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कहानी- हिचकियां (Story- Hichkiya)

‘‘वो याद कर रही होगी!’’ कहते-न-कहते पार्वती के चेहरे पर एक अजीब-सा तनाव उभर आया… सहसा महेन्द्र बाबू को भी कुछ स्मरण हो आया और वे बजाय सुबह-सुबह पत्नी से उलझने के, एकदम ख़ामोश से हो गए.

‘नहीं, महान प्रेम कथाएं स़िर्फ फ़िल्मों में ही नहीं होतीं, ज़िंदगी में भी होती हैं…’ उगते लाल सूरज के साथ ही टहलकर लौटे महेन्द्र बाबू के दिमाग़ में यह वाक्य न जाने क्यों कौंधा. पार्वती ने बाहर के चबूतरे पर नाश्ते की सारी सामग्री सजाकर हमेशा की तरह तैयार कर दी थी- छोटी मेज़ पर केतली में गरम चाय, दो कप, प्लेट में नमकीन, काजू, किशमिश, कटोरी में पानी में भीगी अंजीरें और मुनक्के, एक तरफ़ तह किया हुआ अख़बार…
चौथी सीढ़ी पर पांव रख जैसे ही उन्होंने फाटक के कुंडे को खोला, पार्वती भीतर से बाहर आ गई. बाहर से आते ही उन्हें बाथरूम जाना पड़ता है. हाथ-मुंह धो तौलिए से पोंछते बाहर आए तब तक पार्वती कुर्सी पर बैठी उनकी प्रतीक्षा करने लगी थी. महेन्द्र बाबू खाली कुर्सी पर बैठे तो अचानक उन्हें हिचकियां शुरू हो गईं. हिचकियां लेते हुए वे मुस्कुरा दिए, ‘‘तुम्हें तो हिचकियां तब आती हैं, जब तुम्हारे बच्चे तुम्हें यहां या दिल्ली में याद करते हैं. पता नहीं क्यों, आज मुझे आ रही है!’’
‘‘वो याद कर रही होगी!’’ कहते-कहते पार्वती के चेहरे पर एक अजीब-सा तनाव उभर आया… सहसा महेन्द्र बाबू को भी कुछ स्मरण हो आया और वे बजाय सुबह-सुबह पत्नी से उलझने के, एकदम ख़ामोश से हो गए.
सुबह की गुनगुनी धूप, गरम चाय की चुस्कियां और न रुकनेवाली हिचकियां… कहीं उन्होंने पढ़ा था, हिचकियों को गंभीरता से लेना चाहिए. ये हृदय रोग की पहचान होती हैं, पर मान्यता तो कुछ और ही है… पत्नी से न उलझना पड़े, इसलिए उन्होंने एक हाथ में अख़बार थाम चश्मे को ठीक किया और मोटे-मोटे शीर्षकों पर नज़र दौड़ाने लगे. उन्हें ख़बरें पढ़ने-देखने का बेहद शौक़ था. उन्हें ख़बरें पढ़ने में मशगूल होते देख, चिढ़कर पार्वती ने कहा, ‘‘ख़बरें पढ़ते-देखते ऊब नहीं जाते?’’ असल में वह कोई न कोई सीरियल या फ़िल्म देखना पसंद करती है, जबकि वे स़िर्फ ख़बरें… शायद सोच और नज़रिए में ही बहुत फ़र्क़ है, इसी कारण उनकी पत्नी से कभी बनी नहीं. हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा. एक पूरब तो दूसरा पश्‍चिम. जीवनभर न बनने के बावजूद जीवन संग-संग काट लिया! है न हैरत की बात.
