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कहानी- जीवनधारा (Short Story- Jeevandhara)

बहुत ख़ुश थी मैं. मुझे जब पहली तनख़्वाह मिली, तो मम्मी-पापा और सास-ससुर के लिए उपहार ख़रीदा. मेरे लिए वो दो घंटे बेहद ख़ुशनुमा होते थे, जब मैं गुड्डू की बहू से अपराजिता बनती, पर समय हमेशा एक-सा नहीं होता न. जब कर्नल दुरानी ने गेस्ट हाउस की लीज़ ख़त्म होने की ख़बर मुझे सुनाई, तो मैं सन्न रह गई. लगा, अब मैं ज़िंदगीभर गुड्डू की बहू बनकर ही रह जाऊंगी.

आज मुझे ‘बेस्ट कॉर्पोरेट एक्ज़ीक्यूटिव’ का पुरस्कार मिला है. हाथ में इस ट्रॉफी को थामे अपनी कार में बैठकर मैं ख़ुद को दुनिया की महारानी महसूस कर रही हूं.

आज से 25 साल पुरानी बात यूं लगती है जैसे कल की ही बात हो. इंजीनियरिंग के आख़िरी साल में एक दिन जब मेरे हॉस्टल की सभी लड़कियां अपने करियर के बारे में बातें कर रही थीं, तभी मम्मी की चिट्ठी आई. चिट्ठी पढ़ी, तो अवाक् रह गई. लिखा था कि तुम्हारी शादी गुड्डू से तय हो गई है.

गुड्डू मेरी बुआ की जेठानी का लड़का था. बचपन में देखा था, पर कभी उस नज़र से नहीं. इतने सालों बाद आज भी नहीं बता सकती कि मैं शादी की ख़बर पर ख़ुश हुई थी या दुखी. ख़ैर, परीक्षा ख़त्म करके घर पहुंची. चार दिन में फटाफट शादी निपट गई और मैं अपराजिता से गुड्डू की बहू बनकर दिल्ली आ गई. हां, मैं इस बात से बेहद ख़ुश थी कि मैं दिल्ली आ गई. हर छोटे शहर की लड़की की तरह मेरा भी सपना था कि मैं मेट्रो सिटी में जाकर नौकरी करूं.

ससुराल में सभी मेरे रंग-रूप, समझदारी, शिष्टता और फर्राटेदार इंग्लिश के कायल थे. साधारण शक्ल-सूरत और कम बोलने वाले प्रवीण मेरे आगे ख़ुद को दबा हुआ महसूस करते थे. ये मैंने तब जाना, जब उन्होंने मुझे किसी से भी बात करने पर टोकना शुरू कर दिया. मेरी हर बात में कमी निकालना, लोगों से मिलने-जुलने पर रोक लगाना, चटकीले कपड़े पहनने से रोकना, ये सब रूटीन बातें हो गईं.

इसी दौरान जब मैंने प्रवीण से अपनी नौकरी की बात की, तो वे बिफर गए. कहने लगे, “क्या तुम्हें अपने पति पर इतना भी भरोसा नहीं कि वो तुम्हें कमाकर खिला सके?” रोती-सिसकती मैं सोचती रही कि क्या मेरे प्रो़फेसर पापा ने मुझे इंजीनियरिंग पढ़ाकर ग़लती की? ख़ैर, इसी बीच पता चला कि अनाम्या मेरे गर्भ में है. इस ख़ुशी में मैं सब भूल गई. बहुत-सी तकलीफ़ों के बाद जब पहली बार उसे अपने हाथों में थामा तो ख़ुद से एक वादा किया कि कभी भी इसकी ज़िंदगी अपनी जैसी नहीं होने दूंगी. यह अपनी मर्ज़ी की ज़िंदगी जीएगी.

