कहानी- दीप-करंजी-फुलझड़ियां (Short Story- Deep-Karanji-Phuljhadiyan)



“मुझे ही शुरुआत करनी होगी, इसीलिए मैंने फोन पर सभी से बात की है. उन्हें बुलाया है अपने घर पर. इस दिवाली दीप-करंजी-फुलझड़ियां सब कुछ साझा मेरे घर पर होगा. और हां, दिवाली पर सास यहां आएगी न, फिर वे मेरे ही पास रहेंगी. मैंने तय कर लिया है और उन्हें अपना फ़ैसला भी सुना दिया है.”
“तुम्हारे पति क्या बोले तुम्हारा फ़ैसला सुनकर?”



“पिछले क़रीब दो वर्ष से घर में न जाने क्यों एक अजीब-सी चुप्पी पसरी है. यूं तो कोरोना ने ही सब की कमर तोड़ कर रखी है. न तो कोई सामाजिक गतिविधियां और न ही किसी से मेल-मिलाप.
पर महसूस होता है कि कहीं न कहीं मैं फ़ालतू में ही कोरोना को दोष दे रही हूं. यह मेल-मिलाप तो बरसों से ही धीरे-धीरे कम होता जा रहा था और अब तो जैसे नाम मात्र के ही रिश्ते रह गए हैं.
रिश्तों की बात करें, तो जैसे जंग लगी मशीन. जब भी छुओ जंग हाथ में लग जाता है और जब किसी से बात करो, तो मशीन से खड़-खच, खड़-खच आती आवाज़ की तरह एक-दूसरे से खिंचाव-सा बातों में महसूस होता है.
बरसों पुरानी सहेलियां हैं, तुम-हम स्नेहा. हम दोनों के बीच तो कोई खिंचाव नहीं आया अब तक. जब हम दोनों पड़ोसियों की तरह हैदराबाद में रहते थे तब भी पक्की सहेलियां थीं और अब मैं पिछले छह वर्षों से यहां बैंगलुरू आ गई हूं तब भी हम दोनों फोन पर ख़ूब बातें करते हैं. तुम भी मुझे जब तुम्हारा मन चाहे खरी-खोटी सुनाए बगैर नहीं रहती और मैं भी मौक़ा चूकती नहीं. फिर भी हम दोनों में एक लगाव-सा है.
यह भरोसा, यह प्रेम हमारे अपने रिश्तेदारों में क्यों खो सा जाता है?”‌ निहारिका ने स्नेहा से फोन पर अपना मन हल्का किया शायद आज वह कुछ ज़्यादा ही अपसेट थी.
“हम्म, बात तो तुम्हारी सही है निहारिका. मुझे स्वयं भी आश्चर्य होता है यही सोच-सोचकर कि कैसे मेरे भाई विवाहोपरांत इतने बदल गए? तुम्हें तो याद होगा जब मेरी मां अपने अंतिम क्षणों में थीं दोनों भाई मां को संभालने भी नहीं गए. तब मेरे पति ने मुझे ज़बर्दस्ती मां के पास भेजा और कहा, “तुम संभाल आओ कुछ दिन अपनी मां को.”
“मां ज़िंदा थीं, तब तो फिर भी उनके फोन आते थे कभी-कभार, पर उनके बाद तो बस पूछो ही मत.” स्नेहा का गला रुंध गया था.


