पूनम दी के हाथ में हाथ देकर अंचला जब घर से निकली तो लगा अचानक ही सारी व्यथाएं, सारे अपमान विश्राम पा सोने लगे हैं. आघातों की मार से विमुक्त हो हृदय बड़ी सहजता से धड़कने लगा था. भारमुक्त मस्तिष्क कल्पनाओं के धागे से जैसे एक सुरीला-सा स्वप्न बुनने को उत्सुक हो उठा था.
पर आकांक्षाओं की उन्मुक्त उड़ान को अंचला अपने आंचल से बांध लेना चाहती थी. कुछ पलों के लिए मिली आज़ादी को यदि आकांक्षाओं ने आदत बना ली, तो व्यथा तो दुगुनी हो जाएगी ना?
व्यथा जितनी थी, उतनी जीवन का अंग बन चुकी थी. दर्द थोड़ा बहुत कम हो जाए तो गिला नहीं, पर और अधिक दर्द बर्दाश्त करने के ख़्याल से भी सहम जाती अंचला. लेकिन आज ख़्यालों को नापने-तौलने की भी इच्छा नहीं हो रही थी अंचला की. आज हाथ पूनम दी के हाथ में जो था. हमेशा के लिए न सही, कुछ पलों के लिए ही सही, पर वो बेशुमार प्यार तो पा ही लेगी, फिर उस प्यार के सहारे जीवन बिताना शायद आसान हो जाए,
पूनम दी का प्यार पहली बार नहीं मिल रहा था अंचला को. प्यार तो पूनम दी ने हमेशा ही किया है उसे, पर आज पूनम दी पूर्ण आज़ादी के साथ उस प्यार को अभिव्यक्त करेंगी, आज पूनम दी और अंचला के बीच मामी की क्रूर नज़रों का पहरा नहीं होगा.
आज सुबह जब मामी ने आदेशात्मक लहजे में अंचला को यह ख़ुशख़बरी सुनाई कि शाम अंचला को पूनम दी के साथ उनके घर जाना है, तो अपने भाग्य पर जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था अंचला को. पूनम दी वचन की पक्की हैं, जो कहती हैं, करके दिखाती हैं.
कुछ ही रोज़ पहले पूनम दी ने फोन किया था, “गुड़िया, तू आएगी मेरे घर दो दिन के लिए.” लाड से भरा पूनम दी का स्नेहलिप्त स्वर अंचला के हृदय को गुदगुदा गया था.
जवाब के लिए शब्द नहीं थे. जब पूनम दी प्यार से गुड़िया कहकर बुलाती हैं, तब सिर से पांव तक सिहर जाती है अंचला. शब्द मुंह से फूट ही नहीं पाए, क्योंकि पास ही खड़ी मामी टकटकी बांधे अंचला के हाव-भाव से यह अंदेशा लगाने का प्रयास कर रही थी कि आख़िर दोनों के बीच क्या बातचीत हो रही है.
“मैं जानती हूं, चंद्रा पास ही खड़ी होगी. पर ‘हां’ या ‘ना’ में तो जवाब दे सकती हो ना?” पूनम दी ने बड़ी चालाकी से पूछा था.
“जी…” धीमा-सा, सहमा-सा अंचला का स्वर था.
“दो दिन के लिए मेरे घर आओगी? तुम स्वीकृति दो, तो मैं चंद्रा से पूछ लूं.”
“जी…” पुनः वही भय के अधीन बंधे स्वर जैसे बड़ी कठिनाई से मुंह से फूटा था.
“चंद्रा को फोन दो… ” पूनम दी ने आदेशात्मक लहजे में कहा तो मामी के हाथ में फोन देकर अंचला कमरे से बाहर चली गई.
उस दिन के बाद हर दिन, हर पल अंचला पूनम दी का इंतज़ार करती रहती. और… आज सुबह जब मामी ने उसे पूनम दी के घर जाने की इजाज़त दी, तब बड़ी मुश्किल से अपने चेहरे के भाव को उल्लास के रंग में रंगने से बचाया था अंचला ने. जाने जीवन के और कितने दिन मामी के साथ बिताने हैं. यदि मामी को ज़रा सा भी अंदेशा हो गया कि अंचला पूनम दी के प्रति आकर्षित है, तो उनके अन्याय दुगुने हो सकते हैं.