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अनाम्या स्कूल जाने लगी. फिर से मेरी ज़िंदगी में वही खालीपन आ गया. दूसरे बच्चे के बारे में भी नहीं सोच सकती थी, क्योंकि डॉक्टर ने पहले बच्चे के समय ही चेतावनी दे दी थी कि दूसरा बच्चा प्लान करने पर जान को ख़तरा हो सकता है. इसी बीच प्रवीण अपने काम के लिए घर पर कंप्यूटर ले आए. मुझे तो जैसे खिलौना मिल गया था. बस, रात-दिन यही धुन रहती कि किसी भी तरह मैं कंप्यूटर का हर एप्लीकेशन सीख जाऊं.

धीरे-धीरे मैं कंप्यूटर में इतनी माहिर हो गई कि प्रवीण के कंप्यूटर के सारे काम मैं ही करने लगी. वे भी बेहद ख़ुश थे. एक तो मुफ़्त की कंप्यूटर ऑपरेटर मिल गई थी और मेरे हुनर को बरबाद करने की ग्लानि भी जाती रही. बाद में हमने घर पर ही साइबर कैफे खोल लिया और वहीं पर मैं लोगों को कंप्यूटर सिखाने लगी. अब ज़िंदगी पहले से बेहतर लगने लगी थी.

लोग नए मिलेनियम के लिए तैयार थे और मेरी ज़िंदगी में भी नया अध्याय शुरू होनेवाला था. रिटायर्ड कर्नल दुरानी मेरे साइबर कैफे कम कंप्यूटर इंस्टिट्यूट के सबसे होशियार स्टूडेंट थे. हमारी ख़ूब जमती थी. वो हमेशा कहते थे कि अपराजिता, तुम अपना टैलेंट बरबाद कर रही हो. रिटायर होने के बाद कर्नल दुरानी एक मल्टीनेशनल कंपनी के लिए गेस्ट हाउस चलाते थे. उनका गेस्ट हाउस हमारे घर से सौ गज की दूरी पर था. उन्होंने उसी गेस्ट हाउस में मैनेजर की नौकरी मुझे ऑफ़र की.

दिल में फिर से एक उम्मीद जागी. स़िर्फ दो घंटे के लिए जाना था और गेस्ट हाउस भी घर के इतने पास था कि प्रवीण को मनाना मुश्किल न था.

बहुत ख़ुश थी मैं. मुझे जब पहली तनख़्वाह मिली, तो मम्मी-पापा और सास-ससुर के लिए उपहार ख़रीदा. मेरे लिए वो दो घंटे बेहद ख़ुशनुमा होते थे, जब मैं गुड्डू की बहू से अपराजिता बनती, पर समय हमेशा एक-सा नहीं होता न. जब कर्नल दुरानी ने गेस्ट हाउस की लीज़ खत्म होने की ख़बर मुझे सुनाई, तो मैं सन्न रह गई. लगा, अब मैं ज़िंदगीभर गुड्डू की बहू बनकर ही रह जाऊंगी. साइबर कैफे का ट्रेंड भी तब तक ख़त्म हो चुका था. मुझे घर की चारदीवारी के अलावा कोई रास्ता नहीं दिख रहा था.

चार महीने से घर पर रहते हुए मैं अवसादग्रस्त हो गई. प्रवीण से लड़ती, अनाम्या को डांटती और कुढ़ती रहती. किसी से मिलना-जुलना, यहां तक कि फ़ोन पर बात करना भी बंद कर दिया था. लगता था कि सब मुझ पर हंस रहे हैं. जैसे कह रहे हों, “बड़ा इस उम्र में नौकरी करने चली थी. लौट के बुद्धू घर को आए…” पूरी तो नहीं, पर आधी पागल तो मैं हो ही गई थी.

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कर्नल दुरानी ने जब मेरे बारे में सुना, तो मिलने के लिए मेरे घर चले आए. बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि उनके एक मित्र किसी मल्टीनेशनल कंपनी की शाखा भारत में खोलना चाहते हैं. उन्हें ऑफ़िस असिस्टेंट की ज़रूरत है, फिर कुछ सोचते हुए उन्होंने कहा, “अपराजिता, तुम उस पद के लिए आवेदन क्यों नहीं भरती?”

