Short Stories

कहानी- प्रतीक्षा (Short Story- Partiksha)

उसकी मित्रता मेरे लिए अनोखी थी, मेरी आवश्यकता बन गई थी. आज तीन वर्ष के क़रीब हो गए… आज भी जब कभी फोन बजता है तो मैं “हाय प्रीति, क्या कर रही हो?” सुनने के लिए दौड़ पड़ती हूं. क्या फिर कभी वह फोन करेगा? पता नहीं वह ज़िंदा भी है या… पता नहीं, मन में ये अपशकुन क्यों आता है? मैं इंतज़ार करूंगी. कभी तो उसे मेरी याद आएगी…

टेलीफोन काफ़ी देर से बज रहा था. मैं फ़ौरन बाथरूम से निकली और रिसीवर उठाया.
“क्या कर रही थी..? इत्ते देर से घंटी बजे जा रही है.” आवाज़ मेरी पहचान में नहीं आई.
“आप कौन बोल रहे हैं?” मैंने पूछा.
“दोस्त…” फिर हल्की-सी हंसी आई.
“मैंने पहचाना नहीं.”
“कोई बात नहीं, मैं तो आपको पहचानता हूं.”
“आप बोल कौन रहे हैं?” मैंने फिर पूछा.
“आशिक़ ही समझ लो.”
मैंने फोन काट दिया. टेलीफोन पर बदतमीज़ी आजकल आम बात हो गई है. बस कहीं से टेलीफोन नंबर मिल जाना चाहिए. पर मेरे घर पर अभी तक इस तरह के कॉल्स कभी नहीं आए थे. पता नहीं, कौन बदतमीज़ है, मेरे घर का फोन नंबर कैसे मिला? कोई जान-पहचान वाला ही होगा. मैंने इस संबंध में अधिक सोचना उचित नहीं समझा.
दो-तीन दिन बीत गए. मैं फोन की बात भूल गई.
एक दिन मैं किचन में काम कर रही थी कि फोन बजने लगा, मैंने रिसीवर उठाया.
“हाय प्रीति, क्या कर रही हो?”
तो इसे मेरा नाम भी पता है, कौन है यह? थोड़ी-सी उत्सुकता हुई. मैंने पूछा, “आप कौन हैं?”
“इतनी जल्दी भूल गई? मैंने बताया था न, दोस्त हूं या आशिक़ हूं.”
“पर आपका कोई नाम तो होगा?”
“जो नाम तुम्हें पसंद हो, वही रख लो.”
“अजीब आदमी हैं आप… आप फोन क्यों कर रहे हैं?”
“अरे, बस प्रश्न ही पूछोगी या कोई दूसरी बात भी करोगी?”
“जब मैं आपको जानती ही नहीं तो बात क्या करें?”
“मैंने पूछा था कि अभी तुम क्या कर रही थी?”
“खाना बना रही थी किचन में.” मेरे मुंह से निकल
गया.
“अभी से… अभी तो पांच बजे हैं, रात तक खाना ठंडा हो जाएगा.”
मैंने फोन काट दिया. अजनबी से क्या बात करें? पर सोचती रही कि कौन हो सकता है? आवाज़ बिल्कुल अजनबी थी. ज़रूर इसी कॉलोनी का कोई होगा, वरना मेरा नाम उसे कैसे पता चलता?

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कॉलोनी में भी हम नए हैं. एक वर्ष भी नहीं हुआ यहां आए हुए और ख़ास मेलजोल भी नहीं है लोगों से. कौन हो सकता है..? कुछ भी अंदाज़ा नहीं हो पा रहा था.
दो दिनों बाद फिर उसका फोन आया, मेरे ‘हेलो’ कहने से पहले ही बड़े अपनत्व भरे शब्दों में उसने पूछा, “प्रीति, फोन क्यों काट देती हो?”
“आपको कैसे पता चला कि फोन मैं ही उठाऊंगी?” मैंने पूछा.
“पता है मुझे… तुम क्या कर रही थी?”
वह हंस पड़ा, “अरे नहीं, मैं तो बस आशिक़ हूं.”
“फोन क्यों किया?”
“तुम मुझे अच्छी लगती हो, तुम्हारी आवाज़ सुनने के लिए फोन करता हूं… बस.”
“क्या आपको मेरे बारे में कुछ पता है?” मैं अंदर से हिल-सी गई थी,
“हां, सब कुछ पता है.”