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“यह तो अच्छा है कि हम दोनों सहेलियां एक-दूसरे पर भरोसा करती हैं और अपनी बातें एक-दूसरे से कह मन हल्का कर लेती हैं, वरना कितना अकेलापन है जीवन में.” निहारिका ने रुआंसे स्वर में कहा.     
यदि अपना बचपन याद करूं, तो सचमुच कई बार तो आंखें ही भर आती हैं. हम तीन भाई-बहन आपस में कितनी मौज-मस्ती किया करते थे. एक बार तो होली पर मेरे भाई के दोस्त हमारे घर आ पहुंचे और बोले, “क्यों न हम अपने मोहल्ले में रहनेवाले पड़ोसियों के टायटिल बनाएं.”
बड़ा भाई, उसके दोस्त और मैं साथ में बैठ गए और सारी रात हम टायटिल में फेर-बदल करते रहे और अंत में क़रीब चार बजे टायटिल फाइनल हुए.
फिर उन्होंने मुझे कहा, “चल अब काग़ज़ पर तू लिख सारे टायटिल.”
उस ज़माने में घर में लैपटॉप और प्रिंटर तो होते नहीं थे. मैंने बड़ी मेहनत से सभी के नाम के साथ उनके टायटिल काग़ज़ पर लिख दिए. कुल अट्ठाइस कॉपी तैयार की टायटिल की और होली की पहली रात जब होलिका दहन के बाद सब अपने-अपने घर जा कर सो गए और मोहल्ले के सभी घरों की बत्तियां बंद हो गईं, तब हम निकल पड़े टायटिल के लिफ़ाफ़ों के साथ.
वैसे भी हम तो उत्तर भारत से हैं, वहां तो इन दिनों ख़ूब ठंड पड़ती है. अक्सर सभी शाम ढलते ही घर को सब तरफ़ से माचिस की डिब्बी के समान बंद कर रजाइयों में दुबक जाते हैं.
हां, तो मैं कह रही थी जैसे ही बत्तियां बंद हुई हम तीनों ने टायटिल के पेपर्स अलग-अलग लिफ़ाफ़ों में डालकर हर एक घर में डाल दिए और स्वयं अपने घरों में चुपचाप आ कर सो गए.
सुबह रंगपंचमी के दिन जागे भी देर से. मोहल्ले में ख़ूब रौनक़ लगी हुई थी. हमारे पड़ोसी अंकल रंगे-पुते सिलसिला फिल्म का गीत है न- रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे… पर आंटी के हाथ में हाथ डाल नाच रहे थे.
तब हर त्योहार पर हिजड़े भी बख़्शीश लेने आया करते थे. वे भी अंकल-आंटी के साथ नाचने लगे, क्योंकि वे हिजड़े हर त्योहार पर आते थे, सो उनसे भी अपनापन था. सचमुच कितना रोमांचक था वह दृश्य और समय. हमारे बच्चे क्या जी पाएंगे ऐसे दिन कभी?


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जैसे ही मैं पुराने कपड़े पहन घर से बाहर निकली, होली की मस्ती में मस्त मेरे मित्रों ने घसीट कर मुझे गोद में उठाया और एक घर के सामने पानी की टंकी रखी होती थी (गायों के पानी पीने के लिए) उसमें ले जाकर पटक दिया. जब मैं बाहर निकलने की कोशिश करूं, तब वे मुझे फिर से उस टंकी में धकेल देते. तभी उन मित्रो में से एक बोली, “और बना टायटिल, मैं आदमखोर और तू क्या?..”
मैंने किसी भी तरह के टायटिल से बेख़बर होने का नाटक करते हुए कहा, “कैसे टायटिल? ये क्या कह रही है तू…”
“इसको पानी में डुबकी दे तो, ताकि इसकी याददाश्त लौट आए…”  दूसरी ने कहा और मुझे फिर से पानी में डुबकी दी.
“दरअसल, एक लड़की थी, जो बहुत ही लड़ाका स्वभाव की थी हमने उसका टायटिल नेम ‘आदमखोर’ रख दिया था…”
स्नेहा अपने बचपन की होली की घटना बताते हुए फोन पर ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाने लगी. उसने घटना इतने मज़ेदार लहज़े में सुनाई कि निहारिका भी हंसे बगैर न रह सकी.
“अच्छा चलो अब मैं रसोई में जाऊं मैंने आज खाने की तैयारी भी नहीं की है.” निहारिका ने उसे अपनी मसरूफ़ियत जताते हुए कहा.
“अरे, रुको पूरी बात तो सुनो. फिर जब शाम को सब नहा-धो लिए तब उस आदमखोर लड़की के माता-पिता हमारे घर शिकायत लेकर आए. मेरे पापा समझ गए थे कि सारी कारिस्तानी हमारी ही है, क्योंकि वह लड़की बार-बार कह रही थी कि अंकल हैंडराइटिंग चेक करिए स्नेहा की ही है. उस समय तो पापा ने उन्हें समझा-बुझा कर भेज दिया. किन्तु बाद में हम तीनों भाई-बहन की क्लास ली और समझाया कि त्योहार ख़ुशियों के लिए होते हैं. रूठों को मना लो, बिछुड़ों को मिला दो और किसी का दिल न दुखाओ…” स्नेहा ने अपनी बात पूरी की और रौब से कहा जा अब खाना बना.
इसी तरह के खट्टे-मीठे क़िस्से अक्सर वे दोनों याद किया करतीं.


