कहानी- पारस (Short Story- Paras)

लोगों की नज़र में वो देवता थे, पर नेहा की नज़र में वो बेचारा भला आदमी, जिसका सब लाभ उठाया करते हैं. ‘शादी के बाद कुछ समय तक तो उस प्यार का स्वाद चखने को मिलता ही है, जो सागर के उस ज्वार की तरह होता है, जो तन-मन और आत्मा तक को भिगो देता है. जो उन्माद की तरह चढ़ता है, तो धरती अंतरिक्ष लगने लगती है…’ सखियों के कहे ये वाक्य सिम्मी के दिल में कील की तरह चुभते रहते.

लंबा कद, स्वर्णाभा लिए गौर वर्ण और तराशे हुए नैन-नक्श, उस पर गीत-संगीत, पाक कला, सिंगार कला और अन्य घरेलू कार्यों में अद्भुत कौशल. लगता था, ईश्‍वर ने बड़ी फुर्सत से उसमें रूप-गुण भरे थे. सिम्मी बड़ी-बूढ़ी औरतों और सखियों से सुनते-सुनते ख़ुद भी यक़ीन करने लगी थी कि उसे तो कोई परियों का राजकुमार मांगकर ले जाएगा.
ब्याहकर अपने घर आई, तो अविचल में अपने रूप के सम्मोहन में मंत्र-मुग्ध ख़ुद पर जान छिड़कनेवाले सपनों के राजकुमार जैसा कुछ भी न पाया. उसमें जितनी पिपासा थी, अविचल में उतनी ही निर्लिप्तता. वो अल्हड़ कैशोर्य की उन्मुक्त उमंगों की जीवंतता थी, तो अविचल अपने माता-पिता के देहांत के बाद छोटी आयु से ही परिवार की ज़िम्मेदारियां सम्हालते हुए एक धीर-गंभीर सांचे में ढली शालीनता और कर्त्तव्यनिष्ठा की प्रतिमूर्ति.
तीन बहनों की शादी करने और भाई को हॉस्टल में डालने के बाद उन्होंने शादी की थी. अविचल गणित की ट्यूशंस पढ़ाते थे. एक घंटा वे ग़रीब बच्चों को मुफ़्त में पढ़ाने के लिए भी देते थे. बहुत-से रिश्तेदार शहर में रहते थे. किसी को कोई भी काम हो, अविचल कभी मना नहीं करते थे. और तो और, दूधवाले का बेटा बीमार हो या सब्ज़ीवाले के बेटे का स्कूल में प्रवेश कराना हो, अविचल हमेशा तत्पर रहते.
लोगों की नज़र में वो देवता थे, पर नेहा की नज़र में वो बेचारा भला आदमी, जिसका सब लाभ उठाया करते हैं. ‘शादी के बाद कुछ समय तक तो उस प्यार का स्वाद चखने को मिलता ही है, जो सागर के उस ज्वार की तरह होता है, जो तन-मन और आत्मा तक को भिगो देता है. जो उन्माद की तरह चढ़ता है, तो धरती अंतरिक्ष लगने लगती है…’ सखियों के कहे ये वाक्य सिम्मी के दिल में कील की तरह चुभते रहते.
उस प्यार की प्यास में वो ख़ूब मन लगाकर तैयार होती कि कभी तो उसका अद्वितीय रूप अविचल की ज़ुबान को प्रशंसा करने को विवश कर दे. अक्सर रात में कोई रोमांटिक गीत लगाकर उस पर थिरकने लगती या कोई गीत गुनगुनाने लगती कि कभी तो उन गुणों की तारीफ़ में चंद शब्द सुनने को मिल जाएं, जिनके कारण लोग उसकी तुलना अप्सराओं से किया करते थे, पर सब बेकार.