“क्या आपको पता है कि मैं शादीशुदा हूं और..?” उसने मेरी बात बीच में ही काट दी, “हां, मालूम है… तुम्हारे दो प्यारे-प्यारे बच्चे भी हैं.”
“फिर भी आप मुझसे बातें करना चाहते हैं?”
“प्रीति, लगता है तुम डर गई हो. तुम डर रही हो कि मैं तुमसे कुछ चाहूंगा या मैं तुमसे कोई ऐसी बात करना चाह रहा हूं, जो शालीनता की सीमा से पार हो… सामान्य रूप से एक सुंदर स्त्री से कोई पुरुष अकेले में जिस तरह की बातें या व्यवहार करता है, शायद तुम सोच रही हो कि मैं भी वैसा ही कुछ करने जा रहा हूं, पर डरो मत… विश्वास रखो… ऐसा कुछ नहीं होगा, मैं तुमसे कुछ भी नहीं चाहता…
मैंने कुछ नहीं कहा, चुप रही.
“अच्छा, बाद में बातें करेंगे.” उसने फोन काट दिया.
बातचीत से लगा कि आदमी पढ़ा-लिखा है. पर है कौन? और क्या चाहता है मुझसे..? मैं बड़े पशोपेश में पड़ी रही, काश! मैं जान पाती कि यह मजनूं कौन है, तो बताती उसे… काम करते समय, उठते-बैठते हर वक़्त सोचती रहती कि कौन हो सकता है यह?
मेरे पति रेस्तरां चलाते हैं. देर रात घर लौटते हैं. शाम को मैं पड़ोसी के घर चली जाती. घर आकर बच्चों को होमवर्क कराती. थोड़ा टी.वी. देखती या कोई पत्रिका पलट लेती. अकेलापन थोडा अखरता ज़रूर है, पर मैं इसकी आदी हो गई हूं.
रात जब पति आए, तो पहली बार मैंने फोन का ज़िक्र उनसे किया. उन्होंने पूछा, “कौन हो सकता है? कोई जान-पहचानवाला ही होगा.”
“मैंने पूछा तो था कि आप कौन हैं, तो कहने लगा कि आशिक़ हूं.” मेरे पति हंसने लगे. बोले, “अब तो मुझे सावधान रहना पड़ेगा. दो बच्चों की मां बनने के बाद भी तुम्हें आशिक़ों के फोन आ रहे हैं.”
“कोई मुझे फोन पर तंग कर रहा है और तुम्हें चुहल सूझ रही है.” वे भी गंभीर हो गए, “कॉल्स आई.डी. यूनिट लगवा दूं या फिर पुलिस में एफ.आई.आर. दर्ज कर फोन कॉल ट्रेस करूं?”
मैं कुछ देर चुप रही, फिर बोली, “अभी नहीं, ज़रूरत पड़ी तो देखा जाएगा.”
दो दिन बाद फिर उसका फोन आया.
“हाय प्रीति, क्या कर रही हो?”
“कुछ नहीं, बस यूं ही बैठी हूं.”
“कल तुम ग्रीन चैनल गई थीं न… बड़ी अच्छी लग रही थी नीले रही सूट में.”
“आपने मुझे देखा था?”
“मैं… मैं तो हमेशा तुम्हें देखता रहता हूं… अभी भी देख रहा हूं…” मैंने इधर-उधर देखा. खिड़कियों पर पर्दे थे और दरवाज़ा बंद था. जहां से मैं फोन कर रही थी, वहां कोई भी बाहर से मुझे देख नहीं सकता था.
मैंने पूछा, “अच्छा… मैंने अभी क्या पहन रखा है?”
उसने फट से जवाब दिया, “हल्के बैंगनी रंग की स्लीवलेस कमीज़ और सफ़ेद सलवार…”
मैं अवाक् रह गई. अभी दस मिनट पहले नहाने के बाद मैंने यही सूट पहना था और बालकनी पर कपड़े डालने के अलावा कहीं नहीं गई थी. यह शख़्स यहीं कहीं रहता है और मुझे देखता रहता है. में थोड़ी डर गई. मुझे कोई काम नहीं था. सोचा कि क्या हर्ज है… इसी से थोड़ी बात कर लें. शायद कोई सुराग मिल जाए कि यह कौन है, फिर कोई गंदी बात तो कर नहीं रहा है.
