“मैंने पुनीत और नूपुर को आड़े हाथों लिया कि उनके पापा को कितना दुख होगा कि उनकी वजह से नूपुर का प्रमोशन रुक गया. ये बच्चे कुछ समझते ही नहीं हैं.” मैं भावविभोर निर्निमेष नेत्रों से जीजी को देखे जा रही थी. “… वैसे नासमझ तो मैं भी कुछ कम नहीं थी. अपने ही दुख में डूबी रही. यह समझने का प्रयास ही नहीं किया कि मैंने अपना पति खोया है, तो बच्चों ने भी तो अपने स्नेहिल पिता को खोया है.”
एक महीने के विदेश प्रवास से लौटते ही मन जल्द से जल्द सविता जीजी से मिलने को व्याकुल हो उठा. रात को सोते समय निश्चय किया कि सवेरे जल्दी सभी काम निबटाकर टैक्सी से निकल जाऊंगी. पूरा दिन जीजी के साथ ही बिताऊंगी. जाने कैसी होंगी जीजी अब? चार महीने होने को आ रहे हैं. जीजाजी के जाने का ग़म भुला पाई होंगी या नहीं? ‘हे ईश्वर, जीजी को इस आकस्मिक विपदा को सहने की शक्ति दो…’ मेरे होंठ अपनी इन दिनों की नित्य की प्रार्थना में बुदबुदा उठे थे. क्लांत शरीर बिस्तर पर आराम कर रहा था. पर व्याकुल मन फड़फड़ाता विगत के घटनाक्रम में विचरण करने निकल पड़ा था.
जीजाजी के अचानक हृदयाघात से गुज़र जाने के बाद जीजी को संभालना हम सब परिवारजनों के लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा था. दोनों की 52 वर्षों की राधाकृष्ण सी जोड़ी को जब हम नहीं भूल पा रहे थे, तो जीजी से उम्मीद करना व्यर्थ था. उनके शोक का सचमुच कोई पारावार न था. उनकी तो पूरी दिनचर्या ही जीजाजी के इर्दगिर्द घूमती थी. साथ उठना-बैठना,
खाना-पीना, सोना, बतियाना, घूमना, योग करना, पूजा करना, बाज़ार जाना आदि सब कुछ साथ साथ… ज़ाहिर था क़दम-क़दम पर,
मिनट-मिनट पर वे उन्हें मिस कर रही थीं. 15 दिन बीतते-बीतते घर रिश्तेदारों से खाली हो गया और महीना होते-होते तो लोगों की आवाजाही भी बंद हो गई थी. मैं चूंकि इसी शहर में हूं, तो बहू नूपुर ने मुझसे रोज़ आ जाने का आग्रह किया था.
‘मौसीजी, आपको तकलीफ़ तो होगी, पर नित्य कुछ घंटे आप मम्मीजी के पास बैठी रहेंगी, तो उन्हें अच्छा लगेगा. अभी अकेले उनका दिल घबरा जाएगा. वैसे भी कल से मुझे स्कूल रिजॉइन करना है.” नूपुर की चिंता वाजिब थी. मैं लगभग रोज़ ही जीजी से मिलने पहुंच जाती थी. जिस दिन नहीं जा पाती थी, फोन पर लंबी बातचीत कर लेती थी. जीजाजी के संग बिताए सुख-दुख के दिन स्मरण करते हुए नित्य ही हम बहनों की आंखें नम हो जाया करती थीं.
