कहानी- धड़कनों में तुम बसे… (Short Story- Dhadkanon Mein Tum Base…)

“मैं जीवनभर एक हमउम्र साथी के लिए तरसता रहा आज तुम्हें पाकर मेरी साध पूरी हुई. हम भले ही एक सामाजिक रिश्ते में बंधे हैं, लेकिन मैं चाहता हूं हम सदा बहुत आत्मीय साथ ही बनकर रहें. मन के भीतर का सारा सुख-दुख एक-दूसरे से बांटे, हमारे बीच कभी कोई पर्दा, कोई झिझक ना हो. हम सिर्फ़ कहने को नहीं, बल्कि वास्तव में हमसफ़र हों. एक स्वस्थ मैत्री भी हो हमारे बीच.”

दरवाज़े के अंदर पैर रखते ही हर बार की तरह ही अनिरुद्ध के दिल की धड़कन अनियंत्रित हो गई. पैरों में अजीब कंपकपी-सी आने लगी. देखने में वे एकदम सामान्य चाल से चल रहे थे, लेकिन भीतर से मन की हालत वैसी ही अजीब-सी हो रही थी, जैसी हर बार हो जाती है. लिफ्ट से वे तीसरी मंज़िल तक पहुंचे, एक लंबा कॉरीडोर पार करके दाएं तरफ़ मुड़ गए. सामने एकदम शांति थी. दरवाज़े पर लाल अक्षरों से लिखा था- आईसीयू. अनिरुद्ध ने कांपते हाथों से दरवाज़ा खोला और अंदर चले आए. दोनों तरफ़ बेड पर पेशेंट थे. ढेर-सी मशीनें, बोतलें, नलिया, वेंटिलेटर. अनिरुद्ध उधर से नजर हटाकर सीधे एक बेड के पास पहुंच गए, बेड खाली था आज. वह चुपचाप जाकर बेड के पास रखे स्टूल पर बैठ गए. मन के भीतर भावनाओं के न जाने कितने सागर हिलोरे लेने लगे. ना जाने कितना कुछ उमड़ने-घुमडने लगा और बहुत रोकने के बाद भी आंखों से बहने लगा.
यहीं पर… कुछ महीनों पहले अंतिम बार उसकी धड़कनों को महसूस किया था उन्होंने. उस दिल की धड़कनों को जो आज भी कहीं धड़क रहा है. लेकिन अब वे जीवनभर न तो उन धड़कनों को सुन पाएंगे, ना महसूस कर पाएंगे. अनिरुद्ध ने अपना कांपता हाथ उस पलंग पर रखा. यहां, ठीक यहीं पर वह सोई थी और तब जीवन से भरा वह दिल उसके भीतर धड़क रहा था. अंतिम बार डॉक्टर ने बेड के आसपास पर्दे लगा दिए थे और उन्हें अकेला छोड़ दिया था, ताकि वे थोड़ी देर उसके साथ रह सकें, सुन सके उस धड़कन की लय को, जिसने पूरे सत्ताईस वर्ष उनके जीवन में मधुर संगीत भर रखा था और अनिरुद्ध बिलख पड़े. आंसू आंखों से बेआवाज़ बहते रहे उस दिन भी ह्रदय विदीर्ण हो गया था, जब अंतिम बार उसकी धड़कनों को सुनते हुए उसके सीने पर सिर रखकर बच्चों की तरह फूट-फूट कर रो दिए थे.
“मत जाओ अनु मत जाओ, मुझे यूं अकेला तन्हा छोड़ कर मत जाओ. कैसे जिऊंगा मैं तुम्हारे बिना, तुम्हारी धड़कनों के संगीत बिना. सूना हो जाएगा मेरा जीवन, मेरा मन.”
लेकिन निष्ठुर नियति को दया नहीं आई. छीन कर ले गई उनकी अनु को, वह अनु जो सत्ताईस वर्षों से उनकी छाया थी, वह जो उनकी आत्मा थी, जीवन थी. जिसके बिना अब वे मात्र एक निष्प्राण देह बनकर रह गए हैं. वह अनु, जिसे उनके माता-पिता ने पसंद किया था अनिरुद्ध के लिए, लेकिन देखते ही जो अनिरुद्ध के मन में प्रेम की मूरत बन कर बस गई थी.
अपने माता-पिता के इकलौते बेटे अनिरुद्ध को अपने घर और मन का एक कोना हमेशा सूना-सा लगता. ना भाई ना बहन. विवाह के बीस वर्षों पश्चात उनका जन्म हुआ था. घर में किसी बराबरी के हमउम्र के साथ की कमी उन्हें बहुत खलती. बहुत-सी बातें होती बाहर की, मन की, जिसे घर आकर किसी से कहने, बांटने का उन्हें बहुत मन करता, लेकिन मन की साध मन में ही रह जाती. जब स्कूल में थे, छोटे थे, तब अम्मा से कह लिया करते थे, लेकिन कॉलेज में आते-आते उन्हें अम्मा से झिझक लगने लगी थी. और तब उन्हें एक भाई या बहन की कमी बेहद खलने लगी थी.
तेईस बरस की उम्र में ही जैसे ही उन्हें नौकरी लगी तुरंत ही अम्मा-बाबूजी ने उनकी शादी तय कर दी अनु से. तब अनु उन्नीस बरस की, छुईमुई-सी किशोरी ही तो थी. एक छोटे से शहर में पली-बढ़ी. शहर अलग होने की वजह से शादी के पहले वे अनु से अकेले में ना मिल पाए थे, ना बात कर पाए थे. एक बार देखने गए, दूसरी बार सगाई के समय रिश्तेदारों की भीड़ में मिले, फिर पन्द्रह दिन बाद तो अनु दुल्हन बनकर उनके घर ही आ गई थी. अनिरुद्ध के माता-पिता की आयु बहुत हो जाने के कारण उन्होंने अनु को पसंद करने के बाद बहुत जल्दी ही शादी कर दी थी.