पूनम दी के साथ उनके टू व्हीलर पर बैठते ही पूनम दी के कोमलकांत सौंदर्य के बिल्कुल नज़दीक होने का एहसास अंचला को भाव-विभोर करने लगा. उनके सफ़ेद कंधे पर हाथ रखते ही जैसे स्नेह की एक रसीली धार पूनम दी के शरीर से फूटकर अंचला की आत्मा को भिगोने लगी.
अंचला का जी चाह रहा था कि पूनम दी की पीठ पर सिर टिकाकर सिसक-सिसककर रो पड़े. पर अपने पर नियंत्रण करना सीख चुकी थी अंचला. यह बात अलग है कि वो पलकों को गीला होने से नहीं बचा सकी.
“चंद्रा नाराज़ तो नहीं कि तुम मेरे साथ आ रही हो?” अचानक पूनम दी ने सिर पीछे घुमाते हुए पूछा.
“पता नहीं, कुछ कहा तो नहीं उन्होंने.” सफ़ेद झूठ बोल गई अंचला. मामी नाखुश तो थी, पर यह बात पूनम दी को बताकर अंचला उनका मूड ख़राब नहीं करना चाहती थी.
मामी इस संसार में यदि किसी की बात मानती है, तो सिर्फ़ पूनम दी की. ऐसा नहीं है कि मामी पूनम दी से डरती है, पर पूनम दी से बढ़कर मामी की और कोई सखी नहीं.
पूनम दी मामी की सखी होने के बाद भी इतनी छोटी-सी लगती है कि पहली बार ही अंचला के मुंह से उनके लिए ‘दीदी’ का संबोधन निकल गया. हृदय से निकले इस संबोधन ने अंचला और पूनम दी के बीच एक गहन आत्मिक रिश्ता जोड़ दिया. मामी को यह संबोधन रास नहीं आया था. बिफरती हुई बोली थी, “आंटी कहकर बुलाया कर उसे. मुझसे सात महीने बड़ी है वो. दीदी कैसे बन गई?” नारी सुलभ ईर्ष्या भाव से दहकने लगा था मामी का चेहरा.
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पर अंचला ख़ुश थी. पूनम दी ने पहली मुलाक़ात से ही उसके घावों पर चंदन लेप रखना शुरू कर दिया था. अंचला मामी के पास प्रताड़ित हो रही है, यह बात किसी ने बताई नहीं थी पूनम दी से. शायद अंचला का उदास चेहरा, बात करते वक़्त भयाक्रांत हो उठते भाव, सहमी सहमी सी नज़र किसी और सबूत की आवश्यकता ही न छोड़ती. मामी के व्यंग्य बाण छोड़ते रहने की आदत से न मामा मुक्त थे, न अजय भैया, फिर अंचला किस खेत की मूली थी?
जब से मां का आंचल छूटा, तब से अनाथ अंचला मामी के पास एक गुलाम-सी ज़िंदगी जी रही है. मामी के घर का सारा काम उसे ही करना पड़ता है. उसके दो जोड़े सलवार सूट रंगहीन तो हो ही गए थे, अब एक-दो जगह से फटने भी लगे हैं. उन कपड़ों में घर से बाहर निकलने में बेहद झिझक होती है अंचला को. यौवन की दहलीज़ पर खड़ी अंचला को किसी की नज़र में अपने लिए स्नेह व सम्मान देखने की आकांक्षा है. व्यंग्य, वासना या तिरस्कार नहीं. अस्त-व्यस्त कपड़ों वाली अंचला पर जब कोई व्यंग्य कसता है, तो वह बर्दाश्त नहीं कर पाती.
अंचला सुंदर तो है, पर उसका बैरोनक़, फटा पहनावा कभी उसे हंसी का पात्र बना देता है तो कभी रहम का. अंचला को इंसानों की इस फ़ितरत पर रोना आता कि वे सौंदर्य को आवरण में तलाशते हैं, अंचला का सुंदर मन, स्नेहिल भावनाएं, उसके सीधे-सादे पहनावे के अंदर दफ़न होने लगे थे.