अविचल मुस्कुराते हुए उसे देख-सुन तो लेते, पर कभी तारीफ़ के दो शब्द उनके मुंह से न निकले. पहली बार मायके गई, तो दीदियों ने सलाह दी लज़ीज़ व्यंजनों की चाभी से दिल का ताला खोलने की कोशिश कर.
लौटकर आई, तो वो चाची गांव वापस जा चुकी थीं, जो पहले खाना बनाया करती थीं. उसका रसोई में प्रवेश कराया गया, तो अवसर भी मिल गया पेट के रास्ते दिल में घुसने का. फिर क्या था, लज़ीज़ व्यंजनों से मेज़ सजा डाली, पर खाना चखकर अविचल की आंखों में आंसू आ गए.
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“मैं ये खाना खा नहीं सकूंगा. तुम्हें शायद चाची ने बताया नहीं कि मैं मिर्ची बिल्कुल नहीं खा पाता. तुम मेरे लिए दूध ला दो, मैं उसमें रोटी भिगोकर खा लूंगा.”
दूध लेकर आई, तो अविचल उसकी प्लेट लगा चुके थे. उसे पकड़ाते हुए बोले, “तुम भी मेरे कारण इतने दिनों से ऐसा खाना क्यों खाती रहीं? अब से अपने लिए ढंग से अपनी पसंद का बना लिया करो.”
सिम्मी को काटो तो ख़ून नहीं. उसके सामने उसके पति बड़ी निर्लिप्तता से दूध-रोटी खा रहे थे और उसकी थाली यूं सजाई थी कि खाना न निगलते बन रहा था, न उगलते. यही हाल पलकों में छलक आए आंसुओं का भी था.
जीवन ऐसे गुज़रने लगा था, जैसे घड़ी की सुइयां एक परिधि के अंदर चक्कर काटती रहती हैं. अर्थहीन, रसहीन, नवीनताविहीन. शादी की वर्षगांठ आई, तो इसी बहाने सिम्मी ने दिल की बहुत-सी गांठें खोलने की ठान ली.
उसने ख़ूब सुंदर क्रॉकरी में कैंडल लाइट डिनर अविचल के मनपसंद खाने से सजाया. एक स्वेटर तो बुनकर तैयार ही कर लिया था. बहुत सुंदर-सा कार्ड भी ले आई. बहुत ही रोमांटिक अंदाज़ में कार्ड पेश किया, तो अविचल ने चौंककर कार्ड हाथ में लेकर सीधी तरफ़ से देखने से पहले ही उलटकर उसका दाम देखा और बोले, “सौ रुपए का कार्ड! इतने रुपए कैसे बरबाद कर सकीं तुम इस फ़ालतू की चीज़ में? हां, स्वेटर बनाकर अच्छा किया. घर के बने स्वेटर में बहुत बचत होती है, पर मेरे पास तो अभी दो हैं. काम चल रहा है. इसे पंकज को दे देना. वैसे भी हॉस्टल में रहनेवाले बच्चों को सुंदर चीज़ें पहनने का बड़ा शौक़ होता है.”
सिम्मी की पलकें छलक उठीं. उसने सोचा, ‘अब मैं सबके लिए बुनूंगी, पर इनके लिए कभी नहीं.’ इस आदमी के सीने में दिल की जगह एक पत्थर रखा हुआ है. इसमें जगह बनाने की कोशिश ही व्यर्थ है.
वो सपनीला प्यार, अविचल के दिल में, उसकी ज़ुबां पर, उसकी आंखों में अपने लिए पिपासा, अपना महत्व या अपने बिना न जी सकने की लाचारगी देखने-सुनने की चाह एक कसक थी. ये चाह पहले निराशा, फिर आक्रोश, फिर कटुक्तियों में बदलती जा रही थी. अंतस में कैद ऊर्जा खीझ और चिड़चिड़ेपन के रूप में बाहर आने लगी थी कि किसी नवागत के स्पंदन ने तन-मन को पुलक से भर दिया.
