लघुकथा- बेज़ुबान (Short Story- Bejuban)

“अब आपकी उम्र पढ़ने की नहीं भगवान में ध्यान लगाने की है. भजन-कीर्तन में अपना मन लगाया कीजिए.” अजय के कठोर स्वर ने उसके पिताजी को ख़ामोश कर दिया.
उन दोनों की बातें दिवाकरजी के कानों में पड़ रही थीं. आज उन्हें अजय की संवेदनशीलता का दूसरा रूप भी दिखाई दे रहा था.

दिवाकरजी अपने रिश्तेदार के घर से बाहर निकले, तो उन्होंने सोचा, समीप ही तो अजय का घर है थोड़ी देर के लिए उससे भी मिल लेते हैं. दिवाकरजी बैंक में मैनेजर हैं और अजय उसी बैंक में एकाउंटेंट. अजय बहुत मेहनती, विनम्र और सहृदय है, इसलिए बैंक में सभी उसे बहुत पसंद करते हैं. दिवाकरजी को देख अजय बहुत प्रसन्न हुआ. उसकी पत्नी झट से चाय और गरम समोसे ले आई. चाय पीते हुए दिवाकरजी बोले, “तुम्हारे दोनों कुत्ते दिखाई नहीं दे रहे.”
“प्लीज़ सर, उन्हें कुत्ता मत कहिए. उन दोनों के नाम बिट्टू और बंटी हैं. वे दोनों हमारे घर के सदस्य हैं.” “ओह, आई एम सॉरी. किंतु वे दोनों हैं कहां?”
“हमारे बेटे राजू के साथ दोनों पार्क में खेलने गए हैं और अब हमारे घर एक और नया सदस्य आ गया है. वह देखिए, “अजय की पत्नी ने बालकनी के कोने की तरफ़ इशारा किया. दिवाकरजी ने एक छोटी-सी गद्दी पर एक पप्पी को लेटे देखा. उसकी टांग पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था.
“अरे, इसे क्या हुआ?” दिवाकरजी ने पूछा.
अजय बोला, “सर, कल सुबह बैंक जाने के लिए घर से निकला, तो सामने से आती एक कार ने इस पप्पी को टक्कर मार दी कार वाला तो भाग गया, किंतु मुझसे इसका तड़पना देखा नहीं गया. मैं तुरंत इसे हॉस्पिटल ले गया. इसकी टांग में फ्रैक्चर था, इसलिए प्लास्टर चढ़वाना पड़ा. इसी वजह से कल बैंक से छुट्टी भी लेनी पड़ी.”
“फिर तुम इसे भी अपने घर ले आए?”
“क्या करता सर. दरअसल, मुझसे बेज़ुबान प्राणियों की पीड़ा देखी नहीं जाती.”
“तुम्हारी यह संवेदनशीलता बेहद प्रशंसनीय है.” दिवाकरजी ने अजय की पीठ थपथपाई और जाने के लिए उठ खड़े हुए.
अजय बोला, “सर, मैं भी आपके साथ चलता हूं. मुझे इसके लिए नॉनवेज ख़रीदना है.” तभी अंदर के कमरे से आवाज़ आई, “बेटा अजय, जरा इधर आना.”
“सर, मैं अभी आया,” कहते हुए अजय अंदर गया.
“बेटा, तुम मेरा चश्मा ले आए?”
“ओह पिताजी, आपको पता है मैं कितना व्यस्त रहता हूं. आख़िर चश्मे की इतनी जल्दी क्या है?” अजय झल्लाया.
“बेटा, सारा दिन अकेला बैठा क्या करूं? चश्मा होता है, तो पढ़कर समय काट लेता हूं.” अजय के पिताजी आर्द्र स्वर में बोले.

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“अब आपकी उम्र पढ़ने की नहीं भगवान में ध्यान लगाने की है. भजन-कीर्तन में अपना मन लगाया कीजिए.” अजय के कठोर स्वर ने उसके पिताजी को ख़ामोश कर दिया.
उन दोनों की बातें दिवाकरजी के कानों में पड़ रही थीं. आज उन्हें अजय की संवेदनशीलता का दूसरा रूप भी दिखाई दे रहा था. वह सोच रहे थे, ‘क्या सिर्फ़ जानवर ही बेज़ुबान होते हैं? बच्चों पर आश्रित वृद्ध मां-बाप भी तो बेज़ुबान ही होते हैं.

रेनू मंडल

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Usha Gupta

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