मैंने कहा, “मैं सोच रही थी कि आपसे दोस्ती कर ही लूं.”
“पर मुझे तो पता चला है कि तुम कॉल ट्रेस करवा रही हो. अपने पति से कहकर एफ.आई.आर. कर रही हो.” फिर थोड़ा रुककर कहने लगा, “चाहे जो हो… तुम्हारी दोस्ती की इच्छा जानकर ख़ुशी हुई.” मैं चुप रही.
इसे कैसे पता है कि मैंने पति को इसके बारे में बताया था और एफ.आई.आर. की चर्चा भी हुई थी. कहीं मेरे पति ने इसकी चर्चा अपने किसी मित्र से तो नहीं की..? यह मेरे पति का कोई परिचित तो नहीं? मेरी चुप्पी भांपकर उसने कहा, “देखो प्रीति, तुम मुझे अच्छी लगती हो… इसी से मैंने तुम्हारी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया. यदि मैं मित्र की तरह दो बातें कर रहा हूं, तो कोई बुरी बात तो नहीं है?” मैं फिर भी चुप रही.
मैंने उसके बारे में जानना चाहा, “क्या आप सर्विस करते हैं?”

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“नहीं, मैं जूतों की दुकान चलाता हूं… अच्छा कोई आया है… फिर बात करेंगे.” उसने फोन काट दिया.
दो दिन कोई फोन नहीं आया, तीसरे दिन घंटी बजी. मेरे “हेलो” कहते ही उसने पूछा, “हाय प्रीति, कल कहां चली गई थीं.”
“मैं मूवी देखने गई थी.”
“ज़रूर कॉमेडी फिल्म देखने गई होगी. मुझे पता है कि तुम्हें कॉमेडी फिल्में पसंद हैं.”
“और क्या पता है मेरे बारे में?” आज पता नहीं क्यों मुझे वह अजनबी नहीं लग रहा था.
“सब कुछ पता है, जैसे- तुमने होटल मैनेजमेंट कर रखा है. तुम्हें कविताएं और गीत पसंद हैं. इस शहर में आने के पहले हैदराबाद में रहती थीं और पढ़ाई भी वहीं की थी. पंजाबी, हिंदी, अंग्रेज़ी और तेलुगु बोलती हो. केक बहुत बढ़िया बनाती हो…”
“बस-बस मैं समझ गई… प्रशंसा के पुल बांधकर मुझे मूर्ख बना रहे हो.” मैंने उसकी बात बीच में ही काट दी.
“प्रीति और मूर्खता? ये एन्टोनिमस हैं… अच्छा छोड़ो, ये बताओ कि क्या तुम सपने देखती हो?”
मैंने सोचा पता नहीं कैसा प्रश्न है. सपने किसे नहीं आते. पर, बोली, “नहीं… मैं सो जाती हूं.”
“तुम लकी हो, नींद तो आ जाती है. मुझे तो नींद ही नहीं आती. फिर सपने देखकर रात काटनी पड़ती है.”
“क्या देखते हैं आप?”
“ज़्यादातर में लतीफ़ें देखता हूं… जोक्स… हाथी और चींटी के जोक्स.” और उसने मुझे हाथी-चींटी का जोक्स सुना दिया.

इसके बाद हर दिन या दूसरे दिन उसका फोन आता. एक रूटीन-सा बन गया था. इसमें कोई शक नहीं कि बिना मिले ही हम मित्र बन गए थे.
मैंने कभी भी इसकी चर्चा अपने पति से नहीं की. हम काफ़ी देर तक हल्की-फुल्की बातें किया करते थे. उसकी बातें अच्छी होती थीं और मुझे उसके बोलने का लहज़ा पसंद था. मुझे नहीं लगता था कि वह कोई जूतों का दुकानदार है. वह बड़ी साफ़-सुथरी अंग्रेज़ी बोलता था.

वह फोन पर कभी-कभी जोक्स सुनाता, मेरी प्रशंसा करता और मुझे ख़ुश होते सुनकर ख़ुश हो जाता. अब उससे फोन पर बात करने की ऐसी आदत बन गई थी कि उसका फोन दो-तीन दिनों तक न आता, तो मुझे लगता कि मैं कुछ ‘मिस’ कर रही हूं. लगता कि दिनचर्या का कोई भाग रिक्त रह गया है. उसने भी ऐसी कोई बात या शब्द नहीं कहे, जो असभ्यता या शालीनता के परे हों. उसके मज़ाक एक सीमा तक होते. कभी-कभी ऐसा भी होता कि मेरे पति घर पर है और उसका फोन आ गया. ऐसे में मैं पूछती, “कौन बोल रहा है?” और वह फोन काट देता.
