Short Stories

कहानी- बकेट लिस्ट (Short Story- Bucket List)

सरसरी नज़रों से कॉपी के पन्ने पलटती नीरा को कहीं कुछ अस्वाभाविक-सा लगा, तो उसके हाथ एक पल को थम गए और फिर विपरीत दिशा में पन्ने पलटने लगी. हर बार वास्तविक व्यय अनुमानित व्यय से अधिक? कुछ अनुमानित व्यय बरसों से सूची में बने हुए? पर उन पर कभी व्यय ही नहीं? और फिर यकायक वे व्यय सूची से एकदम विलुप्त हो गए?

रचित को देर रात की फ्लाइट से यूएस रवाना करने के बाद सवेरे नीरा की आंख देर से खुली. लंबा वीकेंड है, तो सारे पेंडिंग काम निबटा डालती हूं. सारे बिखरे कपड़े, बिस्तर आदि ठिकाने लगाने के बाद उसने अपने लिए कॉफी बनाई और लॉबी में आ बैठी. कॉफी की चुस्कियां भरते-भरते उसकी नज़रें टेबल के नीचे रखे कार्टन पर जा टिकीं.

“ओह! इसका भी तो निबटारा करना है. अभी पगफेरे के समय मायके से लौटते व़क्त वह अपनी बैंकिंग की सारी पुस्तकें इस कार्टन में समेट लाई थी. रचित को यूएस में बहुत अच्छी जॉब मिल जाने से वह शादी के कुछ समय बाद ही जॉइन करने चला गया था. हनीमून के तौर पर नीरा की ऑस्ट्रेलिया टूर की इच्छा भी उसने दिसंबर की छुट्टियों में पूरी करने का वादा किया था. नीरा भी बहुत जल्दी वहां नौकरी तलाश कर उसे जॉइन करनेवाली थी. इसके लिए उसे कुछ जॉब इंटरव्यू और परीक्षाएं आदि देनी थीं, जिनके लिए वह मायके से अपनी सारी किताबें समेट लाई थी. मम्मी ने टोका भी था, “जो चाहिए वे ही ले जा, बेकार क्यों बोझा घसीट रही है?”

“मम्मी, इतना समय कहां है अभी मेरे पास? रचित को रवाना करने के बाद फ्री टाइम में काम की किताबें छांटकर रख लूंगी, बाकी वहीं रद्दी में दे दूंगी.”

कॉफी का मग रखकर नीरा ने कार्टन खींच लिया था और एक-एक किताब निकालकर देखने लगी. “हूं, कुछ तो ये ही काम आ जाएंगी. बाकी नई ऑर्डर कर दूंगी. नोट्स से भी काफ़ी पॉइंट्स कवर हो जाएंगे… अरे, यह कॉपी कैसी है? पापा की बनाई लगती है.”

नीरा को याद आया. वह और उसका छोटा भाई नलिन जब अगली कक्षा में आ जाते थे, तो पापा उनसे पुरानी कॉपी-किताबों की रद्दी छंटवाते थे. उस समय कॉपियों के खाली बचे पेज वे उनसे फड़वाकर अलग करवा लेते थे. “इन सबको सिलकर तुम दोनों के लिए नई रफ कॉपियां बन जाएंगी.”

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“क्या पापा, अब मैं बड़ी क्लास में आ गई हूं. मैं नहीं लूंगी ऐसी कॉपी. सहेलियां मज़ाक बनाती हैं.”

“अरे! इसमें क्या हो गया? खाली पेज हैं. व्यर्थ क्यों इन्हें रद्दी में देना. कितने पेड़ कटते हैं, तब ये पृष्ठ बनते हैं. किफ़ायत और कंजूसी दो अलग-अलग चीजें हैं.” प्रतिष्ठित प्रशासनिक अधिकारी, लेकिन बेहद ईमानदार और सिद्धांतवादी पापा सादा जीवन और उच्च विचार में विश्‍वास रखते थे.