अंचला को इस मजबूरी से मुक्ति दिलाने वाली पूनम ही तो थी. एक बार जब उन्होंने अंचला को बेरौनक़ कपड़ों में आटा चक्की पर देखा, तो घर आकर बरस पड़ीं मामी पर, “चंद्रा तुम भी कमाल करती हो. इसे आटा पिसवाने भेज दिया. जानती हो ना, चक्की के बगल वाली पान की दुकान पर कितने लोफर लड़के खड़े रहते हैं. उन लड़कों की वजह से हम जैसी औरतों को भी वहां से गुज़रते हुए झिझक होती है. फिर, यह तो जवान लड़की है. चंद्रा, तुम इससे बाहर का काम मत करवाया करो. लोग तो तुम्हें बुरा कहेंगे ही और ऐसी हालत में यदि वो रास्ते में भटकती फिरेगी तो उसके लिए कोई अच्छा रिश्ता कैसे आएगा?” मामी चुपचाप पूनम दी की बातें सुनती रही थी.
“चंद्रा, अंचला बेचारी भले ही असहाय हो. पर उसे ईश्वर ने इतना सुंदर बनाया है कि अभावों के बावजूद भी आकर्षक लगती है वो, देख लेना कोई अच्छा-सा लड़का ज़रूर इसके सौंदर्य पर रीझकर इससे विवाह का प्रस्ताव लेकर तुम्हारे पास आएगा.”
पूनम दी ने इतने अधिकार से सब कुछ कहा था कि मामी को उनकी बात माननी पड़ी, पर मामी के चेहरे से साफ़ ज़ाहिर था कि उन्हें पूनम दी की यह दख़लअंदाज़ी रास नहीं आई थी. इस घटना के बाद उन्होंने अंचला से बाहर का काम लेना बंद कर दिया था. साथ ही थोड़ी-सी सचेत भी हो गई थी कि अंचला पूनम दी के अधिक क़रीब न हो.
जब भी पूनम दी आतीं, मामी अंचला को घर के किसी ऐसे काम में उलझा देती कि वह पूनम दी के पास आ ही न पाती. पर पूनम दी को अंचला से इतना अधिक लगाव हो गया था कि वो जाने से पहले किसी न किसी बहाने अंचला से मिल ही लेतीं. अंचला के माथे पर हाथ फेरते हुए उसे प्यार करनेवाली पूनम दी की आंखों में इतना वात्सल्य नज़र आता अंचला को कि उसकी इच्छा होती कि वो पूनम दी को ‘मां’ कहकर बुला ले.
पूनम दी के स्नेह को याद कर भाव-विभोर होनेवाली अंचला का हाथ अंजाने ही पूनम दी के कंधे पर रेंगने लगा.
“क्या हुआ?” मुस्कुराते हुए पूनम दी ने पूछा तो झेंप गई
अंचला.
“वो देखो, वो रहा मेरा घर. गुलाबी पेंट वाला.” अपने घर की तरफ़ इशारा किया पूनम दी ने तो अंचला के दिल की धड़कनें तेज़ हो गई. जाने कैसे होंगे पूनम दी के पति, काश कि वो घर पर न होते, तो पूनम दी के साथ अकेले रहने में मज़ा आ जाता.
पर जैसा अंचला ने चाहा था, वैसा हुआ नहीं. पूनम दी के पति घर पर ही थे. घर पहुंचते ही पूनम दी ने अंचला को पहले पूरा घर दिखाया. दो व्यक्तियों के लायक छोटा, प्यारा-सा घर, बस… बच्चों की कमी महसूस हो रही थी. काश… पूनम दी की गोद हरी होती. कितनी ममतामयी हैं पूनम दी, पर वात्सल्य लुटाने के लिए बच्चों का अभाव है उन्हें यहां. सोचते-सोचते अंचला की आंखें नम हो आई.
रात पूनम दी के घर शानदार दावत का आयोजन था, अंचला के आने की ख़ुशी में. सारा भोजन पूनम दी के नौकर ने बनाया था, बाहर का कोई भी नहीं था. बस पूनम दी, उनके पति और अंचला,
“पूनम से तुम्हारे बारे में इतना सुन चुका हूं कि तुम मुझे अजनबी बिल्कुल नहीं लग रही हो.” खाने के मेज पर पूनम दी के पति ने कहा, तो पूनम दी के आत्मीयता के एहसास से चमक उठा अंचला का चेहरा.