यह सिलसिला क़रीब दो वर्षों तक चलता रहा. उसके हाथी और चींटी वाले कई लतीफ़ें मुझे याद हो गए थे. मैंने जब भी उसके विषय में जानना चाहा, उसने बात टाल दी या उसने जो बताया, वह मुझे झूठ लगा. उसने बताया कि उसके घर का नाम ‘समस्या’ है, उसकी एक बेटी है जिसका नाम ‘चिंता’ है. मैं जानती थी कि वह झूठ बोल रहा है. वह कभी-कभी कहता भी, “मुझे एक ही बुरी आदत है, कभी-कभी झूठ बोल जाता हूं.”
मेरे घर की एक-एक बात उसे पता थी कि मेरे पति कब रेस्तरां जाते हैं, कब लौटते हैं, बच्चों की छुट्टी कब होती है इत्यादि. उसके दिल में मेरे लिए काफ़ी प्यार था इसका एहसास मुझे हो गया था. यदि मुझे ज़ुकाम भी हो जाता तो वह भांप लेता. डॉक्टरों के नाम और दवाइयां बताता. समय-समय पर फोन कर दवाइयां खाने की याद दिलाता. परहेज़ बताता, मुझे ऐसा लगने लगा था कि वह मेरा बहुत अच्छा गाइड है, सलाहकार है, मेरी छोटी-छोटी समस्याओं को सुनता और समाधान बताता. धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि वह मेरे जीवन में महत्वपूर्ण होता जा रहा है. मैंने उसकी आवाज़ ही सुनी, काश! मैं उसे देख पाती. पर उसने कभी मुझसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर नहीं की. एक बार मैंने ही कहा, “मैं आपसे मिलना चाहती हूं.”
तो वह कहने लगा, “बातें तो हो ही जाती हैं, फिर मिलने की क्या आवश्यकता है?”
एक बार क़रीब एक सप्ताह तक उसका कोई फोन नहीं आया. एक दिन उसका फोन आया, “हाय प्रीति, क्या कर रही हो?” उसकी आवाज़ कुछ धीमी थी, जैसे कोई लंबी बीमारी के बाद बोल रहा हो. आवाज़ में वो शार्पनेस नहीं थी, जो हुआ करती थी.
“…काफ़ी दिनों बाद मेरी याद आई आपको. मैं तो समझी कि भूल गए.”
“भला तुम भी कोई भूलने की चीज़ हो.”
“आप बीमार थे?”
“अरे नहीं, मैं कभी बीमार नहीं होता…”
उसने हंसने की कोशिश की, पर मुझे लगा कि वह बीमार ही है. फिर हाथी-चींटी का एक चुटकुला सुनाया.
फिर काफ़ी दिनों तक उसका फोन नहीं आया. मैं रोज़ प्रतीक्षा करती. जब भी फोन की घंटी बजती, मैं दौड़ कर फोन उठाती, बच्चों या पति को उठाने का मौक़ा नहीं देती. शायद वह बीमार था, पता नहीं क्या हो गया उसे? पता नहीं कैसी-कैसी आशंकाओं से दिल घबराता? क्या अब उसका फोन नहीं आएगा? मुझे लगता कि मुझे उसकी ज़रूरत है. मेरे दिल में उसके लिए एक चाहत थी. उसकी बातें मैं याद करती. उसकी बातों में मेरे लिए स्नेह था. एक छोटी बच्ची की तरह वह मुझे प्यार करता था. वह मेरा मित्र था… पर मैंने कभी उसे मेरे और पति के बीच नहीं पाया. उसने कभी नहीं चाहा कि मैं उसकी प्रेयसी बन जाऊं या अपने पति से दूर हो जाऊं. मैंने यह महसूस किया कि अपने पति से प्यार करते हुए भी एक स्त्री और पुरुष में मित्रता हो सकती है. हर संबंध की एक सीमा रेखा होती है. पर क्या पुरुष वर्ग इसे स्वीकार कर पाएगा? इस तरह के संबंध की पवित्रता पर विश्वास कर पाएगा? मैं इस विषय पर निश्चिंत नहीं थी और यही कारण था कि मैंने इस मित्रता की बात अपने पति को कभी नहीं बताई. मैं जिस रूप में इसे देख रही थी, शायद मेरे पति वैसे न देखें, शायद मेरे चरित्र पर उन्हें संदेह हो जाए.


