Short Stories

कहानी- नेहरू अपार्टमेंट (Short Story- Nehru Apartment)

“अविजीत जीवित होते, तो अपनी मां का ख्याल रखते न! तो उनकी देखभाल कर मैं अविजीत का ही फर्ज़ पूरा कर रही हूं. अविजीत का बहुत साम्य था मम्मी के साथ. बात करने का, हंसने का बिल्कुल वही ढंग है. मम्मी में मैं अविजीत को ही देखती हूं और यूं उससे जुड़ा महसूस करती हूं.”

साउथ दिल्ली में नए बने थे- नेहरू अपार्टमेंट्स. बिल्डर ने साथ-साथ के दो प्लॉट ख़रीदकर उस पर बारह फ्लैट्स बना लिए थे एकदम आधुनिक सुविधाओं से लैस. हम जब इस घर में आए, तो आस-पड़ोस बस चुका था.

बिल्डिंग में रहनेवालों का एक-दूसरे के प्रति स्नेह व अपनापन था. आवश्यकता पड़ने पर बच्चों को पड़ोसी के पास छोड़ गृहिणियां अपने ज़रूरी काम निबटा आतीं और महरी के छुट्टी लेने पर पड़ोस की बाई आकर काम कर जाती. बिल्डिंग के आगे बगीचा, गेट पर खड़ा चौकीदार, बच्चे-बड़ों सब को सुरक्षा का एहसास दिलाता. हम दोनों और हमारी डेढ़ वर्षीया बेटी रिया- यही छोटा-सा परिवार था हमारा. सोमेंद्र एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में काम करते थे. रात देर से घर लौटते और अक्सर शहर से बाहर भी जाना पड़ता था.

सब परिवारों का आपसी मेल-मिलाप था, बस, ठीक हमारे ऊपर रहनेवाली मां-बेटी को छोड़कर. चूंकि वे किसी से मिलती-जुलती नहीं थीं, इसलिए लोग उनके बारे में तरह-तरह की बातें बनाते. कोई उन्हें घमंडी बताता, तो कोई नीरस. कुछ लोगों के अनुसार बेटी सुमंगला का विवाह-विच्छेद हो चुका था. हमारा फ्लैट दूसरी मंज़िल पर था और उनका तीसरी पर. सीढ़ियों पर उनके आने-जाने की आहट सुनाई पड़ जाती. मां चार बजे के आसपास लौटती और बेटी छह के बाद. एक-दो बार सीढ़ियों पर मुलाक़ात भी हुई, लेकिन विशेष बातचीत नहीं हुई. हमें इस घर में आए अभी अधिक समय नहीं हुआ था और सबसे उनके बारे में नकारात्मक सुनकर मैं बहुत उत्सुक भी नहीं थी उनसे मैत्री का हाथ बढ़ाने के लिए. अब सोचती हूं, पढ़े-लिखे होने का, सभ्य होने का दंभ भरनेवाले हम मनुष्य, बिना सच को जाने दूसरों के प्रति कितनी ग़लत धारणाएं बना लेते हैं.

रिया ने जब से चलना सीखा है, वह एक जगह टिककर बैठ ही नहीं सकती, विशेषकर शाम के समय नीचे खेलते बच्चों की आवा़ज़ सुनते ही वह नीचे जाने की ज़िद करने लगती है. उस दिन सुबह से ही मुझे तेज़ बुख़ार था और उसे नीचे ले जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी. सामने खिलौनों का ढेर लगाकर मैंने उसका मन बहलाने की बहुत कोशिश की, पर वह नीचे जाने के लिए ज़िद किए बैठी थी. इतने में धोबी प्रेस के कप़ड़े ले आया. दरवाज़ा खोलते ही रिया सीढ़ियों की तरफ़ लपकी और नीचे जाने के लिए मचलने लगी.

मैं परेशान खड़ी थी कि क्या करूं कि सुमंगला ऊपर आती दिखी और आकर रिया को पुचकारने लगी. मुझ पर नज़र डालते ही वह समझ गई कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है. जब उसे पता चला कि रिया नीचे जाने के लिए ज़िद कर रही है, तो वो रिया को नीचे जाकर घुमाने के लिए तैयार हो गई. उसने मुझे आश्‍वस्त किया कि वह रिया का पूरा ध्यान रखेगी. मुझे थोड़ी हिचकिचाहट तो हुई, पर और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. सुमंगला बोली, “रिया के खाने-पीने का बता दो अथवा दे दो मैं ऊपर ले जाती हूं, ताकि तुम थोड़ी देर आराम कर सको.”

