चाय की प्याली देख संध्या ने बड़ी ही ख़ूबसूरत-सी चार पंक्तियां कही. यह सुनकर वीणा हंसने लगी और फिर प्रशंसा करते हुए उसने संध्या से कहा, “वाह संध्या, तुम तो अच्छी लेखिका बन सकती हो.”
इस बात पर संध्या ज़ोरों से खिलखिला कर हंस पड़ी और विस्मित होकर कहा, “लेखिका और मैं श?”
“हां बिल्कुल, तुम्हारे भीतर छिपी हुई है यह प्रतिभा. इसे बाहर निकालो.” वीणा ने गंभीर होते हुए कहा.
“मज़ाक मत करो वीणा. मैं तो सपने में भी लेखिका बनने के बारे में सोच नहीं सकती.” संध्या ने नकारते हुए कहा.
वीणा ने फिर कहा, “मैं तुम्हारी दोस्त हूं और तुम्हें बहुत अच्छी तरह से जानती हूं. मैं मज़ाक नहीं कर रही हूं.” यह कहते हुए वह उठ खड़ी हुई.
वीणा संध्या के पड़ोस में ही रहती थी. दोनों सहेलियां हमेशा एक-दूसरे से अपना सुख-दुख बांटा करती थी. वीणा की बात तो उस समय संध्या ने मज़ाक कहकर टाल दी थी, किंतु सोते समय उसके अंतर्मन में कुछ स्पंदन-सी हुई थी. जिसे उसने अनसुना करना चाहा था, किंतु उस वेग को वह संभाल नहीं पाई.
आज सुबह से ही संध्या का मन किसी भी काम को करने में नहीं लग रहा था. बस उसका जी चाह रहा था कि काग़ज़, कलम लेकर वह किसी कमरे में बंद हो जाए. सुबह के सात बज चुके थे. अभी तक वह पति और अपने तीनों बच्चों का नाश्ता बना कर उन्हें विदा कर चुकी थी. अब बारी सास-ससुर की थी. सास अभी तक तीन बार पुकार चुकी थीं.
जल्दी से पहले घर के सारे काम निपटा लूं. फिर आराम से बैठकर लिखूंगी… यह सोचते हुए संध्या दुगुने उत्साह के साथ घर के काम में लग गई. अख़बार वाले से निपट कर वह रसोईघर के तरफ़ जा ही रही थी कि दूधवाले ने आवाज़ दी. संध्या जल्दी से दूध की पतीली लेकर दरवाज़े की ओर दौड़ पड़ी.
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दूध लेकर लौटी तब तक ससुरजी ने आवाज़ दी थी, “बहू, चाय कब तक मिलेगी?” सास ने कहा तो कुछ भी नहीं, मगर ना जाने कैसे-कैसे मुंह बना रही थी. संध्या ने जल्दी से भिगोकर रखें बादाम, खजूर और फीकी चाय ससुर को दिए. इस बीच उसने गैस पर दूध उबालने के लिए चढ़ा दिए थे. अब सास की सामग्री वह तैयार कर रही थी. उसने जल्दी से दूध फाड़कर छेना बनाया, नमकीन-बिस्किट निकाला और चीनी वाली चाय बनाई. सभी को लेकर वह सास के पास गई.
सास ने आंखें लाल-पीली करते हुए कहा, “घड़ी देखा है तुमने? आज मुझे नहाने और पूजा करने में कितनी देर होगी इससे तुमको क्या मतलब? नाश्ता देर से करूंगी, तो पेट में गैस बनेगी और फिर पूरा दिन बर्बाद.” सास ने आंखें लाल-पीली करते हुए संध्या को दस बातें सुना दी. साथ में वह छेना भी खाती जा रही थीं. संध्या किसी तरह से जान छुड़ाकर रसोईघर की तरफ़ भागी.
जल्दी से रसोई बना लेती हूं, फिर कुछ लिखूंगी… संध्या के मन में हज़ारों विचार आने शुरू हो गए थे. भीतर एक छटपटाहट थी, मगर बेबस इतनी मानो किसी ने उसे जंज़ीरों में जकड़ दिया हो.
तभी धोबी की आवाज़ सुनाई पड़ी, “मेमसाहब कपड़े देने हैं, तो दे दो.” उसकी तंद्रा टूटी मानो पांचवे तले से वह सीधे नीचे गिर गई हो.
“आ रही हूं.” कहते हुए उसने सास-ससुर, पति और बच्चों के कपड़ों को इस तरह निकालना शुरू किया मानो सीबीआई के इंस्पेक्शन में घर में छापामारी पड़ी हो. ग़ुस्से और झल्लाहट के बीच में वह कपड़े गिन कर धोबी को दे रही थे.
साथ में सोचती भी जा रही थी, काश मेरे पास एक बंदूक होती. जितने कपड़े हैं उतने गोली मारकर इसका सीना छलनी कर देती. इसे भी अभी ही आना था…
अब संध्या के हाथ जल्दी-जल्दी सब्ज़ियों को काट रहे थे. वह इस तरह से सब्ज़ियों को काट रही थी मानो कसाई हो. उसके बाद कुकर में उसने चावल-दाल चढ़ा कर जल्दी से आटा गूंधना शुरू किया, क्योंकि सास-ससुर के मॉर्निंग ब्रेकफास्ट के बाद दूसरा ब्रेकफास्ट देना था.