आजकल की पीढ़ी इतने मतभेदों के बावजूद साथ काटेगी ज़िंदगी? हरगिज़ नहीं. पहले दिन झगड़ेंगे. दूसरे दिन कोर्ट-कचहरी करने लगेंगे. पर वे पार्वती के साथ पूरे चालीस साल काट ले गए और मतभेदों के बावजूद पार्वती ने भी कभी अलग होने की उन्हें धमकी नहीं दी, न रूठकर मायके जा बैठी, न मां-बाप और रिश्तेदारों से कभी कोई शिकायत की. ऐसा भी नहीं कि वह लड़ी-झगड़ी नहीं. ख़ूब झगड़ा हुआ, फिर भी… अख़बार में उनका मन क़तई नहीं लगा.
‘‘बजाय गरम चाय के पानी पी लेते, तो शायद हिचकियां बंद हो जातीं.’’ पार्वती ने सुझाया, ‘‘कहो तो चीनी के दाने लाऊं? फांक लो, हिचकियां बंद हो जाएंगी. कम्बख़्त यहां भी तुम्हें चैन नहीं लेने देती. सुबह-सुबह ही याद करने बैठ गई, जैसे और कोई काम ही नहीं है उसे सिवा तुम्हें याद करने के!’’
पार्वती जान-बूझकर तीखे वाक्य कह रही थी, जिससे वे उससे उलझ जाएं, पर इधर उन्होंने चुप रहना सीख लिया है. अब शेष बची ज़िंदगी इसी के साथ गुज़ारनी है तो क्यों उलझें इससे? विषय बदलने के लिए पूछा, ‘‘लड़का अभी उठा कि नहीं?’’
‘‘अभी सुबह छः बजे तो प्लांट से आया है. दस-ग्यारह बजे से पहले क्या उठेगा? आख़िर रातभर का जागा हुआ है, कुछ नींद भी ज़रूरी है. बड़ी कठिन नौकरी है. सुसरी कभी रात भर डयूटी, कभी दिनभर, न खाने का कोई निश्‍चित व़़क्त, न सोने-बैठने का. कभी-कभी तो दो-दो पालियों में डयूटी लगा देते हैं ऊपर के अफ़सर. यह भी कोई नौकरी हुई!’’ पार्वती बड़बड़ाकर प्लांट की नौकरी और अफ़सरों को कोसती रही, पर हिचकियां लेते महेन्द्र कुछ और ही सोचते रहे. अच्छा हुआ जो पार्वती का ध्यान उन्होंने किसी और तरफ़ मोड़ दिया, अब वे कुछ और सोच सकते हैं.

हिचकियां तभी आती हैं, जब कोई अपना याद करता है. यह एहसास भर आदमी को किस क़दर ख़ुश कर देता है. इस नरम गुनगुनी धूप की तरह तन-मन को गरम कर देता है. उत्फुल्लता और प्रसन्नता के एहसास से पोर-पोर खिल और खुल उठता है. आज की भागदौड़भरी व्यस्त ज़िंदगी में कहीं कोई है, जो आपको याद कर रहा है. कितना मधुर एहसास है यह! किसी की यादों में आप हैं, आदमी हो या औरत, यह किस क़दर उसे प्रसन्नता और ख़ुशी से भर देता है. पार्वती कभी इसे महसूस कर सकेगी? शायद कभी नहीं. मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक, अगर उसे हिचकियां आएंगी, तो वह सोचेगी कि उसे बेटी याद कर रही है या बेटी के बच्चे या फिर यहां दूर नौकरी कर रहा बेटा और उसकी बहू!
ज़िंदगी में जिसने कभी किसी को प्यार नहीं किया, शायद उसने ज़िंदगी के बहुत बड़े एहसास को जिया ही नहीं! ज़िंदगी को सही मायने में वही समझ पाया, जिसने जीवन में कभी किसी को प्यार किया. जिसके पांव में प्रेम-प्यार की बिवाई कभी नहीं फटी, वह उसकी पीर को क्या जाने?