मामी तो अपनी थी, बेहद अपनी, पर अपनेपन का एहसास रत्ती भर भी न था उनमें. पूनम दी, वो तो पराई थीं, फिर भी… नहीं.. नहीं…” यह अंचला के अंतर्मन की आवाज़ थी, पूनम दी को पराया कहना उचित नहीं, वो तो अपनों से भी बढ़कर अपनी थीं, यदि अंचला कहे कि पूरे संसार में पूनम दी से बढ़कर उसका अपना कोई नहीं, तो यही सबसे बड़ा सच होगा. “तुम पढ़ क्यों नहीं रही हो?” अचानक पूनम वी के पति पूछ बैठे. पर जवाब अंचला को नहीं देना पड़ा. पूनम दी ही बोल पड़ीं,
“पढ़े कैसे? चंद्रा इसे पढ़ाना ही नहीं चाहती.”
“अंचला, मेरे और पूनम के लिए तुम भार नहीं होगी. यदि तुम चाहो तो हम तुम्हारी मामी से तुम्हें मांग लें.”
“जी…” चौंक गई अंचला.
“मांग तो सकते हैं.” प्रफुल्लित होती हुई पूनम दी बोलीं, “पर चंद्रा देगी नहीं, वो अंचला को बार-बार यह एहसास दिलाती रहती है कि अंचला उस पर भार है, पर सच तो यह है कि अंचला के रूप में एक बगैर वेतन की नौकरानी पाकर वो ख़ुश है.”
“कितनी बुरी होती है कुछ लोगों की सोच.” अफ़सोस जताते हुए पूनम दी के पति ने कहा, “पूनम, तुम अपनी सखी को समझाती क्यों नहीं? वो भले ही घर का पूरा काम अंचला से कराए, पर उसे पढ़ाए-लिखाए भी तो. यदि कॉलेज नहीं भेजना चाहती, तो कम से कम सिलाई-कढ़ाई, पेंटिग्स, टाइपिंग कुछ तो सिखा दें, ताकि अंचला भी अपने पैरों पर खड़ी हो सके.”
“नहीं.. चंद्रा से कुछ कहकर फ़ायदा नहीं, मुझे इस बच्ची से बहुत लगाव है, पता नहीं किस जन्म का रिश्ता है इसके साथ कि मैं इसके लिए एक तड़प-सी महसूस करती हूं.” कहते-कहते पूनम दी का स्वर भर्रा उठा था, “मैंने तय कर लिया है कि मैं ही अंचला के लिए एक सुयोग्य वर तलाश करूंगी, एक ऐसा वर जो आर्थिक रूप से सुदृढ तो हो ही, साथ ही अंचला से बगैर दहेज़ के ब्याह भी करे और उस वक़्त मैं चंद्रा से कन्यादान का हक़ भी मांग लूंगी, क्यों जी, तुम करोगे ना अंचला का कन्यादान?”
पूनम दी के पति डाइनिंग टेबल से उठ चुके थे. अंचला पूनम दी के प्रेम की पराकाष्ठा पर चकित थी. पूनम दी ने अंचला के हाथों पर अपना हाथ रखते हुए कहा, “अंचला, यह मेरा वायदा है.”
खाना खाने के बाद थोड़ा-सा टहलने के उद्देश्य से सभी छत पर चले गए. घुप अंधकार था छत पर, अंचला पूनम दी और उनके पति से दूर छत के दूसरे कोने पर जा खड़ी हुई. पूनम दी द्वारा किया गया वायदा अंचला को विवश करने लगा कि वह अपनी कल्पनाओं को थोड़ी-सी ढील देकर उड़ने का अवसर प्रदान करे. अंचला को लग रहा था कि अब सपनों में खो जाने से वह अपने आपको नहीं रोक पाएगी. पूनम दी ने अंचला के हाथों में हाथ रखकर उसे एक सुखद ज़िंदगी देने का वचन दिया है. मां बनकर वो अंचला का कन्यादान करना चाहती है, क्या कभी चुका पाएगी अंचला इस एहसान की क़ीमत. शायद नहीं… पर आजीवन पूनम दी को अपने हृदय में बसाए रखेगी. ईश्वर के बाद निश्चित ही पूनम दी ही सब कुछ है अंचला के लिए और रहेगी भी.