डॉक्टर ने उसकी रिपोर्ट्स देखकर उसे एनीमिक बताते हुए खानपान की एक लंबी सूची पकड़ाई, तो अविचल ने ये ज़िम्मेदारी ख़ुद पर ले ली. वे नियम से फल, सब्ज़ी, दूध आदि लाते, दही जमाते और उसे हर चीज़ ज़बर्दस्ती खिलाते.
रसोई में जाते ही सिम्मी को उबकाई आने लगती थी, तो अविचल ने कह दिया कि वो केवल इतनी मेहनत कर ले कि ख़ुद ठीक से खा सके, इसीलिए वो बस एक चटपटी सब्ज़ी और रोटियां किसी तरह बना लेती. अविचल के लिए अलग से सादी सब्ज़ियां बन ही नहीं पाती थीं.
वे कुछ कहते भी नहीं थे. सलाद तो ख़ुद ही बना लेते थे. दूध-रोटी, दाल-रोटी या नमकीन चावल खा लेते, पर सिम्मी को पूरा खाना अपने सामने ऐसे सख़्ती से खिलाते, जैसे वो उनकी विद्यार्थी हो. अगर थोड़े प्यार से खाने के लिए कहते, तो यही लम्हे कितने रोमांटिक हो सकते थे. सोचकर सिम्मी अक्सर इस पाषाण हृदय के सपाट अंदाज़ पर कुढ़ जाती.

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समय के चक्र ने सिम्मी की गोद में बेटे का उपहार डाला. उसके आगमन और मुंडन के उत्सव बहुत सादगी के साथ सम्पन्न हुए. न कोई पार्टी, न धूम-धड़ाका. अविचल की सारी बहनें आतीं और मिलकर घर में ही खाना बनाकर रिश्तेदारों को दावत दे दी जाती.
अपने लिए किसी मनोरंजन पर ख़र्च न करने की टीस तो सिम्मी बर्दाश्त कर जाती, पर बेटे के लिए पार्टी न होने की तिलमिलाहट अक्सर व्यंग्य बनकर ज़ुबां पर आ जाती. कुछ बच्चे की व्यस्तता और कुछ अविचल के स्थित प्रज्ञ साधुओं के से रवैये से पनपी खीझ ने सिम्मी को इतना आलसी बना दिया था कि उसने खानपान के रवैये को ऐसे ही चलने दिया.
ननदें आती-जाती रहती थीं. उन्होंने भाई की ऐसी उपेक्षा देखी, तो ऐसी बहुत-सी सादी साग-सब्ज़ियों, सलाद और सूप आदि की विधियां बताईं, जो अविचल को बहुत पसंद थे, पर इतना समय लगाकर बननेवाले इतने स्वादहीन पकवानों को काटने-बनाने में सिम्मी की बिल्कुल दिलचस्पी न थी.
वो सोचती ऐसे पत्थर दिल के लिए मेहनत करने का क्या फ़ायदा, जिसे कभी जीवन में न कुछ अच्छा लगा, न बुरा. कुछ अच्छा बना दो, तो तारीफ़ ही कब करते हैं और न बनाने पर शिकायत ही कब की है? जाने कोई एहसास है भी उनके भीतर या…
सिम्मी के मायके में एक शादी का अवसर था. अविचल का कहना था कि बढ़ते बच्चों के लिए महंगे सामान ख़रीदना पैसों की बर्बादी है, इसलिए उसके बेटे के पास ननदों के लाए पुराने कपड़े और सामान ही थे. उन सामानों में बेटे को लेकर मायके जाना सिम्मी को गंवारा न था. वो जब भी मायके जाती थी, तो चलते समय मां बिदाई में जो रुपए दिया करती थीं, वो बड़े जतन से जमा किए थे उसने.