कहां होगी मरीना इस वक्त…? वे वहां से भाग कर यहां क्यों आए? शायद वे वो सब बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. वो सब- मरीना की शादी… मरीना का वहीं हनीमून पर जाना, जहां कभी वह उनके साथ रही… और वहां तो ढंग का स़िर्फ वही होटल है. निश्‍चित ही वह उसी होटल में अपने पति के साथ ठहरेगी. क्या मालूम उसी कमरे में ठहरे और उसी पलंग पर पति की बांहों में रात भर अलसाई पड़ी रहे, जिस तरह उस रात वह उनके साथ, उनकी बांहों में पड़ी रही थी. उस दिन अपनी शादी का कार्ड देने वह ख़ुद आई थी.
आदर से बैठाया था उसे, ‘‘तो आख़िर तुमने उससे शादी का फैसला कर ही लिया?’’
‘‘किसी से तो करनी ही थी.’’ वह उदास हो गई थी, ‘‘लड़की अगर उससे शादी न कर पाए, जिसे वह प्यार करती है, तो फिर उससे शादी करना ठीक रहता है, जो उसे प्यार करता हो… प्रबोध को तो आप जानते है. वह मुझे पागलों की तरह प्यार करता है. एकदम दीवाना है मेरा.’’
न चाहते हुए भी एक खिसियाहट-सी उभर आई उनके चेहरे पर, ‘‘एक प्रबोध ही तुम्हारा दीवाना कहां है मरीना? पता नहीं कितने दीवाने हैं तुम्हारे. मेरा नाम भी उन्हीं में है… हृदय के चार कक्ष होते हैं आदमी में… मैं चाहूंगा कि अगर एक कक्ष में तुम प्रबोध को जगह दो, एक में अपने होनेवाले बच्चों को और एक में अपने माता-पिता, दोस्तों व सास-ससुर को, तो एक कक्ष में कहीं मुझे भी बनाए रखना. बोलो, रख सकोगी मुझे ताज़िंदगी उस एक कक्ष में…? कुछ और नहीं चाहिए मुझे तुमसे. स़िर्फ यह वचन काफ़ी है कि कहीं तुम्हारी ज़िंदगी में मैं भी हूं और रहूंगा.’’
पता नहीं क्या सोचती हुई देर तक चुप बैठी रही मरीना. वे ख़ुद नहीं सोच पाए कि जब सब कुछ ख़त्म हो गया है तो मरीना से अब और कहा भी क्या जाए? किसी तरह सहज होने का ढोंग करते हुए हंसे, ‘‘चाय पिओगी.’’
‘‘कहां हैं वे? यहीं हैं कि कहीं गई हुई हैं?’’ वह घर में भीतर की तरफ़ देखने लगी.
‘‘बेटी के पास दिल्ली गईं हैं.’’ वे बोले.
‘‘तब तो चाय आपको बनानी पड़ेगी. रहने दीजिए. फिर कभी पी लूंगी, उधार रही इस बार की चाय.’’ हंसने लगी वह.
महेन्द्र ख़ामोश अपलक देर तक ताकते बैठे रहे- कितनी खनकती हुई प्यारी हंसी हंसती है मरीना. चमकता, दिप-दिप करता रूपवान चेहरा, चांदनी में धुले स़फेद चमकते दांत. हंसते व़़क्त गालों में पड़ने वाले गड्ढे, काली कजरारी बड़ी-बड़ी आंखें और खुले आवारा क़िस्म के चमकते बाल.. पहले वह दो चोटियां करती थी, कस्बाई शहरों की लड़कियों की तरह… और लंबा कुर्ता व सलवार, सादा चप्पलें. पर अब… जीन्स और टॉप, ऊंची हील के सैंडिल, कटे-छटे संवरे बाल, नामालूम-सी अधरों पर लिपस्टिक, झील-सी गहरी और चमकती आंखों को काली कोरों से ठीक धार देना, पतली कमानी दार भौंहें…
‘‘आश्‍चर्य है, उस महानगर में तुम पर मॉडल बनानेवालों की नज़र क्यों नहीं पड़ी? कोई भी देखता तो तुम्हें कैमरे में कैद कर लेता.’’ वे कह बैठे थे.