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अनिरुद्ध को सबसे अधिक ख़ुशी इसी बात की थी कि अब वे अकेले नहीं थे एक हमउम्र साथी उन्हें मिल जाएगा अपने मन की बातें साझा करने के लिए. उन्हें अनु के लिए अपने मन के भीतर प्रेम का, अपनेपन का एक सागर उभरता हुआ महसूस होता था.
और अनु! जब पहली बार वह अपने कमरे में उससे एकांत में मिले, तो रोमांच से उनका दिल तेज़ी से धड़क रहा था. अनु सिर झुकाए अपने में सिमटी खड़ी थी. अनिरुद्ध कुछ पलों तक अपने इस आत्मीय साथी को प्यार से निहारते खड़े रहे फिर भावुक होकर बोले, “मैं जीवनभर एक हमउम्र साथी के लिए तरसता रहा आज तुम्हें पाकर मेरी साध पूरी हुई. हम भले ही एक सामाजिक रिश्ते में बंधे हैं, लेकिन मैं चाहता हूं हम सदा बहुत आत्मीय साथ ही बनकर रहें. मन के भीतर का सारा सुख-दुख एक-दूसरे से बांटे, हमारे बीच कभी कोई पर्दा, कोई झिझक ना हो. हम सिर्फ़ कहने को नहीं, बल्कि वास्तव में हमसफ़र हों. एक स्वस्थ मैत्री भी हो हमारे बीच.”
अनु ने मुस्कुराकर धीरे से गर्दन हिलाकर अपनी हामी भरी. आनंद अतिरेक में अनिरुद्ध ने उसे गले लगा लिया. लज्जा मिश्रित रोमांच से अनु की धड़कनें इतनी बढ़ी हुई थी कि अनिरुद्ध को अपने दिल के भीतर तक सुनाई दे रही थी.
ओह! कितना सुखद एहसास था वह जीवन का. दोनों की धड़कनें जैसे एक ही ताल पर चल रही थी. जीवन की लय सी मधुर, एक साथ का आश्वासन देती हुई. कोई है अपना, जीवनभर जिसकी धड़कनें आपको जीवन से बांधे रखेंगी.
और तब से, सत्ताईस वर्षों से अनिरुद्ध के जीवन की डोर अनु की धड़कनों से बंधी हुई थी. कभी सोचा तक न था उन्होंने कि जीवन में कभी अनु की धड़कनों बिना, अपनी अनु के बिना भी रहना पड़ेगा. कभी यह डर तो लगा ही नहीं उन्हें कि वह दोनों अलग हो सकते हैं.
साथ का वचन अनु ने पूरी निष्ठा से निभाया. कितनी क़रीब थी वह उनके दिल के, ठीक धड़कनों की तरह. वे दोनों वास्तव में दो तन एक प्राण थे, ना कोई पर्दा न झिझक. ऑफिस से आते ही अपने दिन का पूरे विस्तार से वर्णन करते थे वह अनु के पास. वह जीवन के प्रत्येक क्षण की साक्षी थी. ना कोई मतभेद, न शिकवा, न शिकायत. अनु की आंखों में जब भी देखते लगता जैसे आईने में ख़ुद को ही देख रहे हैं. प्रतिबिंब थी वह उनकी और वह अनु के. रिनी-मिनी के जन्म के बाद भी उनकी वह मित्रता कायम रही. दोनों ने साथ मिलकर बेटियों की परवरिश की, पढ़ाया और दोनों की ही अच्छे घरों में शादी कर दी.