अंचला के लिए इस तरह चिंतित रहने वाला और कोई भी तो नहीं. मामी तो बस नाम की मामी है, संवेदना तो उन्हें छूकर भी नहीं गुज़रती. कुछ रोज़ पहले जब उन्होंने मामा से शांताराम और अंचला की शादी की बात की थी, तब क्रोध और नफ़रतं से भर आया था अंचला का मन.
मामा के घर के बिल्कुल पीछे रहने वाला विक्षिप्त-सा शांताराम… उसकी याद आते ही अंचला के तन-मन में एक कड़वाहट-सी भर गई. जब भी अंचला अपने घर की छत पर किसी काम से जाती तो शांताराम अजीब-अजीब सी हरकतें करते हुए अंचला को रिझाने का प्रयास करता.
अर्धविक्षिप्त होने के बाद भी उसके नयनों में चमकते वासनात्मक भाव देखकर दंग रह जाती अंचला. जब भी अंचला अपनी हिकारत भरी नज़र उस पर डालती, वो होंठों पर जीभ फेरते हुए अपनी गंदी, हवसी मनोवृत्ति को अभिव्यक्त कर देता और तब तहस-नहस हो जाती अंचला, अपमान की मार से आत्मा घायल हो जाती. खीझ कर थूक देती अंचला शांताराम के सामने, पर उस पागल की उदंड हरकतों में कोई अंतर न आता.
शर्म और मानसिक व्यथा से भरकर अंचला ने एक बार मामी से शिकायत भी कर दी थी. तब मामी उल्टे अंचला पर ही बरस पड़ी, “वो तो पागल है. तू क्यों देखती रहती है उसकी तरफ़? तू देखेगी नहीं, तो वो ऐसी हरकतें करेगा क्यों?”
“मैं उसे नहीं देखती मामी…” अंचला ने स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया तो मामी की आवाज़ तेज़ हो गई थी,
“नहीं देखती तो पता कैसे चलता है कि वो कैसी हरकतें करता है?”
फिर मामा की बातें भी याद आ गईं.
अंचला का बुझा-सा चेहरा विकल कर देता था उन्हें. मामी की अनुपस्थिति में वो अंचला को सीने से लगा लिया करते थे. हर बार भर्राए स्वर में यही कहते, “बेटी तुम्हारा आज तुम्हारे जीवन की सच्चाई नहीं है. देख लेना, तुम्हारा कल ख़ुशियों से भरा होगा. एक दिन एक सुंदर-सा युवक आएगा और तुम्हें अपनी दुल्हन बनाकर ले जाएगा, ऐसा ज़रूर होगा बेटी, यह मेरा आशीर्वाद है.”
“अंचला चलो… तुम्हें नींद आ रही होगी.” पूनम दी ने हाथ थामते हुए कहा, तो एक स्वच्छंद मुस्कान हृदय के अंतर से निकलकर अंचला के चेहरे पर पसर गई.
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रात पूनम दी ने अपने पास सुलाया अंचला को. पूनम दी के पति दूसरे कमरे में सोने चले गए थे. नई जगह होने के बावजूद तत्काल ही नींद के आगोश में चली गई थी अंचला, पर अचानक अपने शरीर पर रेंगते हाथ के स्पर्श से अंचला चौक कर जग गई, देखा तो स्तब्ध रह गई. लगा, अब सांस रुक जाएगी. पूनम दी के पति बिस्तर के पास खड़े अंचला को अपलक घूर रहे थे. अंचला ने सहमी-सहमी दृष्टि पूनम दी की तरफ़ डाली. पूनम दी अपनी एक बांह अंचला के गले में डाले बड़ी निश्चिंतता से सो रही थीं, मद्धिम रोशनी में भी उस कामांध पुरुष की वहशी आंखों के वासनात्मक डोरे बड़ी स्पष्टता से नज़र आ रहे थे अंचला को.