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निहारिका भी उन दिनों को याद करने लगी थी, जब उसके पति का हैदराबाद से बैंगलुरू तबादला हुआ था. एक शाम बेटे को पार्क में खेलने के लिए छोड़ वे दोनों पड़ोस के सुपर मार्केट रत्नादीप में ग्राॅसरी लेने गए. ग्राॅसरी ख़रीद कर साथ में ही लगे आगरा स्वीट्स एंड नमकींस पर बेटी के लिए मूंग दाल हलवा लेने भी रुके. देखा गरमा-गरम समोसे आए थे. निहारिका ने स्नेहा से कहा, “चल न स्नेहा समोसे खाते हैं, बच्चों के लिए भी पैक करवा लेंगे.”
“पर मैं तो घर पर डिनर बनाकर आई हूं, अभी समोसे खा लिए तो रात के खाने के लिए किसी को भूख नहीं लगेगी.” स्नेहा ने अपनी बात बताई.
“छोड़ न डिनर को, एक दिन में क्या फ़र्क पड़ जाएगा? मेरे साथ फिर न जाने कब समोसे खाएगी. मेरा तो हैदराबाद वैसे ही छूटनेवाला है.” निहारिका ने उससे फिर समोसे खाने का आग्रह किया.
स्नेहा निहारिका के आग्रह को टाल न सकी और दोनों ने दो-दो गरमा-गरम समोसे खाए. सचमुच आज भी याद करो, तो वह स्वाद मुंह में जैसे अभी तक ज्यों का त्यों रखा हो. शायद वह साथ का स्वाद था समोसे का नहीं. जब साथी प्यारा और मनभावन हो, तो उसके साथ बिताया हर पल सदा याद रहता ही है.
एक दिन निहारिका बहुत ही लो फील कर रही थी, सो उसने स्नेहा को फोन किया, “घर में पतिदेव अनमने से रहते हैं स्नेहा, जब से ससुरजी का देहांत हुआ है वे अपनी मां के लिए चिंतित हैं. तुम तो जानती हो हमारे संयुक्त परिवार के तो तीन हिस्से हो चुके हैं. सास शुरू से ही दोनों बहुओं के साथ नहीं रहना चाहती थीं. अब मैं तो यहां हूं और देवर उन्हें साथ रखने को तैयार नहीं.” निहारिका ने सब्ज़ी काटते हुए स्नेहा को फोन पर बताया.
“मुझे तो उनसे मिले ही कई वर्ष हो गए. उन्होंने मुझ पर बहुत ही घटिया एवं भद्दे इल्ज़ाम लगाए थे और मेरे पति ने उन्हें कुछ भी कहा ही नहीं. तब से मैंने सास से दूरी बना ली थी. हालांकि मेरे पति मुझसे कुछ कहते नहीं, लेकिन मैं उन्हें समझती हूं कि वे मन ही मन घुट रहे हैं अपनी मां के लिए.” 
“पहले जब हम संयुक्त परिवार में रहते थे, तो घर में सास ख़ूब कलह-क्लेश किया करती थीं. देवर भी उनका पक्ष लेकर मुझसे ख़ूब झगड़ा करते, लेकिन तब मेरे पति और मुझ में प्यार था. हम कई बार साथ में रोया भी करते थे और यह सोचकर दुखी होते कि हमारी नई शादी को परिवार के सभी सदस्यों ने नर्क कर दिया था. ऐसा महसूस होता था कि जैसे हर दिन पूरा परिवार मिलकर हमारे ख़िलाफ़ षड्यंत्र रच रहा हो.” 
“अब वह सब समस्या तो ख़त्म हो गई, लेकिन आख़िर वे हैं तो माता-पिता, भाई-बहन ही न. मेरे ससुर अपने अंतिम क्षणों में बहुत दुख पाए. देवर ने उन्हें नौकरों के भरोसे छोड़ दिया, पर अपने घर में न ले गया. अब मेरे पति अपने सगे छोटे भाई से नाराज़ हैं, जबकि एक समय ऐसा था कि उसके लिए वे स्वयं मुझसे भी झगड़ पड़ते थे. कभी वही भाई अपने बड़े भाई को सब कुछ मानता था, वही अब दगा दे गया.”
“तुम उसे देवर की ग़लती क्यों मानती हो आख़िर तुम्हारे सास-ससुर ने स्वयं ही तो अकेले रहने का फ़ैसला किया था न निहारिका.”
“मेरे पति ने देवर को ख़ूब ज़ोर देकर कहा है कि अब मां को अपने साथ रखो, पर उसके पास तो हर दिन नए बहाने हैं.” निहारिका ने दुखी स्वर में कहा.