यादों के अलबम के पृष्ठ पलटती नीरा अनायास ही हाथ में थामी कॉपी के पृष्ठ पलटने लगी. यह तो पापा की हस्तलिपि लगती है. ओह! इसमें तो बरसों पुराने

हिसाब-किताब लिखे हैं. हर माह का अनुमानित व्यय औेर फिर उसके सामने वास्तविक व्यय का क्रमबद्ध विस्तृत ब्योरा. नीरा को हंसी आ गई. पापा भी न, इतना व्यस्त रहते हुए भी जाने कैसे-कैसे बेकार के कामों के लिए व़क्त निकाल लेते हैं. उसे भी तो हमेशा से कहते आ रहे हैं, विशेषकर जब से वह यहां मुंबई आकर नौकरी करने लगी है.

“बेटी, हिसाब-किताब लिखकर रखना बहुत अच्छी आदत है. माना तेरा बहुत बड़ा पैकेज है, पर उस हिसाब से महानगर के ख़र्चे भी तो बड़े हैं. अनुमानित व्यय और वास्तविक व्यय लिखती रहोगी, तो तुम्हें पता रहेगा कि कहां पैसा व्यर्थ ख़र्च हो रहा है और उस पर कैसे लगाम कसनी है? कहां निवेश करना है? कहां कटौती करनी है? बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है और अगर घड़े के पेंदे में मामूली-सा सुराख़ हो जाए, तो ऊपर से कितना ही पानी भरते रहो, एक न एक दिन उसे खाली होना ही है.” पापा समझाते रहते, लेकिन नीरा यह सोचकर कि उससे यह सब नहीं होनेवाला एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देती.

सरसरी नज़रों से कॉपी के पन्ने पलटती नीरा को कहीं कुछ अस्वाभाविक-सा लगा, तो उसके हाथ एक पल को थम गए और फिर विपरीत दिशा में पन्ने पलटने लगी. हर बार वास्तविक व्यय अनुमानित व्यय से अधिक. कुछ अनुमानित व्यय बरसों से सूची में बने हुए, पर उन पर कभी व्यय ही नहीं. और फिर यकायक वे व्यय सूची से एकदम विलुप्त हो गए? पहेली सुलझाने के लिए नीरा कॉपी में घुस-सी गई और थोड़ा-सा विश्‍लेषण करने पर ही कारण सामने आ गया. नीरा सिर थामकर बैठ गई. घूमने-फिरने और शॉपिंग की शौकीन नीरा लाड़ से अधिकार जताते हुए प्रतिवर्ष कम से कम एक बाहर की ट्रिप तो प्लान करवा ही लेती थी. विदेश यात्रा नहीं, तो अपने देश में ही कहीं… नीरा के पास हर तरह की आइटिनररी मौजूद रहती. नीरा के इसी जुनून के सौजन्य से पूरा परिवार स्पेन, पेरिस, दुबई, गोवा, कश्मीर आदि जगह घूम चुका था, लेकिन नीरा की बकेट लिस्ट में कुछ न कुछ जुड़ता ही जाता.

आधुनिक पोशाकों से नीरा की वॉर्डरोब भरी रहती, लेकिन फिर भी उसकी उंगलियां ऑनलाइन नई ड्रेस तलाशने को लालायित रहतीं. पापा को सॉफ्ट टारगेट मान नीरा हमेशा उन्हें ही मनाने का प्रयास करती.

“अभी डिस्काउंट के साथ कार्ड पर कैश बैक भी मिल रहा है. स्कूल फेयरवेल में ड्रेस काम आ जाएगी. मेरा बर्थडे गिफ़्ट भी हो जाएगा.” लेकिन बर्थडे आते-आते दूसरी फ़रमाइश तैयार हो जाती थी. सहमत न होते हुए भी लाडली इकलौती बिटिया का मन रखने के लिए पापा मान जाते थे. मम्मी थोड़ा सख्ती बरतनेे का प्रयास करतीं, तो पापा उन्हें भी मना लेते. “छोड़ो न नैना, कुछ सालों के शौक हैं. ससुराल चली जाएगी, कंधों पर ज़िम्मेदारी का बोझ बढ़ेगा, तो सब पीछे छूटता चला जाएगा. फिर हम करने की स्थिति में हैं.”