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अगले दिन भी वह काम से लौटते हुए घर के यहां रुकी. सीधे दफ़्तर से आई थी, तो मैंने उससे चाय के लिए आग्रह किया. वह चाय पीने के लिए मान गई, पर इस ज़िद पर कि वही बनाएगी. ऊपर जाते समय रिया स्वयं उसके संग हो ली.

मुझे वह अच्छी लगने लगी थी. रंग सांवला ज़रूर था, लेकिन मनमोहक लगता था. छरहरी देह और लंबा क़द. लंबी-सी एक चोटी. चेहरे पर आत्मविश्‍वास के साथ एक नूर था, जो आकर्षित करता था. लेकिन जाने क्यों मुझे उसकी आंखें उदास लगीं. जब वह हंसती, तब भी आंखें जैसे उसकी हंसी में शामिल नहीं होती थीं.

मैं ठीक हो गई, तो उसने मुझे भी ऊपर चलने का निमंत्रण दिया.

रिया तो ऊपर जाकर यूं खेलने लगी जैसे उसका अपना ही घर हो. भीतर से खिलौने उठा लाई, जो सुमंगला ने उसके लिए ला रखे थे. सुमंगला की मम्मी चाय बना लाईं, साथ में घर की बनी नमकीन भी थी. सुमंगला ने बताया कि उसकी मम्मी एक समाजसेवी संस्था के साथ जुड़ी हुई हैं, जो झुग्गी-झोपड़ी में रहनेवाली विधवाओं की देखभाल करती है. मैने ऐसी संस्था के बारे में पहली बार सुना था. अतः उसी के बारे में चर्चा होने लगी.

चाय पीते हुए मेरी नज़र दीवार पर लगी एक बड़ी-सी फोटो पर पड़ी. पायलट की वर्दी में 25-26 साल के एक ख़ूबसूरत नौजवान की तस्वीर पर फूल-माला चढ़ी हुई थी. सुमंगला ने मेरी नज़र देख ली थी, पर वह ख़ामोश रही और मैं भी पहली ही मुलाक़ात में उनका दर्द नहीं कुरेदना चाहती थी.

सुमंगला को रिया से मोह-सा हो गया था. काम से लौटते हुए वह ज़रूर थोड़ी देर रुककर ही ऊपर जाती. बच्चे भी प्यार की भाषा ख़ूब समझते हैं. रिया उसका इंतज़ार करती और उसे देखकर ख़ुश होती. मैं जब भी सुमंगला को रिया के संग खेलते देखती, उसके चेहरे पर छलकते स्नेह को देखती, तो यह जानने की उत्कंठा होती कि उसका तलाक़ हो चुका है अथवा उसने विवाह नहीं किया? चालीस की उम्र तो पार कर चुकी होगी. शादी हुई होती, तो आज उसका अपना परिवार और बच्चे होते. ऐसा भी नहीं लगता था कि उसके लिए अपना करियर इतना महत्वपूर्ण रहा हो कि वह शादी और बच्चों के झमेले में नहीं पड़ना चाहती हो. मेरी जब उससे अच्छी मैत्री हो गई और एक दिन जब रिया उसकी गोदी में सो गई, तो मैंने उससे पूछ ही लिया.

“ज़िंदगी के सब सपने तो पूरे नहीं होते न वसुधा! बस सपनों के टूट जाने पर व्यक्ति स्वयं न टूटे इतनी शक्ति होनी चाहिए.” कहकर वह थोड़ी देर को चुप हो गई.

“एक फौजी पिता के बेटे थे अविजीत. अभी वे स्कूल में ही थे कि उनके पिता कश्मीर में एक आतंकवादी की गोली का शिकार हो गए. मैं और मेरा भाई भी उसी स्कूल में थे. मेरा भाई अविजीत के संग था और मैं उनसे दो वर्ष जूनियर. यूं हम एक-दूसरे को जानने लगे. दोस्ती हुई, जो धीरे-धीरे प्यार में बदलती गई. मेरे पैरेंट्स जानते थे यह बात और अविजीत की मम्मी भी. हम भिन्न प्रांतों से थे, भिन्न भाषी, पर उनमें से किसी को भी इस बात से आपत्ति नहीं थी. अविजीत का सपना एयरफोर्स में पायलट बनने का था, जो उन्होंने पूरा किया. विवाह की जल्दी नहीं थी. मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर लेना चाहती थी और अविजीत भी अपने जॉब में सेटल हो जाना चाहते थे. भैया पढ़ाई के लिए कुछ वर्षों के लिए विदेश जा रहे थे. घर के बड़ों ने सोचा उनके जाने से पहले सगाई कर दी जाए.

