क्या मांएं एक ही मिट्टी की बनी होती हैं? क्या हर मां एक जैसा ही सोचती है? आज जब हर बात अपने पर बीत रही है, तो मां को समझना कितना आसान होता जा है, पर सालों लगते हैं इसमें.
संडे था, सुबह के नौ बजे थे. मैं मां से फोन पर बातें कर रही थी. रात को उन्हें बुख़ार था. मैं कह रही थी, “वहां ठंड बहुत होगी, ठंडे पानी में हाथ मत डालना, काकी को कहना वे सब काम ठीक से कर जाएंगी, दवाई टाइम से ले लेना.”
और भी बहुत सारी बातें करके मैंने फोन रख दिया. रिया सोकर उठी ही थी, बोली, “नानी से तो आपने रात में सोते हुए भी बात की थी, अब फिर.
आजकल आप बहुत बात करती हो नानी से, पहले तो इतने फोन नहीं करती थीं आप!”
“हां, आजकल बहुत करती हूं.”
“क्यों मां?”
“पता नहीं, आजकल बहुत मन करता है उनसे बात करने का.”
मैं नाश्ता बनाने किचन में चली गई, हाथ तो काम में व्यस्त हो ही गए थे, पर मन! मन तो वहीं रिया की बात पर अटक गया था कि आजकल आप बहुत फोन करती हो नानी को! ठीक ही तो कह रही है रिया, पहले तो दूसरे-तीसरे दिन कर पाती थी. अपने घर के कामों, व्यस्तताओं के बीच उनका हालचाल लेकर अपने जीवन में रमी हुई थी, पर अब घर भी वही है, काम भी वही है, व्यस्तताएं भी वही हैं, कुछ नहीं बदला है. वही दिनचर्या, पर प्रत्यक्षत: भले ही कुछ भी बदला हुआ न दिख रहा हो, पर मेरे मन के भीतर कहीं किसी कोने में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ है.
तीन महीने पहले जब पार्थ उच्च शिक्षा के लिए विदेश गया, तो उसके जाने के बाद जो मुझे एहसास हुआ, उसने मुझे पूरी तरह बदलकर रख दिया है. अब समझी हूं मैं मां के दिल की बातें. जब से पार्थ गया है, मुझे रात-दिन उसका ख़्याल रहता है. मेरा बेटा पहली बार तो गया है घर से बाहर, वो भी इतनी दूर कि मिलना कब होगा यह भी तय नहीं है. फोन पर ही तो टिका है सब. जब उसका फोन आता है, जी उठती हूं मैं. उसका चेहरा जैसे आंखों के आगे आ जाता है. कभी वो अधिक व्यस्त होता है, तो पूरा दिन फोन न करके सीधे रात को ही करता है, तो कैसा उदास, खाली-खाली-सा दिन बीतता है.
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एक छोटी-सी घड़ी भी ले आई हूं, जिसे पेरिस के उसके समय से मिलाकर रख दिया है. आते-जाते घड़ी देखती रहती हूं कि अब वहां इतने बजे हैं, अब वो सो रहा होगा, अब यह करेगा, अब वो करेगा… जैसे-जैसे इस मन:स्थिति से गुज़रती रही, मां की याद मन में पहले से कहीं ज़्यादा आकर हलचल मचाती रही. वे भी तो मेरे फोन का इसी तरह इंतज़ार कर रही होंगी? उन्हें भी तो मेरा फोन करना इतना ही अच्छा लगता होगा. वे दिल्ली में अकेली रहती हैं, मैं यहां मुंबई से उन्हें फोन करने में कुछ लापरवाही-सी क्यों करती रही, यह सोचकर थोड़ी ग्लानि होती है.
मैंने क्यों नहीं उन्हें ऐसे फोन रोज़ किए? आज पार्थ जब पूछता है कि खाने में क्या बनाया? आपकी किटी पार्टी कब है? आप कब सोकर उठीं? कितने बजे सोई थीं? सैर पर गई थीं? तबीयत कैसी है? आजकल क्या लिख रही हैं? कौन-सी बुक पढ़ी? आपकी फ्रेंड्स के क्या हाल हैं?… आदि तो मन ख़ुशी से भर उठता है. वो जब मेरी हर बात में रुचि दिखाता है, तो मुझे कितना अच्छा लगता है? मैंने भी पहले अपनी मां से ये सब क्यों नहीं पूछा? सच यही है न कि जब अपने पर बीतती है, तब पता चलता है. यह एक ही बात क्यों, मां की बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जो समय के साथ-साथ मुझे बहुत-कुछ समझाती चली गई हैं.