“आज हैं, पर कल सेवानिवृति के बाद का भी तो सोचिए. आप हैं भी इतने हार्ड ऑनेस्ट! हमारी ज़िम्मेदारियां सारी अभी ज्यों की त्यों हैं. दोनों बच्चों की पढ़ाई, शादियां, मकान बनाना…” मम्मी अपनी बकेट लिस्ट गिनाने लग जाती थीं.

अतीत को स्मरण करती नीरा थोड़ा असहज हो उठी थी. मन में एक अपराधबोध जन्म लेने लगा. पापा की नसीहतें रह-रहकर याद आ रही थीं.

“अभी तू अकेली जान है. इतना बड़ा पैकेज है. ज़्यादा से ज़्यादा सेव किया कर. भविष्य में तेरे ही काम आएगा.” पापा ने ही उसका पैसा उसके नाम से जगह-जगह निवेश कर दिया था. वह झुंझला जाती थी. “क्या पापा, सैलरी अकांउट में आते ही इधर-उधर ट्रांसफर हो जाती है.”

“फिर भी तेरे हाथ में ख़र्च करने को कितना बचा रहता है. रोज़ पार्टी, मूवी… इन सब पर अब थोड़ा अंकुश लगा बेटी!”

“क्या पापा, आप ही तो कहते हो, उम्र के शौक हैं, उम्र के साथ चले जाएंगे.” नीरा लाड़ से ठुनकने लगती.

“अच्छा सुन, हम लोग इधर एक छोटा-सा प्लॉट ख़रीद रहे हैं. तू कहे, तो तेरी सेविंग से उससे जुड़ता वैसा ही एक प्लॉट तेरे लिए भी ले लें. तुझे यहां बसना तो नहीं है, पर मात्र निवेश के तौर पर सौदा बुरा नहीं है. भविष्य में अच्छी क़ीमत पर बेचकर जहां हो, वहीं फ्लैट ख़रीद लेना.”

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“आप जैसा ठीक समझें.” नीरा ने उबासी लेते हुए सहमति दे दी थी.

सचमुच पापा नहीं देखते-संभालते, तो वह अपनी सारी कमाई घूमने, खाने, शॉपिंग आदि में ही उड़ा चुकी होती. वैसे उड़ा भी रही है.

गहन सोच में डूबी नीरा फिर से कॉपी के पृष्ठ पलटने लगी थी. पापा की बकेट लिस्ट से मां की चूड़ियां गायब होकर ‘नीरा के गहने’ नाम से नया मद जुड़ गया था. अप्रैल 2014 से… हूं, तब वह कॉलेज के अंतिम वर्ष में आ गई थी. मतलब तब से पापा-मम्मी ने उसकी शादी की तैयारियां आरंभ कर दी थीं. इसके बाद की वास्तविक व्यय सूची में नीरा की नथनी, चूड़ियां, बिछुए और सेट आदि जुड़ते चले गए, पर गायब हुई ‘नैना की चूड़ियां’ फिर कहीं नज़र नहीं आईं. इसी तरह

सालभर से बकेट लिस्ट में पड़ा पापा का गरम सूट दुबई ट्रिप की भेंट चढ़ गया था, तो क्या अपनी बकेट लिस्ट भरने के चक्कर में वह अनजाने ही पापा की बकेट लिस्ट खाली करती चली गई? वह इतनी ख़ुदगर्ज़ और नासमझ कैसे हो गई?