वो पुरुष जिससे कुछ पल पहले पूनम दी यह उम्मीद कर रही थीं कि वो अंचला का कन्यादान करे, वही पुरुष अब उसे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहता था. पहले तो उसने होंठों पर उंगली रखकर अंचला को चुप रहने का निर्देश दिया, फिर धीरे से अपनी बांहों को अंचला की ओर पसार दिया, एक वासनात्मक रिश्ते के लिए मौन निमंत्रण देता.
पल भर के लिए अपने दुर्भाग्य पर ठगी-सी रह गई अंचला और अगले ही क्षण एक हल्की सी चीख निकल गई उसके मुख से..
उसने बेसुध सो रही पूनम दी से अपने को चिपका लिया, वो राक्षस अंचला की प्रतिक्रिया को देख तेजी से अपने कमरे में चला गया.
घृणा से भर उठा अंचला का मन, अब इस घर में दो दिन रह पाना संभव नहीं था उसके लिए. अचानक उसे अपने ही उस सीमित दायरेवाली ज़िंदगी में लौट जाने की जल्दी होने लगी, जहां मानसिक प्रताड़ना पाने के बावजूद वो सुरक्षित थी.
पूनम दी को सच बताकर आहत करना अंचला के बस में नहीं था. सुबह अंचला के लौट जाने की बात पर खफ़ा हो गईं पूनम दी. अंचला ने उन्हें मनाने का प्रयास करते हुए कहा, “मामी पर काम का बोझ बढ़ जाएगा, पिछले कई महीनों से मैं ही सारा काम संभाल रही हूं. मेरे न रहने से उन्हें तकलीफ हो रही होगी. मुझे जाना चाहिए.”
“पगली… कितनी कोमल हृदय वाली है तू, मैं तुम्हें दो दिन के लिए चंद्रा की इजाज़त से ही तो लाई हूं, और यदि उसे तकलीफ़ हो रही होगी तो होने दो.”
“नहीं पूनम दी. प्लीज़… समझने की कोशिश कीजिए. अगर मामी को ज़्यादा तकलीफ़ हुई तो वो मेरे साथ और बुरा सुलूक करने लगेगी.” अंचला लगभग गिड़गिड़ाती हुई बोली, “यदि मामी को ज़्यादा तकलीफ़ हुई तो वो मुझे फिर कभी आपके पास नहीं आने देगी.” पूनम दी असमंजस की स्थिति में तो थी, पर अंचला की पीड़ा का आभास हो रहा था उन्हें, इसलिए उन्हें अंचला की बात माननी पड़ी.
मामी अंचला को वापस लौटे देखकर प्रफुल्लित हो उठी. कपड़े बदलकर अंचला ने बालों में तेल चुपड़ लिया. आंगन में पड़े बर्तनों को देखकर आज उसका मन व्यथित नहीं हुआ. अंचला तेज़ी से गृहकार्य में जुट गई.
पिछवाड़े अर्थविक्षिप्त शांताराम ने अपनी हरकतें फिर से शुरू कर दी थीं, पर आज अंचला को उससे भय नहीं लगा. उसके हाथ अंचला के शरीर से काफ़ी दूर थे, शांताराम और मामा के घर के बीच एक मज़बूत दीवार थी, जिस पर मामा ने कुछ कांच के टुकड़े लगवा दिए थे, शांताराम के लिए अंचला को छू पाना भी संभव नहीं था.
जब वासनात्मक हाथ शरीर को छूता है, तब की पीड़ा से कितनी छोटी है यह पीड़ा जो उसे शांताराम के कृत्य से हुआ करती है. अनायास ही अंचला की सोच भविष्य की ओर मुड़ गई. एक सुखद जीवन का स्वप्न हादसों के बावजूद हृदय में जीवित था, मामा का आशीर्वचन याद आने लगा.
“देख लेना, तुम्हारा कल ख़ुशियों से भरा होगा. एक दिन एक सुंदर सा युवक आएगा और तुम्हें अपनी दुल्हन बनाकर ले जाएगा. तब यह दुख तुम्हें बेमानी से लगने लगेंगे…”
– निर्मला सुरेन्द्रन
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