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बेटियों के विवाह हो जाने के बाद बस दोनों ही तो थे एक-दूजे के, तो आत्मीयता अपनापन और भी प्रगाढ़ होता गया. कितना सुखद था, सुकून दायक था वह अनु का होना.
अनिरुद्ध ने आंखों से बहते आंसू पोंछे और पलंग पर हाथ फेरा. ‘ना कुछ बोल पाई, न सुन पाई. ऐसे ही चली गई चुपचाप. किस बात से रुठ गई इतना अनु की आंख खोलकर एक बार देखा तक नहीं मुझे’
रोज़ की तरह ही तो वह सुबह भी थी आनंद से भरी. अनु के साथ गर्म चाय पीते हुए बगीचे में पेड़ों की गुड़ाई करते हुए बातें भी करते जा रहे थे. तब क्या पता था आज आख़िरी बार चाय पी रहे हैं उसके साथ. ख़ुद अपने हाथ से एक नारंगी गुलाब तोड़कर उसे दिया था कि नहाकर बालों में लगा लेना. वह गुलाब आज भी टेबल पर वैसा ही रखा है, जो उसके बालों में सजने का इंतज़ार करते हुए वहीं पड़ा सूख गया था.
कपड़े धोने के लिए बाथरूम में क्या गई अनु की पता नहीं कैसे पैर फिसला और सिर पर ऐसी चोट लगी कि फिर होश में ही नहीं आ पाई. चार दिन वेंटिलेटर पर रही. मॉनिटर पर अनिरुद्ध उसकी धड़कन देखते रहते और उससे होश में आने की मिन्नतें करते रहते, जबकि दूसरे ही दिन डॉक्टरों ने उन्हें ब्रेन डेड घोषित कर दिया था.
“मुझे ब्रेन से क्या लेना-देना, मेरी अनु तो धड़कनों में बसती है और धड़कनें तो चालू है ना.” वह डॉक्टर से जिरह करते.
“वह सिर्फ़ मशीनों की वजह से हैं. जिस दिन हम सपोर्ट सिस्टम हटा लेंगे उसी क्षण…” डॉक्टर समझाते.
“नहीं-नहीं कैसे रुकने दूं मैं जीवन से भरी इस मधुर धुन को.” अनिरुद्ध अपनी सुध-बुध खो बैठते, “उम्र ही क्या है अभी उसकी, बस छियालीस साल…”
“पापा सच को स्वीकार कर लीजिए. यही नियति है, जिसके आगे मनुष्य बेबस लाचार हो जाता है. अपने आपको संभालिए, अब हमारी मां भी आप ही हैं और पिता भी. आप ही टूट गए, तो हमारा क्या होगा.” बेटियां उनके कंधों से लगकर बिलख पड़ी थीं.
“कोई है जिसे जीने के लिए इन धड़कनों की ज़रूरत है. अगर आप चाहें, तो आपकी पत्नी का दिल हमेशा के लिए धड़कता रह सकता है.” डॉक्टर ने कहा था. “सोच लीजिए फिर फ़ैसला कीजिए, वरना आज नहीं तो कल हमें लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटाना ही पड़ेगा. “
और तब से हर चार-छह दिन बाद वे यहां दौड़े चले आते हैं. अपनी अनु को महसूस करने. यहां आकर उन्हें लगता है जैसे वह आस-पास ही है. कभी यह बेड खाली होता है, तो यहां बैठ जाते हैं. कभी कोई पेशेंट होता है, तो दूर से ही देखकर लौट जाते हैं. अनु की धड़कनों से जुड़ी है यह जगह. धड़कन जो आज भी भौतिक रूप में अपनी उसी लय में निरंतर चल रही हैं. कहां, किस में यह वह नहीं जानते, कभी जानना चाहा भी नहीं, लेकिन हर थोड़े दिन बाद में वह यहां खिंचे चले आते हैं. यहां से घर वापस जाते हैं, तो यह जगह उन्हें फिर पुकारने लगती है. ऐसा लगता है जैसे अनु इसी जगह है, वो चले जाते हैं, तो वह यहां अकेली रह जाती है. यही बात उन्हें विकल कर देती है और व्याकुल होकर वे फिर यहां आकर उसे ढूंढ़ने लगते हैं. बेटियां कितना समझाती हैं, “मां अब नहीं है पापा. अब इस घर में बसी उनकी यादें ही सच है बस.”
लेकिन उनका दिल नहीं मानता. उसका दिल तो है न, जो अभी भी कहीं धड़क रहा है. कभी शायद यहां, इसी जगह फिर मिल जाए.
एक व्याकुलता भरी आस थी, जो मान ही नहीं रही थी. दिमाग़ समझ रहा था कि अनु ने किसी को जीवनदान दिया है. वो जीवन में एक महत्तम मानवीय उद्देश्य को पूरा कर गई है. सार्थक कर गई अपना जीवन, लेकिन अपने दिल का क्या करें वे.
“जिसे आपने अपनी धड़कनों के भीतर पाया उसे बाहर क्यों ढूंढ़ते फिर रहे हैं.”
चौंककर अनिरुद्ध ने आसपास देखा. जैसे कि ख़ुद अनु ही आकर अभी-अभी उनके कान में कह गई हो, “मैं तो सदा आपके धड़कनों में बसी रही. आज भी आपके भीतर ही धड़क रही हूं. सत्ताईस बरस से हर पल संग रही हूं आपके, अपने घर के, अपनी बेटियों के, कहां नहीं हूं मैं.”