पहली बार बिना अविचल से पूछे ख़ुद जाकर अपने मनपसंद सामान ले आई. अविचल ने देखा, तो परेशान हो गए, “अभी से इतने महंगे सामानों की आदत डालोगी, तो बेटे की फ़रमाइशें बढ़ती जाएंगी. बहनों की शादी में थोड़ा कर्ज़ लिया है, वो चुकाना होता है, फिर पंकज की फीस और बहनों के यहां लेन-देन भी बना रहता है. जब तक कर्ज़ चुकेगा, इसके स्कूल में दाख़िला दिलाने का समय आ जाएगा, उसके लिए भी तो जोड़ना है.”
हालांकि अविचल ने समझाने के अंदाज़ में ये शब्द बड़ी कोमलता से बोले थे, पर आज बात उसके बच्चे की थी, इसलिए सिम्मी के मन में भरा ग़ुस्सा बांध तोड़कर बह निकला, “कब तक यूं ही घुट-घुटकर जीना होगा मुझे?…
कितनी छोटी उम्र से मम्मी मुझे पॉकेटमनी देती थीं. शादी के बाद तो वो भी नसीब नहीं. मैं कभी आपसे कुछ मांगती नहीं, क्योंकि जानती हूं कि आपके पास है नहीं, पर मेरे कुछ देने से भी आपको चिढ़ है. मेरा हर ख़र्च इसीलिए ग़लत है न, क्योंकि मैं कमाती नहीं हूं? कमाना चाहती हूं मैं भी, लेकिन उसके लिए…” जाने कितनी देर वो गुबार निकलता रहा और अविचल हमेशा की तरह चुपचाप सुनते रहे.
दूसरे दिन उसके हाथ में हज़ार रुपए देकर बोले, “मेरी कमाई पर तुम्हारा अधिकार मुझसे कम नहीं है, लेकिन क्या करूं बहुत से फर्ज़ हैं, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन ये तुम्हारी समस्या का अच्छा समाधान है, जो तुमने कल सुझाया. मैं हर महीने तुम्हें पॉकेटमनी दिया करूंगा. ये रुपए स़िर्फ तुम्हारे होंगे. इनसे जो चाहो, ख़रीद लिया करना.”
उसी दिन रात के दस बजे किसी ने दरवाज़ा खटखटाया. खोला तो एक विद्यार्थी था. सिम्मी को याद आया कि ये बच्चा पहले आया था, तब अविचल ने ये कहकर मना कर दिया था कि अब उनके पास समय नहीं है, तो क्या इस पॉकेटमनी के लिए… सिम्मी के मन में टीस उठी, पर जल्द ही उसने ये विचार ये सोचकर झटक दिया कि ऐसे भी इस पाषाण हृदय को कौन-सा मनोरंजन या आराम करना होता है.

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समय का पहिया अपनी गति से चल रहा था कि एक दिन कार्यालय से लौटते समय एक ट्रक ने अविचल के स्कूटर को टक्कर मार दी.
अस्पताल में आईसीयू में अविचल की हालत देखकर सिम्मी स्तब्ध रह गई. उसके तो हाथ-पैर-दिमाग़ सबने काम करना बंद कर दिया था. रिश्तेदारों और देवर-ननदों की सांत्वना उसके आंसुओं की नदी में टिक ही नहीं पा रही थी. बेटा कहां है, अविचल के लिए डॉक्टर क्या कह रहे हैं, कौन-सी दवाइयां लानी हैं, उसे कुछ होश नहीं था. होश तो तब सम्हला, जब डॉक्टर ने उन्हें ख़तरे से बाहर बताया. तब ध्यान दिया कि क़रीब पिछले एक माह से बच्चा और अस्पताल की ज़िम्मेदारियां उसके ननद-देवर और रिश्तेदार मिलकर सम्हाल रहे हैं. अभी दो माह अविचल को फ्रैक्चर के कारण बिस्तर पर रहना था. ये सब बंदोबस्त कैसे हुआ, आगे कैसे क्या होना था, सिम्मी को कुछ पता नहीं था.