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“ससुरजी के बारहवें और अब पिछले महीने बरसी में तो सभी शामिल हुए ही थे. किन्तु इस ग्यारह माह के अंतराल में दोनों भाइयों में भी बोलचाल बंद ही रही है. परिवार तो जैसे बिखर ही गया. हमने ऐसा तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था.”
“बात तो दुख की ही है निहारिका, पर हम जो सोचते हैं, जो ख़्वाब बुनते हैं सभी साकार तो नहीं होते न.” शायद स्नेहा ऐसा कह निहारिका का दुख बांटना चाहती थी.
क़रीब एक हफ़्ते बाद स्नेहा ने निहारिका को फोन किया, “कैसी हो? अरे भाई दीपावली नज़दीक है. लंबे समय से कोरोना के चलते कहीं आना-जाना हुआ नहीं, ऐसा करो इस वर्ष तुम सपरिवार दीपावली पर हमारे यहां आ जाओ. बच्चों के लिए चेंज और तुम्हारा-हमारा मिलना हो जाएगा.”
“हमारा कुछ और प्लान है दीपावली के लिए स्नेहा.”
“अच्छा जी प्लान भी बन गया अभी से ही.” 
“इस बार हमने तय किया है कि दिवाली पूरे परिवार के साथ मनाएंगे.”
“मतलब, तुम अपनी सास के घर जा रही हो दिवाली पर या फिर मायके?” 
“नहीं, इस बार मेरे भाइयों और देवर के परिवार, मेरे माता-पिता और सास भी दीपावली पर हमारे यहां आ रहे हैं. सब के फ्लाइट के टिकट हमने बुक कर दिए हैं.”
“अरे ! अचानक से यह कैसे?”
“मैंने बहुत सोचा स्नेहा. सोचकर निष्कर्ष भी निकाला कि विवाहोपरांत भले ही हमें तकलीफ़ें आईं, किन्तु हम पति-पत्नी में आपसी प्यार और सम्मान था. मेरा मन भी शांत निर्मल पानी-सा स्वच्छ था. हम भाई-बहन तो बचपन में भी झगड़ते थे, किन्तु वह झगड़ा हम भूल भी तो जाते थे. फिर अब मन में गांठें क्यों?
कहीं जो ग़लतियां मेरी सास ने कीं, वही ग़लतियां मैं भी तो नहीं कर रही?”
“कैसे?”
“मेरे विवाहोपरांत मेरी सास का किसी से भी मिलना-जुलना नहीं था. बहुत ईगो रखा उन्होंने और अब मैं भी तो वही करने लगी हूं. मन में सबसे गांठ बांध ली है. मैं अपने पति को दुखी नहीं देख सकती और फिर हमारे बच्चे भी तो हम से ही सीखेंगे न रिश्ते-नातों का मोल. आज हम अपने रिश्तों से दूर हुए अपने-अपने परिवारों में व्यस्त हैं, कल ये दोनों भाई-बहन भी यही करेंगे तो? उफ्फ्फ़ ! मैं ये न होने दूंगी स्नेहा.
मुझे ही शुरुआत करनी होगी, इसीलिए मैंने फोन पर सभी से बात की है. उन्हें बुलाया है अपने घर पर. इस दिवाली पर दीप-करंजी-फुलझड़ियां सब कुछ साझा मेरे घर पर होगा. और हां, दिवाली पर सास यहां आएगी न, फिर वे मेरे ही पास रहेंगी. मैंने तय कर लिया है और उन्हें अपना फ़ैसला भी सुना दिया है.”
“तुम्हारे पति क्या बोले तुम्हारा फ़ैसला सुनकर?”
वे बोले, “अब तुम मेरे हर रंग में रंग गई हो और मुझे पूरा भरोसा है कि दीपशिखा बनकर घर को जगमग रखोगी निहारिका.”
स्नेहा, मेरा घर पुनः रौशनी से सराबोर एवं करंजियों की मिठास लिए भोर में चहकती चिड़ियों-सा चहचहा रहा है.”

रोचिका अरुण शर्मा



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