पापा-मम्मी को रचित के बारे में बताने के साथ ही उसने अपनी डेस्टिनेशन वेडिंग की आकांक्षा भी ख़ुशी-ख़ुशी जाहिर कर दी थी.

“पर बेटी, हमें इतना बड़ा सरकारी बंगला और अहाता मिला हुआ है. मेहमानों के लिए सर्किट हाउस, गेस्ट हाउस सब आसानी से मिल जाएगा. व्यर्थ हम इतना पैसा क्यूं बहाएं?” मम्मी ने तर्क किया था.

“मम्मी, शादी ज़िंदगी में एक बार होती है. फिर मैं फिल्मी तारिकाओं की तरह विदेश में शादी करने को नहीं कह रही हूं. अपनी सीमाएं पता हैं मुझे. जयपुर से आगे एक नया आइलैंड रिसॉर्ट बना है. ठहरिए! मैं आपको वहां की पिक्स दिखाती हूं.” बेहद उत्साह से नीरा मोबाइल खोलकर वहां की पिक्स दिखाने लगी. अपने उत्साह में उसने पापा-मम्मी के उतरे चेहरे भी नज़रअंदाज़ कर दिए थे, जिन्हें शायद छोटे भाई नलिन ने नोटिस कर लिया था.

“जगह तो बहुत शानदार है दीदी, पर इस पर लाखों ख़र्च करना मुझे बुद्धिमानी का सौदा नहीं लग रहा. इससे तो मेरे दोस्त के पापा के रिसॉर्ट में हम शादी कर सकते हैं. मेहमानों के लिए कमरे, हॉल के साथ-साथ ख़ूब खुला गार्डन स्पेस भी है. अपने घर से ज़्यादा दूर भी नहीं है. बाराती वहां रुक जाएंगे. बाकी अपने रिश्तदारों के लिए घर, सर्किट हाउस आदि के कमरे हो जाएंगे. क्यूं यह कैसा रहेगा?”

पापा-मम्मी को यह प्रस्ताव जहां अपने बजट से थोड़ा ऊपर, तो नीरा को अपने स्तर से थोड़ा नीचे लगा था. पर अंतत: इस पर सहमति बन गई थी.

नीरा को आज महसूस हो रहा था कि नलिन उससे पांच वर्ष छोटा होते हुए भी उससे कहीं अधिक समझदार, व्यवहारिक और ज़मीन से जुड़ा है. पूरी शादी में वह पापा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहा था. हर व़क्त उनके आस-पास बना रहता.पूरी शादी में हर काम के लिए नलिन की ही पुकार मच रही थी. ख़ुद वह भी तो अपने हर काम के लिए उसी पर निर्भर हो गई थी. “नलिन, मेहंदीवाली का क्या हुआ? पार्लर कौन ले जाएगा? मेरी ज्वेलरी व़क्त पर ले आना, मैचिंग सैंडल दिलवा ला…”

अभी-अभी सेकेंड इयर में आया नलिन अपनी उम्र से कितना अधिक परिपक्व और समझदार है. मम्मी-पापा कितना भरोसा करते हैं उस पर. कितने निर्भर हैं उस पर. हर बात में उसकी राय लेते हैं.

भाई की तारीफ़ करता मन अनजाने ही उससे ईर्ष्या पर उतर आया. ‘बेटा जो है… वह तो ठहरी बेटी. पराई अमानत!’

पर अगले ही क्षण अपनी तुच्छ सोच पर नीरा ख़ुद ही शर्मिंदा हो उठी. बेटा-बेटी के बीच सुई की नोंक बराबर भी भेदभाव न रखनेवाले अपने माता-पिता पर वह कैसा घृणित आक्षेप लगा रही है. भाई के बराबर, बल्कि उससे कुछ अधिक ही उससे अधिकार पानेवाली वह कैसी बेटी है, जो कर्तव्य निर्वहन की दौड़ में छोटे भाई से पिछड़ गई.