मुझसे पांच साल बड़े विनय भैया, जो घरेलू समस्याओं के चलते भाभी और बच्चों के साथ अलग रहते हैं. हम दोनों के ही विवाह से पहले जब हम झगड़ते थे, तब मां के समझाने पर हम दोनों ही अपना पक्ष रखते हुए मां की बातों से मुश्किल से ही सहमत होते थे. तब मां कितनी परेशान होती रही होंगी, यह भी अब समझ आया है. पार्थ और रिया जब-जब लड़े, मैंने अपना सिर पकड़ लिया. कई बार मैंने यह भी ग़ौर किया कि मेरे मुंह से भी वही बातें तो निकल रही थीं, जो मां मेरे और विनय भइया के झगड़े निपटाने के दौरान कहा करती थीं.
क्या मांएं एक ही मिट्टी की बनी होती हैं? क्या हर मां एक जैसा ही सोचती है? आज जब हर बात अपने पर बीत रही है, तो मां को समझना कितना आसान होता जा रहा है, पर सालों लगते हैं इसमें. पिताजी की असमय मृत्यु पर उन्होंने कितने दुख झेले होंगे समझती हूं. रिश्तेदारों से निभाने में कितने धैर्य की ज़रूरत होती है, अब समझ आया है.
उस समय कुछ रिश्तेदारों से मां ने पूरी तरह से संबंध तोड़ लिए थे. उस समय कम उम्र में मुझे मां की यह बात पसंद नहीं आई थी, पर अब ख़ुद अनचाहे, स्वार्थी, दिल को दुखी करनेवाले रिश्तों से मैंने स्वयं को दूर कर लिया है. अब समझ में आया है कि कुछ रिश्तों को अपने मन की शांति के लिए तोड़ने में ही भलाई होती है. यही तो विडंबना है कि हमें अपने माता-पिता के दुख-दर्द समझने में काफ़ी समय लग जाता है. समय के बीतने के बाद कुछ किया भी तो नहीं जा सकता न, पर अब जितना भी समय जिसके पास है, उसका एक-एक पल तो जिया जा सकता है!
अब तो मेरे फोन करने पर मां ही हैरान होकर कहती हैं, “अरे, अभी सुबह ही तो बात हुई थी तुमसे. दोपहर होते ही फिर मां की याद आ गई?” मैं भी लाड़ में कह देती हूं, “मां की याद आने का भी कोई टाइम होता है क्या?” वे हंस पड़ती हैं. कई बार पूछ चुकी हैं, “तुम्हें हुआ क्या है? पार्थ की बहुत याद आती है न?” मां हैं न, पा लेती हैं इस उम्र में भी मेरे मन की थाह.
मां जब अपनी फ्रेंड्स के साथ घूमने जाती हैं, कभी कोई तीर्थ या कभी कहीं और तब फोन पर जब मैं पूछती हूं, “मां, मज़ा आया फ्रेंड्स के साथ?” तो मां का जवाब हमेशा यही होता है, “हां, अच्छा तो लगा, पर जितना मज़ा अपने बच्चों के साथ समय बिताने में आता है, उतना किसी के साथ नहीं आता. कितनी भी सुंदर जगह चले जाओ, मन में विनय और तुम्हारी याद रहती है.” अभी तक तो मैंने इस बात को बहुत ही हल्के में लिया था कि ऐसे ही कह रही होंगी, पर अब मैं जब रजत और रिया के साथ कहीं जाती हूं, तो पार्थ मीलों दूर बैठा भी मेरे साथ-साथ होता है मेरे मन में, कि अभी साथ होता तो यह मांगता, यह ज़िद करता और पता नहीं क्या-क्या.
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आज मां की एक-एक बात कितनी सच लग रही है. कुछ सालों बाद रिया का विवाह होगा, पार्थ की गृहस्थी बसेगी, दोनों बच्चे अपनी-अपनी दुनिया में रम जाएंगे. फिर तो पता नहीं मां की क्या-क्या बातें और याद आएंगी, उनकी कौन-सी भावनाओं का मुझे भी एहसास होगा. लेकिन यह सच है कि आजकल मां की बहुत याद आती है. उनके जीवन की, उनकी बातों की गहराई तो काफ़ी समझ चुकी हूं, कितनी बाकी है देखते हैं.
पूनम अहमद
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