अविजीत का विभिन्न जगहों पर आना-जाना लगा ही रहता था, पर टेलिफोन, ईमेल ने तो सब दूरियां ख़त्म कर दी थीं, सो आपसी संपर्क बना ही रहता. लेकिन एक दिन वह सारे संपर्क सूत्र तोड़ गया सदा के लिए, बस सूचना भर मिली. लाश भी बरामद नहीं हो पाई. दुश्मन के क्षेत्र में हुआ था हादसा. आज भी वह ख़बर झूठी लगती है. आज भी लगता है लौट आएंगे वे एक दिन. बुद्धि जानती है कि यह झूठा दिलासा है, पर मन नहीं सुनता उसकी बात.”

कहते-कहते वह फिर ख़ामोश हो गई. मैं भी क्या बोलती?

वह शाम के समय अक्सर आ जाती, पर इस बात का ज़िक्र हमारे बीच दोबारा नहीं छिड़ा. वह रिया से खेल रही होती, तो प्रसन्न होती और मैं वह बात छेड़कर उसका मूड बिगाड़ना नहीं चाहती थी. आज के युग में भी कोई इतना अटूट प्यार कर सकता है, मैं तो इसी बात पर अभिभूत थी. विवाह नहीं हुआ था तो क्या! उसने अपने प्यार की याद से ही वफ़ादारी निभाई थी.

एक दिन सुमंगला ने बताया कि मम्मी के पैर में मोच आ गई है और डॉक्टर ने उन्हें कुछ दिनों के लिए चलने-फिरने को मना किया है, इसलिए वह आजकल घर पर रहती हैं और उनकी देखभाल के लिए कामवाली बाई दिनभर को रुक जाती है. दूसरे दिन सुबह का काम समाप्त कर मैं और रिया उन्हें देखने ऊपर चले गए. वह आरामकुर्सी पर बैठीं कोई पुस्तक पढ़ रही थीं. कुर्सी पर बैठी भी वह चुस्त और स्मार्ट लग रही थीं. गोरा खिला रंग और तीखे नैन-नक्श. हमें देखकर वह बहुत ख़ुश हुईं, “मेरा कुछ समय अच्छा बीत जाएगा.” वे बहुत ख़ुशमिज़ाज और बातूनी थीं. मुझे भी उनसे बात करके अच्छा लगा, सो जब तक उन्हें आराम बताया गया, मैं और रिया सुबह के समय उन्हीं के पास जा बैठते.

दीवार पर लगी तस्वीर पर अक्सर निगाह पड़ जाती. एक दिन मज़ाक के मूड में मैंने उनसे कह ही दिया, “आपकी बेटी की शक्ल आपसे उतनी नहीं मिलती, जितनी उसके मंगेतर से.”

सहसा जैसे उनके चेहरे से किसी ने हंसी पोंछ दी हो. कुछ क्षण रुककर बोलीं, “यह मेरे बेटे की तस्वीर है, न कि होनेवाले दामाद की.”

“और सुमंगला…?”

“उसकी मंगेतर थी.”

“मतलब! सुमंगला आपकी बेटी नहीं है?”

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“मैं तो भूल ही चुकी हूं इस बात को. कितना तो ख्याल रखती है मेरा. मुझे अकेली कहीं नहीं जाने देती. ज़बरदस्ती एक टैक्सी लगा रखी है, जो सुबह दस बजे ले जाती है और चार बजे छोड़ जाती है. अपनी मां को तो वह ‘आई’ कहकर बुलाती थी. मराठी में ‘आई’ ही कहते हैं मां को. सगाई हो जाने के बाद मुझसे मिलने आया करती थी. कुछ दिन न आती, तो मैं ही बुलवा भेजती. इन दोनों के सिवा मेरा था ही कौन? तभी से ‘मम्मी’ कहने लगी है मुझे.