“बहुत ज़िंदादिल थे तेरे जीजाजी! समय का लंबे से लंबा अंतराल भी मेरे दिलोदिमाग़ से उनकी स्मृतियों को धूमिल नहीं कर पाएगा. उनके रहते हर दिन उत्सव था. बच्चे-बड़े सबके अज़ीज़ थे वे! विभू को चाहे होमवर्क करना हो, चाहे शतरंज खेलना हो, उसे दादाजी ही साथ चाहिए होते थे. आए दिन पार्टी करते रहते थे वे. आज बेटे को इंक्रीमेंट मिला है सब होटल चलेंगे, बहू की बीएड हो गई है सबको मेरी ओर से डिनर, मेरी पेंशन बढ़ी है सब घूमने चलेंगे, विभू के 90 प्रतिशत अंक आए हैं उसके सब दोस्तों को पार्टी… खाने-खिलाने का इतना शौक! मैं कभी टोक भी देती, तो चुटकियों में मेरी आशंकाओं को निर्मूल साबित कर देते, “सविता, ज़िंदगी का क्या भरोसा? सब यहीं छोड़कर जाना है. जीते जी जितना अपने हाथों से दे जाएं, ख़र्च कर जाएं अच्छा है.”… और अब देखो, घर भर में सन्नाटा पसरा है. दिवाली जैसा बड़ा त्योहार भी कब आया और कब चुपके से निकल गया पता ही नहीं लगा. वे थे तो हर दिन दिवाली थी, उत्सव था. इस घर से वे अकेले विदा नहीं हुए हैं कविता, मुझे तो लगता है इस घर की ख़ुशियां भी उनके साथ हमेशा-हमेशा के लिए विदा हो गई हैं. मेरी तो जीने की चाह ही ख़त्म हो गई है.” जीजी की सुबकियां रूदन में तब्दील हो जातीं, तो मैं उन्हें ढांढ़स बंधाने लगती.
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“ऐसे नहीं कहते जीजी. आपको अपने लिए, इन बच्चों के लिए जीना होगा. देखो न सब कितने चुप-चुप रहने लगे हैं. हर व़क्त हंसता-चहकता घर कितना वीरान हो गया है. आपको ख़ुद को, बच्चों को सबको संभालना होगा. जीजाजी के न रहने से आपकी ज़िम्मेदारी तो और बढ़ गई है. जो चीज़ हमारे वश में नहीं, उसका क्या किया जा सकता है?”
नूपुर इस बीच ज़बरन कभी चाय-नाश्ता, तो कभी खाना रख जाती. साथ ही मुझे इशारा कर जाती कि मैं किसी तरह वो सब जीजी को खिला दूं. इस बीच यदि स्कूल से या खेलकर हंसता-कूदता लौटा विभू हमारे सामने पड़ जाता, तो एकदम चुप हो जाता. चुपचाप मेरे चरण स्पर्श कर वह अंदर घुस जाता और फिर पूरा समय सामने आने से कतराता रहता. भांजे पुनीत से आमना-सामना होता, तो वह भी औपचारिक कुशलक्षेम पूछ इधर-उधर हो जाता. मेरा दिल रो उठता. इस घर की ख़ुशियों को सचमुच जाने किसकी नज़र लग गई है.
इस बीच बेटी श्रुति की प्रसूति के लिए विदेश जाना पड़ गया, तो मैं जाने की तैयारी के कारण कुछ दिनों तक जीजी के पास जा ही नहीं पाई, पर फोन पर बात बराबर कर लेती थी.
“रात में नींद बराबर आई जीजी?… पाठ कर लिया? हां, तैयारी चल रही है. आप भी मेरे साथ थोड़े दिन श्रुति के पास चले चलो. आपको चेंज हो जाएगा और मुझे भी मदद रहेगी. आप हां करो, तो आज ही टिकट का बोल दूं.”
“अरे नहीं, कहां आऊं-जाऊं? अभी तो रोज़ ही मुझे यहां कई पेपर साइन करने पड़ रहे हैं. बैंक अकाउंट में नॉमिनी, पेंशन में नॉमिनी, यहां नॉमिनी, वहां नॉमिनी… सुबह-शाम नॉमिनी-नॉमिनी सुनकर कान पक गए हैं मेरे!” उनकी झुंझलाहट भांप एक पल को तो मैं भी फोन पर मूक रह गई थी. फिर मैंने समझाया था, “ये सब काग़ज़ी औपचारिकताएं, तो पूरी करनी ही पड़ेंगी जीजी. वो भी समय रहते. सब आपके भले के लिए ही तो कर रहे हैं. अच्छा कोशिश करूंगी जाने से पूर्व एक बार आपसे मिलकर जाऊं. नहीं तो आते ही मैं भागी चली आऊंगी आपके पास. तब तक अपना ख़्याल रखना और हां, ज़्यादा चिंता मत करना. ज़्यादा-से-ज़्यादा व्यस्त और ख़ुश रहने की कोशिश करना. आप ख़ुश रहोगी, तो ही पुनीत, नूपुर और विभू भी ख़ुश रह पाएंगे, वरना देखो, आपके साथ-साथ उनके भी कैसे चेहरे निकल आए हैं?” अपनी ओर से भरपूर समझाइश के बाद भी मैं जीजी को लेकर आश्वस्त नहीं रह सकी थी. इसलिए लौटने के बाद से ही जल्द-से-जल्द जीजी से मिलने को व्याकुल हुई जा रही थी. रात किसी तरह आंखों में कटी.