मैं भौंचक्की रह गई. इस उम्र में बिना किसी अनुभव के, वो भी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी! उन्होंने बहुत ज़ोर दिया, तो बिना किसी उम्मीद के मैं इंटरव्यू के लिए तैयार हो गई. धड़कते दिल से जब पांच सितारा होटल में इंटरव्यू के लिए पहुंची तो मिस्टर कुलकर्णी को देखकर मेरे हाथ-पांव फूल गए. 6 फ़ीट के मिस्टर कुलकर्णी मुझे बेहद रोबीले लगे, पर जब उनसे बात की तो काफ़ी सरल लगे.

इंटरव्यू भी अजीब था. जितने सवाल उन्होंने मुझसे किए, उससे कहीं ज़्यादा मैंने उनसे. “क्या इस उम्र में बिना किसी अनुभव के मैं यह काम कर पाऊंगी?” पूछने पर उन्होंने मुझे समझाया, “अपराजिता, तुम इंजीनियर हो, इतनी अच्छी अंग्रेज़ी बोलती हो, कंप्यूटर एक्सपर्ट हो और सबसे बड़ी बात है कि तुम काम करना चाहती हो. मैंने फैसला किया है कि इस पद के लिए तुम ही उपयुक्त उम्मीदवार हो.”

मैं तो सातवें नहीं, आठवें आसमान पर थी. पर कोई और भी था, जो मुझसे भी ज़्यादा ख़ुश था. वो थी मेरी टीनएजर बेटी. जब उसने मुझसे कहा, “ममा, मुझे आप पर गर्व है”, तो ऐसा लगा जैसे दुनिया की सारी ख़ुशियां मुझे मिल गई हों. मां-बेटी की जुगलबंदी के आगे प्रवीण भी हार गए और मुझे 38 साल की उम्र में अपना करियर शुरू करने का मौक़ा मिल ही गया.

संघर्ष यहीं ख़त्म नहीं हुआ. जिस ‘अपराजिता’ नाम की पहचान के लिए मैं इतनी परेशान थी, वह पहचान बनाने के लिए मुझे अब भी संघर्ष करना पड़ रहा था. जब मुझसे आधी उम्र की लड़कियां मेरा नाम लेकर बुलातीं, तो बेहद अजीब लगता. हर दिन एक नई चुनौती थी. पर मन में बस यही ठाना था कि कुछ भी हो, मुझे चारदीवारी में वापस कैद नहीं होना.

समय बीतता गया. मैं अपनी मेहनत और लगन से काम सीखती चली गई और यहां इस मुक़ाम तक पहुंच गई कि मुझे ‘बेस्ट कॉर्पोरेट एक्ज़ीक्यूटिव’ के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. मेरी कहानी शायद बहुत ख़ास नहीं है, पर फिर भी

चाहती हूं कि अपनी इस कहानी को हर उस औरत के साथ बांटूं, जो शादी, बच्चे-परिवार में गुम होकर अपने करियर को भूल-सी गई है. कोई बात नहीं, अगर आप आज कुछ नहीं कर पा रहीं, तो बस अपने आप को अपडेट रखें. करियर तो कभी भी शुरू किया जा सकता है.

बहुत साल पहले मेरी एक सहकर्मी थी अंकिता. उसे लिखने का बहुत शौक़ था.

वह अक्सर कहती थी, “अपराजिता, तुम्हारी कहानी सबको पता चलनी चाहिए, मैं एक दिन ज़रूर लिखूंगी.”

चलो, उसको फ़ोन करती हूं. दिल कर रहा है उससे बहुत कुछ कहने-सुनने का. अपनी जीवनधारा के अनकहे पन्नों को ख़ुद में समेट मैंने घर में प्रवेश किया, तो मेरी नातिन मचलती हुई मेरी तरफ़ भागी, इस ट्रॉफी को लेने के लिए.

 अंकिता कश्यप

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Usha Gupta

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