मैंने तो एक लंबी उम्र अकेले ही काटी है. अविजीत के पापा जीवित थे, तो बहुत व्यस्त रहा जीवन. किन्तु अविजीत अभी छोटा ही था कि वे कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा मारे गए. पर तब हिम्मत थी, अविजीत को पालने का एक बड़ा मक़सद था सामने. उम्मीदें ज़िंदा थीं. नौकरी करने की ज़रूरत तो नहीं पड़ी, अच्छी पेंशन मिलती थी, सो मैंने अपना सारा समय समाज सेवा में लगा दिया. परंतु अविजीत के जाने के बाद से बुरी तरह टूट गई मैं. यदि सुमंगला ने सहारा न दिया होता तो…

इस हादसे के बाद उसके अपने पिता को दिल का ज़बरदस्त दौरा पड़ा. अस्पताल की भागदौड़, ऑपरेशन, इन सबके बीच वह मेरा हालचाल लेती रही. सुमंगला का भाई आया था पिता के ऑपरेशन के समय, पर वह कितने दिन रुक सकता था? सुमंगला ने ही संभाला सब… घर भी इतना पास नहीं था और वह ख़ुद भी बुरी तरह से टूट चुकी थी… पर अपना दर्द भूल हम तीन प्राणियों को संभालती रही. वह दिन याद करती हूं, तो ऐसा लगता है जैसे कोई ज़बरदस्त झंझावत ही आया था हमारे जीवन में, जो बहुत कुछ उड़ा कर ले गया अपने साथ. दो वर्ष तक भागदौड़ की, परंतु अपने पापा को न बचा सकी सुमंगला… शायद हम स्त्रियां अपना जो दर्द आंसुओं में बहा देती हैं, पुरुष उसे पी जाते हैं और तभी सहन नहीं कर पाते. आख़िर चोट तो उन्हें भी लगती ही है.

वह मुझे अकेली नहीं छोड़ना चाहती थी. बहुत दिनों से ज़ोर डाल रही थी कि मैं चलकर उनके ही संग रहूं. उधर उसकी मां अकेली पड़ गई थी और इधर मैं. उसकी परेशानी देखकर मैंने वहीं चलकर रहने की हामी भर दी. हम तीनों प्राणी एक साथ रहने लगे. एक-दूसरे को ढांढ़स बंधाते. हमारी ओर से निश्‍चिंत हो सुमंगला ने नौकरी करनी शुरू की. उसकी आई और मैंने बहुत कोशिश की कि वह विवाह करने को राज़ी हो जाए. अच्छी जगह रिश्ता हो सकता था, पर वह नहीं मानी. हमने सोचा नौकरी करेगी, तो स्वयं कोई पसंद आ जाएगा, पर उसने तो जैसे अपने दिल में प्यार के सभी दरवाज़े मज़बूती से बंद कर दिए थे.

लगभग दस वर्ष हम एक साथ रहे, फिर सुमंगला की मां को भी कैंसर हो गया. ऑपरेशन व कीमो थेरेपी सब कुछ करवाया, पर एक तो उम्र, फिर निराशाएं ले ही गईं उन्हें. बहुत मुश्किल हो गया था, इतनी सारी पुरानी यादों के बीच जीना. सुमंगला ने अपना तबादला यहां करवा लिया. मेरे लिए तो जहां रहूं काम है. दूसरों के दुख में हाथ बंटा, उनकी सहायता कर, अपना दुख कम लगने लगता है.” और सुमंगला का नज़रिया सुन तो मैं दंग ही रह गई.

एक दिन जब मैंने उसके त्याग की चर्चा की तो वह बोली, “अविजीत जीवित होते, तो अपनी मां का ख्याल रखते न! तो उनकी देखभाल कर मैं अविजीत का ही फर्ज़ पूरा कर रही हूं. अविजीत का बहुत साम्य था मम्मी के साथ. बात करने का, हंसने का बिल्कुल वही ढंग है. मम्मी में मैं अविजीत को ही देखती हूं और यूं उससे जुड़ा महसूस करती हूं. इन सबने बहुत चाहा कि मैं कहीं और विवाह कर लूं, परंतु अविजीत तो मेरे रोम-रोम में बसे हुए हैं. उन्हें स्वयं से अलग करना संभव है क्या?” सुमंगला के प्यार और समर्पण की भावना को देख मेरी आंखें नम हो गईं.

प्यार जब दैहिक और सांसारिक आवश्यकताओं से ऊपर उठ जाता है, तो उसमें कोई अलौकिक तत्व आ जाता है शायद.

       उषा वधवा

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Usha Gupta

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