‘‘नज़रें तो पड़ीं, पर मैंने ही इनकार कर दिया.’’ वह हंसने लगी,’’
‘‘जब वहां पढ़ाई के दौरान तुम्हारे पांव में चोट लगी और फ्रैक्चर हुआ, उस व़़क्त प्रबोध ने तुम्हारी बहुत मदद की शायद.’’
‘‘आपको कैसे पता चला?’’ वह हंसती हुई सामने ताकती रही.


‘‘तुम्हारी शायद ही कोई बात हो, जो मुझे पता न चल जाती हो. असल में मेरा दिल, मेरा दिमाग़, मेरी भावनाएं, मेरा मन, मेरा मस्तिष्क सब कुछ सदा तुम्हारे आसपास बना रहता है.’’ वे एकाएक भावुक हो उठे थे, हालांकि अब इस तरह की भावुकता शायद मरीना को पसंद भी न रही हो. पहले वह ऐसी भावुकता भरी बातों से लजाती और ख़ुश होती रहती थी. उनके कहे का अब उस पर जैसे कोई असर ही नहीं हुआ.
‘‘आप मुझे याद यहां करते हैं और हिचकियां मुझे वहां आती हैं. सच, जब आपका नाम लेती हूं, तभी बंद होती हैं. क्यों करते हैं आप इस तरह हैरान मुझे?’’
‘‘मेरे याद करने से भी अब तुम्हें तकलीफ़ होने लगी मरीना?’’ कहते हुए महेन्द्र गंभीर हो गए, ‘‘हैरान और परेशान तो मैं होता हूं तुम्हारे कारण. तुम्हें चोट वहां लगी और मेरे पांव में यहां दर्द होता रहा. समझ सकोगी कभी यह?’’
सिर झुकाए मुस्कुराती बैठी रही वह देर तक चुप, फिर बोली, ”प्रबोध को मैं उस तरह नहीं चाहती, जैसे कभी आपको चाहा, पर प्रबोध बहुत पीछे पड़ गया और घरवाले भी चाहते हैं कि मैं शादी कर लूं. आप हिम्मत नहीं जुटा पाए. पत्नी का क्या करें, बच्चे क्या कहेंगे. आपके सामने अपने ये संकट बने रहे. मैं भी एक औरत हूं और औरत के दुख को समझ सकती हूं. आपकी पत्नी आपसे अलग होकर कैसे रहतीं, क्या करतीं, बच्चे उन्हें अपने साथ रखते या दुत्कार देते. इस उम्र में वे कहां जातीं? ये सब ठीक नहीं था. अपने सुख के लिए, अपनी ख़ुशी के लिए किसी को उजाड़ना… नहीं, मेरे जैसी लड़की ये सब बर्दाश्त नहीं कर पाती. आप से ज़्यादा मुझे कौन जानता है भला? बताइए, मैं बर्दाश्त कर पाती आपकी पत्नी का उजड़ना…? यही सब सोचकर अपने आप को अलग कर लिया मैंने. बहुत दिनों तक मन में द्वंद्व चला, उचित-अनुचित पर विचार करती रही, कई-कई रातें जागी. प्रबोध भी चकराया करता था. हंसता रहता था कि क्या सोचती रहती हो तुम छत की तरफ़ ताकती हुई हर व़़क्त. अब उसे क्या बताती कि मैं कहां-कहां भटकती रहती हूं.’’
कुछ देर को चुप रही वह. वे भी अपलक उसकी तरफ़ ताकते रहे, उसे कहने का अवसर देते हुए. अपने मन को तो वे जानते हैं, दूसरे के मन को भी तो जानें. जब वह कुछ न बोली तो पूछ बैठे, ‘‘झूठ कह रही हो या मुझे धोखा दे रही हो?’’
‘‘आपको लगता है कि मैं आपसे कोई बात झूठ कह सकती हूं? आपको धोखा देने की बात मैं सोच सकती हूं कभी?’’ वह गंभीर हो गई.