सवेरे तैयार होते ही निकल पड़ी. जीजी से मिलने की इतनी उत्सुकता थी कि 25 मिनट का रास्ता भी एक युग के समान लग रहा था. एक फल विक्रेता दिखा, तो मैंने टैक्सी रुकवाकर जीजी की पसंद की स्ट्रॉबेरीज़, लीची व शहतूत रखवा लिए. विदेश से लाई चॉकलेट्स मैंने विभू के लिए पहले ही बैग में रख ली थीं.
जीजी के घर के बाहर टैक्सी रुकी, तो जीजी को विभू के साथ बाहर गार्डन में ही बैठे देख मैं सुखद आश्चर्य से भर गई. कहां तो मैं जाने से पहले जीजी की मिन्नतें करती थक जाती थी कि चलो न जीजी, थोड़ी देर बाहर बगीचे में बैठते हैं.
“नहीं री, मुझसे नहीं जाया जाएगा. तेरे जीजाजी को बाहर बगीचे में बैठना बहुत पसंद था. हम दोनों समय की चाय वहीं बैठकर पीते थे. साथ अख़बार पढ़ते, पाठ करते, फल खाते, दुनिया जहान की बातें करते. समय कैसे निकल जाता था, पता ही नहीं चलता था.”
“कविता दादी आ गईं.” विभू का चहकता स्वर कानों में पड़ा, तो मेरी चेतना लौटी. टैक्सीवाला पेमेंट के लिए खड़ा था. उसे पैसे देकर, बैग और फलों की डलिया झुलाती मैं गेट में प्रविष्ट हुई और सामान रख जीजी के गले लग गई. रोकते-रोकते भी मूक आंखों ने नि:शब्द आंसू बहा ही दिए, जिन्हें जीजी से अलग होने से पूर्व ही मैंने चतुराई से पोंछ लिया. हालांकि धुली-धुली आंखें अभी भी दिल की चुगली कर रही थीं.
वातावरण को सहज बनाने के लिए मैंने बैग से विभू के लिए लाई चॉकलेट्स निकालीं, तो वह ख़ुशी से मेरे कदमों में झुक गया. उसे ऊपर उठाते मेरी नज़र सामने बिछी शतरंज की बिसात पर पड़ी. “अरे, यह कौन खेल रहा था?”
“मैं और दादी. कविता दादी, आपको मालूम हेै दादी बहुत अच्छा चेस खेलती हैं! दादा से भी अच्छा!” विभू उत्साहित था.
“तू तो दुनिया में बाद में आया रे. पहले मैं और तेरे दादा ही खेला करते थे. मैं स्कूल में ज़िला स्तर पर खेल चुकी हूं. क्यों कविता याद है तुझे?”
“अरे वाह! अब तो मैं आपके साथ
पूरे-पूरे दिन प्रैक्टिस करूंगा और देखना, टूर्नामेंट भी मैं ही जीतूंगा.”
“चल अब अंदर जाकर पहले होमवर्क कर! फिर और खेलेंगे… और हां, रसोई में राधा दीदी से कहना दो कप कड़क मसालेदार अदरकवाली चाय बनाकर दे दे और साथ में पुदीनेवाली मठरी भी.”
“वो दादा की पसंदवाली? जो मम्मी बनाकर गई हैं?”
“हां… हां वही.”
मैं हैरानी से सब देख-सुन रही थी.
“यह सब चल क्या रहा है?”
“अरे, कुछ नहीं. विभू के स्कूल में चेस टूर्नामेंट शुरू हो रहे हैं. इसने तो यह सोचकर नाम ही नहीं लिखवाया था कि दादा के बगैर प्रैक्टिस किसके साथ करेगा? मुझे पता चला, तो मुझे बहुत बुरा लगा. ज़रा सोच, जब मुझे इतना दुख हुआ, तो इसके दादा को कितना दुख हुआ होगा. मैंने पुनीत से कहकर न केवल इसका नाम डलवाया, वरन् अब सुबह-शाम इसके साथ खेलकर इसे प्रैक्टिस भी करवा रही हूं.”