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जड़वत होकर अनिरुद्ध सुनते रह गए. यह सचमुच उनकी अनु की आवाज़ थी अथवा उन्हें भ्रम हो रहा है या ख़ुद उनका ही मन बोल रहा है उनसे. जो भी हो उन्हें अचानक लगा उनका मन एकदम हल्का-सा हो गया है. सच ही तो है, जिसे सर्वप्रथम अपनी ही धड़कनों में पाया, महसूस किया, सत्ताईस बरस जो रात-दिन, हर क्षण उनकी रगों में जीवन बनकर दौड़ती रही वह अनु बाहर कैसे मिल सकती हैं? वह तो उनकी अपनी ही धड़कनों में बसी हुई है. वह अनु जिसने भौतिक शरीर छोड़ने के बाद भी किसी के जीवन के चिराग़ को बुझने से बचा लिया. जिसकी धड़कनें आज भी किसी की रगों में जीवन प्रवाहित कर रही हैं, जो आज भी किसी के जीवन का उजास है, सहारा है, वह अपने अनिरुद्ध के जीवन को अंधेरा करके, बेसहारा कैसे कर सकती है.
“नहीं-नहीं अनु तुमने ठीक कहा. तुम यहां नहीं हो. तुम तो मेरे भीतर हो, उस घर में हो, जिसे हमने वर्षो बड़े जतन से संभाला-संवारा है. उस घर की हर एक ईंट में, हर वस्तु में तुम रची-बसी हो. बसी हो आंगन में लगे चंपा-चमेली में, हर फूल में, पत्ते-पत्ते में. हमारी बेटियां भी तो तुम्हारी ही छवि है. मैं ही ग़लत था, जो तुम्हें बाहर ढूंढ़ता रहा महीनों से. भूल ही गया अपने दुख में कि तुम तो सदा से ही मेरे साथ हो, मेरे भीतर ही हो. अपने आंसू पोंछकर अनिरुद्ध तत्परता से उठकर बाहर आ गए. कार में बैठकर चल दिए अपने घर. उस घर जिसकी रग-रग में उनकी अनु समाई हुई है. महीनों बाद आज वह ज़रा-सा मुस्कुराए. रोमांच से आज दिल फिर एक बार धड़क रहा था. अपने घर से मिलने को वे बेकल हो उठे. जैसे अनु भी उनसे कह रही हो “मैं तो धड़कनों में ही बसी हूं ना.”
और अनिरुद्ध ने मुस्कुराकर कहा, “हां, धड़कनों में तुम बसे हो.”

डॉ. विनीता राहुरीकर

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