‘‘ख़ैर, हनीमून के लिए कहां जाओगी?’’
‘‘उसी जगह के लिए प्रबोध ज़िद कर रहा है.. और वहां मैं जाना नहीं चाहती. एक ही होटल है वहां, जिसमें ठहरना होगा और वहां मैं आपके साथ रही थी. वह सब कुछ याद आता रहेगा और मैं प्रबोध के साथ सहज नहीं हो पाऊंगी.’’
‘‘झूठ बोलना ख़ूब आ गया है तुम्हें मरीना, बहुत चालाक हो गई हो. महानगर की चमक-दमक में रहकर. ठीक है भई, बना लो मुझे बेवकूफ़.’’
सहसा वह उठ गई कुर्सी से, ‘‘रहने दीजिए, आप इस तरह अविश्‍वास कर मेरी सच्ची भावनाओं की नाकद्री कर रहे हैं, मेरे प्यार का मज़ाक उड़ा रहे हैं आप.’’ उसके साथ वे भी उठ खड़े हुए, उसे बाहर तक छोड़ने जाने के लिए.
सो कर उठने पर लड़का चाय का कप हाथ में लिए उनके कमरे में आया, ‘‘पापा, आप मम्मी के साथ हरिद्वार और ॠषिकेश घूम आइए. मैंने ड्राइवर का इंतज़ाम कर दिया है, वह आप लोगों को लिवा जाएगा. आप दो-चार दिन या एक सप्ताह जितने दिन मन हो, वहां रह आइए.’’
‘‘एक सप्ताह तक वहां ड्राइवर संग बना रहेगा क्या?’’ पार्वती ने पूछा. ‘‘अगर आप लोग वहां किसी अच्छे आश्रम में ठहर जाएं, तो ड्राइवर आप लोगों को छोड़कर आ जाएगा यहां. फिर आप जब फ़ोन करेंगे, उसे लेने भेज देंगे.’’
‘‘ठीक रहेगा.’’ पार्वती ने ही कहा, ‘‘हमें वहां गाड़ी की ज़रूरत भी नहीं होगी. आश्रम से गंगा तक घूमना और फिर वापस आश्रम में पहुंच जाना.’’
सहसा उन्हें लगा जैसे सब कुछ उन पर थोपा जा रहा है. उनके हाथ में जैसे अब कुछ न रह गया हो. वैसे ही, जैसे मरीना का पढ़ने उस महानगर में चले जाना. फिर वहां प्रबोध के संपर्क में आ जाना, फिर उसका उससे शादी के लिए तैयार हो जाना, फिर उन्हें शादी का कार्ड देने आना… और अब बेटे का उन्हें जबरन हरिद्वार और ॠषिकेश जैसे तीर्थ पर भेज देना और पत्नी पार्वती द्वारा उसे स्वीकार कर लेना… क्या आदमी सचमुच किसी अदृश्य शक्ति के वशीभूत होता है? वही उससे सब कुछ कराती है? क्या उसके हाथ में कुछ नहीं होता?
वे चुप बैठे सोचते रहे देर तक… अगर जाना ही है, तो वहीं क्यों न जाएं, जहां मरीना प्रबोध के साथ इस व़़क्त हनीमून पर गई हुई है? लेकिन वहां जाना क्या उचित होगा? नहीं, ठीक नहीं होगा. अनुचित होगा यह.
‘‘क्यों…? कहां खो गए…?’’ पार्वती ने ख़ुशी से पूछा, ‘‘अरसा हो गया, हम लोग किसी तीर्थ पर गए भी नहीं… हां कहे देते हैं हम.’’
हम? यानी इस हम में उसने उन्हें अपने आप ही शामिल कर लिया है. लेकिन वे उसके साथ शामिल तो हमेशा रहे, चाहे-अनचाहे…

– दिनेश पालीवाल

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Usha Gupta

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