संध्या ने अपनी सारी कुढ़न आटे पर निकाल दी, नतीज़ा यह हुआ कि उसके फुलके बहुत ही अच्छे बने. सास-ससुर को ब्रेकफास्ट कराने के बाद कर वह जल्दी से नहाने गई.
अचानक याद आया, अरे पूरा घर अस्त-व्यस्त है. उसे ठीक करना तो मैं भूल ही गई थी. डस्टिंग भी करना है…
संध्या के पति विशाल और बच्चों के जाने के बाद उस घर की हालत ऐसी हो जाती थी मानो थोड़ी देर पहले तूफ़ान आया हो या पूरे घर में बंदर उछल-कूद कर के गया हो. बिखरे घर को संवारने और समेटने में संध्या को क़रीब आधा घंटा लग गया.
वह सारे काम निपटा कर बाथरूम में घुसी और अभी नहाना ही शुरू किया था कि अचानक याद आया वॉशिंग मशीन में कपड़े पड़े थे, उन्हें वह फैलाना भूल गई थी. नहा कर निकली, तो जल्दी से सारे कपड़े उसने तार पर फैलाए. गीले बालों को शिवजी की जटा की तरह बांधकर उसमें क्लचर फंसा दिया और पूजाघर की तरफ़ दौड़ पड़ी. भगवान को अगरबत्ती दिखाने के बाद मंत्र पढ़कर बेचैनी में उसने इस कदर घंटी बजाना शुरू किया जैसे साक्षात शिवजी के गण उसमें प्रवेश कर चुके हों.
सास-ससुर को प्रसाद देने के बाद उसने घड़ी देखा, बारह बज गए बच्चों को स्टॉपेज से लाना है…
वह निकलने को थी कि अचानक उसे याद आया, मैंने तो अभी नाश्ता भी नहीं किया है…
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वह रसोई में दौड़ी. रोटी में सब्ज़ी डालकर उसे रोल बनाकर वह मुंह में इस तरह ठूस रही थी जैसे उपवास के पहले का अंतिम खाना हो. घर में बच्चे आ चुके थे. उनकी धमाचौकड़ी और सास-ससुर के अनगिनत नखरों के बीच संध्या का सेकंड शिफ्ट का काम शुरू हो चुका था. इसे निपटाते हुए लगभग पौने तीन हो चुके थे. थक-हार कर वह अपने बेडरूम में आई. उसने बिस्तर पर लेट कर अपनी कमर सीधी की. थोड़ी राहत मिली, तो सोचने लगी- पांच बजे विशाल के ऑफिस से आने के बाद तो मैं पूरी तरह से पैक हो जाऊंगी, क्योंकि उनके आते ही नाश्ते-चाय, फिर रात के डिनर की तैयारी और उसी के साथ सुबह की तैयारी. फिर पति और बच्चों के साथ गपशप, इन सबके बीच तो मैं कुछ लिख हीं नहीं पाऊंगी…
संध्या ने फिर से अपने मन को समझाया कि चलो दो घंटे का तो समय है. इस तरह हर रोज़ कुछ समय निकाल ही लूंगी…
वह उठी पेपर-पैड और कलम लिया और सोचने लगी. यह क्या? दिमाग़ तो बिल्कुल शून्य हो गया है. मन में कोई विचार आ क्यों नहीं रहा है? काम करते समय कितने विचार आ रहे थे, जा रहे थे, अब क्या हो गया है? मैं तो सब भूल गई…
पेपर पैड उसे सास-ससूर की तरह आंखें फाड़े देख रहे थे और कलम बेचारा संध्या की उंगलियों में निर्जीव-सा पड़ा था. इसी उधेड़बुन में थकी-हारी संध्या को नींद ने कब भ्रमित कर दिया, उसे पता ही नहीं चला.
अचानक संध्या का पूरा शरीर कांप गया मानो घर में भूकंप आ गया हो. पूरे घर में भूचाल और सास की कर्कश आवाज़ उसके कानों में पड़ी और उछलकर वह बिस्तर से ज़मीन पर आ गई. इस क्रम में पेपर-पैड और कलम हवा में लहराते हुए फ़र्श पर गिर कर पलंग के नीचे अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे.
संध्या ने जब यह समाचार सुना कि ननद के पति का ट्रांसफर किसी रिमोट एरिया में हो गया है, जहां ननद व बच्चों के साथ तुरंत जाना संभव नहीं था. इस कारण से ननद छह महीने के लिए अपने मायके रहने आ गई थी. स्वभाव से सास अगर चट्टान थी, तो ननद पहाड़ जैसी थी और बच्चे तो ऐसे मानो जंगल से निकलकर पहली बार वो मानव के बीच में आए हों. संध्या के पांव तले भूकंप तो आया ही था, साथ ही यह ख़बर सुनकर उसके सिर पर बादल भी फट गया.
बेचारे पेपर-पैड और कलम कामवाली के झाड़ू के शिकार बने और अंततः कूड़ेदान में बैठकर अपनी और संध्या दोनों के क़िस्मत पर आंसू बहा रहे थे. किन्तु कूड़ेदान… वह तो गर्व से सीना ताने, अपनी क़िस्मत पर खिलखिला कर हंस रहा था.
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