घर पहुंचकर पहले दिन अकेले पड़ी, तो दिल को मज़बूत बनाकर अविचल को नित्यकर्म कराने के लिए ख़ुद को मज़बूत बना ही रही थी कि अविचल के विद्यार्थी आ गए, “मैम! हमारे होते आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. सर हमारे लिए देवता हैं और उनकी सेवा हमारा सौभाग्य.”
उनके जाते ही फिर डोरबेल बजी. सब्ज़ीवाला, दूधवाला और राशनवाला खड़े थे. “साहब ने फोन करके कहा कि आपकी सामान लेने जाने की आदत नहीं है. हम उनके ठीक होने तक घर पर सामान दे जाया करेंगे, ताकि आपको द़िक्क़त न हो. आप बिल्कुल चिंता न करें. उनके ठीक होने तक सामान घर पर आ जाया करेगा.”
अविचल को इतनी तकलीफ़ में भी उसका इतना ख़्याल है, सोचकर सिम्मी पुलक उठी. सामान लेकर रखा और अविचल के सिरहाने बैठकर उनके बालों में उंगलियां फेरते हुए उनके सही सलामत होने के सुखद एहसास को ठीक से जीने लगी. संतुष्टि की भावुकता में उसकी आंखों में आंसू छलछला आए थे, तभी वे बोले, “तुम मुझे फल और साग-सब्ज़ी धोकर दे दो. मैं बैठे-बैठे छील-काट देता हूं.” अबकी सिम्मी का दिल खीझने की बजाय कसक उठा. ऐसी तबीयत में भी अविचल को… उसका स्वर भीग गया, “नहीं, आप केवल आराम कीजिए, मैं…” मगर अविचल ने उसकी बात काट दी, “अरे! एक माह से आराम ही तो कर रहा हूं और तुमने इस एक माह में फल, सलाद, दूध, दही वगैरह तो कुछ खाया-पीया नहीं होगा. बच्चों की तरह खिलाना पड़ता है तुम्हें भी. मुझे डर है कि कहीं फिर से एनीमिक न हो जाओ.” मैंने कहा, “ना, मैं कर लूंगी, आप…” सिम्मी के स्वर में ग्लानि थी, पर अविचल ने बात फिर काट दी, “नहीं, तुम एक-दो दिन कर भी लो, फिर नहीं करोगी. मैं जानता हूं कि तुम्हारी इन चीज़ों में मेहनत करने की बिल्कुल आदत नहीं है.”
“मेरी आदत ख़राब है, तो आप मुझ पर ग़ुस्सा कीजिए, मेरी आदत बदलिए, ख़ुद को सज़ा क्यों देते हैं? मैं बहुत बुरी हूं न?…” आत्मग्लानि से उसका कंठ अवरुद्ध होने लगा था…
मगर अविचल का स्वर अब भी सपाट था, “नहीं सिम्मी, शादी जिस उम्र में होती है, उस उम्र तक जो संस्कार बन जाते हैं, उन्हें बदला नहीं जा सकता, केवल अपनी मेहनत से अपने साथी की कमी को पूरा किया जा सकता है. और कौन कहता है कि तुम बुरी हो. तुममें अच्छी आदतों की भी कमी नहीं है. तुमने इतने ख़ूबसूरत स्वेटर बुने हैं सबके लिए. घर को इतना सजाकर रखती हो, परिवार के हर कार्यक्रम में तुम्हारे गीत-संगीत रौनक़ भर देते हैं, तुम हंसमुख हो… अब किसी भी इंसान में केवल अच्छाइयां तो नहीं हो सकतीं न? और हां, ये लो तुम्हारा दो महीनों का पॉकेटमनी.” कहते हुए अविचल ने दो हज़ार रुपए सिम्मी की ओर बढ़ाए, तो अपने आंसुओं को पलकों में रोकना उसके लिए असंभव हो गया, “आपने मेरी तारीफ़ की, यही बहुत है मेरे लिए, मुझे ये रुपए नहीं चाहिए. आप सलामत हैं, मुझे और कुछ नहीं चाहिए, आपके इलाज में कोई कमी न पड़े, भगवान से बस यही प्रार्थना है.”