मोबाइल बजा, तो नीरा की चेतना लौटी. “लो शैतान को याद किया और शैतान हाज़िर! तुझे ही याद कर रही थी.”

“भला क्यों? अब क्या काम बाकी रह गया? ड्राईक्लीनर को आपके कपड़े दे आया हूं समय से ले भी आऊंगा… वैसे मैंने जीजू का समाचार जानने के लिए फोन किया था.”

नलिन के परिहास पर भी नीरा शर्मिंदा हो गई. रचित का समाचार देकर वह स्वर में बड़ी बहनवाला रौब और ज़िम्मेदारी ले आई.

“तूने इंटर्नशिप का फॉर्म भर दिया या नहीं? किसी अच्छी विदेशी यूनिवर्सिटी से करेगा, तो आगे जॉब के अच्छे अवसर मिलेंगे. रचित ने भी यूएस अपने मामा के पास रहकर इंटर्नशिप की थी और आज उसी कंपनी ने इतना अच्छा जॉब ऑफर दिया है.”

“जानता हूं दीदी, पर बहुत महंगा सौदा है. अभी तो शादी के लोन से उबरने में ही पापा-मम्मी को एक लंबा व़क्त लग जाएगा. मैं उन पर एक और लोन का बोझ नहीं डालना चाहता. मैं इंटर्नशिप यहीं से कर लूंगा.

पापा-मम्मी की तबीयत भी आजकल ठीक नहीं रहती. पास रहूंगा, तो उन्हें भी तसल्ली रहेगी और मुझे भी. जॉब की चिंता मत करना. आपका भाई इतना प्रतिभाशाली तो है कि जॉब उसके पास चलकर आएगी.”

“सो तो है. मुझ पर जो गया है. ऑल द बेस्ट!” फोन बंद करते हुए नीरा की आंखें छलछला उठी थीं. छोटे भाई के प्रति कुछ पल पहले जगा ईर्ष्या का भाव जाने कहां तिरोहित हो गया था. मन में रह गया था उसके प्रति ढेर सारा प्यार, सम्मान, अपनापन और इन सबसे ऊपर अपरिमित गर्व. वह कितनी भाग्यशाली है कि उसने इतने सुसंस्कृत परिवार में जन्म लिया.

पापा की कॉपी और अपनी पुस्तकें, नोट्स आदि समेटते नीरा मन ही मन कुछ महत्वपूर्ण निर्णय ले चुकी थी. फिर भी मन में कुछ संशय लिए उसने रचित को फोन लगाया और बहुत देर तक दिल की बातें शेयर करती रही.

“बस, यही सब बताने के लिए इतनी रात गए फोन किया था जान? मुझे बताए बिना भी तुम ये सब करतीं, तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं होती. मैं तब भी इतना ही प्रसन्न होता.”

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‘ओह! आई एम सॉरी. मैं तो भूल ही गई थी कि वहां इस समय इतनी रात होगी, पर सच कहूं, तुमसे बात कर मन बहुत हल्का हो गया है. मुझे अपनी पसंद पर गर्व है. और….और… मैं तुमसे पहले से भी ज़्यादा प्यार करने लगी हूं.” नीरा ने फोन पर ही ताबड़तोड़ चुंबनों की बौछार कर दी थी. फिर वह फुर्ती से उठकर अपनी नई बकेट लिस्ट तैयार करने लगी-

नलिन को यूएस रचित के पास इंटर्नशिप के लिए भेजना… प्रयास करना कि तब तक वह स्वयं भी वहां पहुंच जाए… अपना प्लॉट पापा के नाम कर उन्हें वहां जल्द निर्माण कार्य आरंभ करने के लिए तैयार करना…ऑस्ट्रेलिया टूर पर जाने की बजाय रचित की इच्छानुसार सर्दी की छुट्टियां उसके पैतृक गांव में उसके माता-पिता के संग व्यतीत करना…

 

       संगीता माथुर

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