“बहुत अच्छा किया जीजी आपने.”
तभी एक लड़की गरमागरम चाय और मठरी रख गई.
“यह कौन है? नूपुर अभी स्कूल से लौटी नहीं क्या?”
“नूपुर तो 15 दिन की ट्रेनिंग के लिए दिल्ली गई है. इस लड़की को पीछे खाना आदि बनाने के लिए रख गई है. मैंने तो कहा था मैं ही बना लूंगी. तीन लोगों के खाने में क्या तो है? पर वह मानी नहीं. सारा काम उसे समझाकर गई है. ढेर सारा सूखा नाश्ता बनाकर रख गई है सो अलग.”
“वैसे काहे की ट्रेनिंग है?” पूछते हुए मैंने एक मठरी तोड़कर मुंह में रख ली थी.
“अरे वाह, मठरी तो बड़ी स्वादिष्ट बनी है!”
“तेरे जीजाजी की पसंद की है. चाय के साथ वे ये ही खाना पसंद करते थे. नूपुर उनके लिए बनाकर रखती थी.”
जीजी कहीं भावुक न हो जाए, यह सोचकर मैंने तुरंत फिर ट्रेनिंग का पूछ लिया.
“कोई ज़रूरी टीचर्स ट्रेनिंग है, जिसे करने पर ही आगे प्रमोशन मिलेगा. तू तो जानती है, तेरे जीजाजी कितने प्रगतिशील विचारों के थे. उनके अनुसार, हर लड़की को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना चाहिए. शादी के बाद नूपुर ने उन्हीं के कहने से बीएड किया और फिर नौकरी भी करने लगी. नूपुर ने तो यह सोचकर कि इस समय मुझे अकेला छोड़ना उचित नहीं होगा, ट्रेनिंग के लिए मना कर दिया था. मुझे किसी ने बताया भी नहीं. वो तो एक दिन सुलेखा भाभी आई थीं. उन्होंने बातों-बातों में बताया कि उनकी बहू, जो नूपुर के साथ है ट्रेनिंग पर जानेवाली है और फिर उसका प्रमोशन भी हो जाएगा. तब मैंने पुनीत और नूपुर को आड़े हाथों लिया कि उनके पापा को कितना दुख होगा कि उनकी वजह से नूपुर का प्रमोशन रुक गया. ये बच्चे कुछ समझते ही नहीं हैं.”
मैं भावविभोर निर्निमेष नेत्रों से जीजी को देखे जा रही थी.
“… वैसे नासमझ तो मैं भी कुछ कम नहीं थी. अपने ही दुख में डूबी रही. यह समझने का प्रयास ही नहीं किया कि मैंने अपना पति खोया है, तो बच्चों ने भी तो अपने स्नेहिल पिता को खोया है. विभू ने सखा समान आत्मीय दादा खोया है. बांटने से दुख घट जाता है और सुख बढ़ जाता है. बच्चे मेरा संबल बनेंगे और मैं उनका, तो ज़िंदगी का सफ़र आसान हो जाएगा.” चाय का अंतिम घूंट भर जीजी ने कप रखा. फिर नज़रें उठाईं, तो उनकी आंखें अचानक चमक उठीं. वे तुरंत उठकर कुछ दूर रखे गमले के पास पहुंच गईं.
“यह बटन रोज़ का पौधा तेरे जीजाजी को अत्यंत प्रिय था. देख, कितने सुंदर-सुंदर नन्हें-नन्हें गुलाब खिले हैं इसमें! जिस दिन इसमें झुंड के झुंड बटन रोज़ खिलते थे, तेरे जीजाजी के चेहरे की चमक और बातों की खनक देखने लायक होती थी… अब तो उनकी बगिया को हरा-भरा रखना ही मेरी एकमात्र आकांक्षा और ज़िम्मेदारी है.” जीजी ने फुर्ती से पास पड़ी खुरपी उठाई और तत्परता से पौधे में खुरपी चलाने लग गईं.
मैं आत्मविस्मृत-सी गर्व से जीजी को निहार रही थी. जीजी काग़ज़ों में ही नहीं असल ज़िंदगी में भी सच्चे अर्थों में जीजाजी की नॉमिनी बन गई थीं.
अनिल माथुर
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