“उसकी चिंता तुम मत करो. मेरी कोई बंधी नौकरी तो है नहीं, इसीलिए मैंने अपना बीमा कराया हुआ है, ताकि यदि मैं मर जाऊं, तो भी तुम्हें जीवनयापन में कोई तकलीफ़ न हो. मेरे इलाज का ख़र्च भी बीमा राशि से निकलता रहेगा.”
“अब बस भी कीजिए. ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं?” कहते-कहते वो अविचल से लिपटकर फूट-फूटकर रो पड़ी, “आप सचमुच महान हैं, मगर मैं भी इतनी बुरी नहीं. बहुत प्यार करती हूं आपसे. अगर आपको कुछ हो गया, तो मैं पैसों का क्या करूंगी? मैं आपके बिना नहीं जी सकती! मैं…”
“नहीं सिम्मी, ऐसा नहीं होता. पंद्रह साल की उम्र में जब मैंने अपने माता-पिता को खोया, तो मैं भी यही सोचता था, पर जल्द ही पता चला कि मरनेवालों के साथ मरा नहीं जाता. मन हर हाल में जीना चाहता है. उनके प्यार की कमी के दुख से कहीं विकराल थीं जीवनयापन की व्यावहारिक समस्याएं. अगर रिश्तेदारों ने मेरी नौकरी लगने तक हमें सहारा न दिया होता, तो भीख मांगने की नौबत आ जाती. और यदि मैंने ख़ुद को एक सख़्त और अनुशासित कवच में बंद न किया होता, तो मेरे भाई-बहन एक अच्छे इंसान के सांचे में न ढलते. जिन गुरुजी ने हम सबको मुफ़्त में पढ़ाया, उन्होंने ही साधनहीन ज़रूरतमंदों को मुफ़्त में पढ़ाने का वचन लिया था. लोग जिसे मेरी महानता समझते हैं, वो तो बस मेरी इस समाज को कृतज्ञता ज्ञापित करने की कोशिश भर है.”

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अविचल का स्वर तो अभी भी उनकी आदत के मुताबिक़ सपाट ही था, पर सिम्मी को चुप कराने के लिए उन्होंने अपनी बांहों का घेरा उसके गिर्द कस दिया था और उसके बालों में उंगलियां फेरे जा रहे थे. सिम्मी को लग रहा था, उसके रोम-रोम में अमृत घुलता जा रहा हो. कितनी नासमझ थी वो, जो उस उन्माद या ज्वार को प्यार समझती थी, जो जितनी तेज़ी से चढ़ता है, उतनी ही तेज़ी से उतरकर अपने पीछे कुंठा की गंदगी छोड़ जाता है, जबकि प्यार तो वो पारस मणि है, जो अपने संपर्क में आनेवाले लोहे को भी कंचन बना देता है. अविचल के दिल में रखी प्यार की इस पारस मणि से उनके संपर्क में आनेवाला हर व्यक्ति कंचन हो चुका था. पिछले एक माह से ये कंचन ही तो सब कुछ कर रहे थे, लेकिन वो जो उनके सबसे नज़दीक थी, वही इतने सालों से उसे पत्थर समझती रही. कभी प्रशंसा और महत्व की पिपासा रूपी मैल के आवरण को उतारकर इसे छूने की कोशिश ही नहीं की. आज खीझ और आक्रोश के मैल का आवरण हटा, तो उसके मन का लोहा भी प्यार के इस पारस का स्पर्श पाकर कंचन बन गया था.

भावना प्रकाश

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