी आती है, तो पूरा घर धूल-मिट्टी से भर जाता है.” वे कह रहे थे.
“साहब, थोड़ी धूल तो फिर भी कहीं न कहीं से आ ही जाएगी.”
“कोई बात नहीं, मगर अपनी तरफ़ से कोई कसर न रखना. सारी दरारें पाट दो.”
कारपेंटर काम में जुट गया, तो मैं भी अनमनी- सी लौट पड़ी. अतुल को शराब और सिगरेट के सारे पैकेट घर से बाहर ले जाते देख मैं चौंक उठी.
“यह क्या?”
“आंधी धूल भरी हो या जवानी के जोश से भरी… उससे नुक़सान कम से कम हो, इसकी रोकथाम के उपाय कर रहा हूं.”

      – संगीता माथुर


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