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एक दिन फोन की लंबी सी घंटी बजी. मैंने सोचा मुंबई से डैडी का फोन होगा… फोन उठाया, “हाय प्रीति, क्या कर रही हो?” उसकी आवाज़ में कंपन था, जैसे किसी शिप से जा रही कॉल में या इंटरनेशनल कॉल में होता है. मैं विचलित हो गई. पूछा, “कहां से बोल रहे हैं?”
“बस, तुम्हारे बगल से ही बोल रहा हूं…”
“आप आई.एस.डी. या एस.टी.डी. पर बोल रहे हैं?”
“अरे नहीं, तुम्हें कैसे लगा कि में एस.टी.डी. पर बोल रहा
“आपकी आवाज़ ईको कर रही है.”
“अरे छोड़ो, मेरा गला ख़राब है… कोई और बात करें.”
“इतने दिन फोन क्यों नहीं किया?”
“क्या बताऊं… समय ही नहीं मिला. सीजन चल रहा है न, जूते बहुत बिक रहे.”
“आप झूठ बोल रहे है. आप जूते वाले नहीं हैं.”
“फिर मैं क्या हूं?” वह हंस पड़ा, पर साथ में खांसी की आवाज़ भी थी, जैसे कोई दमे का मरीज़ हंस रहा हो.
“लगता है आप कहीं सर्विस करते हैं और अब आपका ट्रांसफर हो गया है.”
“अरे नहीं प्रीति, मैं यहीं तुम्हारे क़रीब हूं… तुम्हें पता है कि मैं किसी को धोखा नहीं देता… हां, कभी-कभी झूठ ज़रूर बोल जाता हूं.” उसने एक-दो बातें और कीं और गुडनाइट कहकर फोन काट दिया. अभी दिन के ग्यारह बज रहे थे और वह गुडनाइट कह रहा था? कहां था वह, कहां से बोल रहा था. क्या वह विदेश चला गया है? क्या सचमुच वह ट्रांसफर पर नहीं गया है? या फिर इलाज के लिए गया है… उसकी आवाज़ से तो वह बीमार सा लग रहा था… मैं कुछ सोच नहीं पा रही थी.
इसके बाद दो-तीन बार उसका कॉल आया. वही दूर से आती गूंजती-सी आवाज़ थी… फिर चुप्पी हो गई. मैंने फिर उसकी आवाज़ नहीं सुनी.
मेरे घर के बगल में एक लेडी डॉक्टर रहती हैं, डॉ. गीता मुखर्जी. कभी-कभी मैं उनसे बच्चों की छोटी-मोटी दवाइयां लिखवा लेती हूं. अभी कुछ दिन पहले बातों-बातों में उसने ज़िक्र किया कि उसका सीनियर डॉक्टर एक दिन उसके घर बैठा चाय पी रहा था कि बालकनी पर मैं दिखाई दी. उसने बताया कि उस डॉक्टर की एक लड़की थी, जो कार एक्सीडेंट में मर गई थी. एक्सीडेंट में उसकी पत्नी भी मरी थी. उन्हीं ने बताया कि मेरी शक्ल उनकी लड़की से मिलती थी. डॉक्टर ने मेरे बारे में डॉ. गीता से काफ़ी जानकारी ली थी. उनकी उम्र पचास के ऊपर थी, अस्पताल में जब भी समय मिलता, तो वे मेरी बात छेड़ देते… कहते कि ‘मुझे’ उस लड़की में अपनी बच्ची दिखाई देती है. कभी-कभी वे फोन कर डॉ. गीता से पूछते कि आज उसने कौन से कपड़े पहन रखे हैं या कहां गई है इत्यादि. डॉ. गीता ने उनसे कई बार कहा कि, “मैं आपको प्रीति से मिलवा देती हूं.” पर वे इनकार कर देते… यह बात मेरे लिए कोई अधिक महत्व की नहीं है, यह सोचकर डॉ. गीता ने कभी इसकी चर्चा मुझसे नहीं की.
मैं अब समझ गई कि वही मेरा टेलीफोनिक मित्र था. वह गीता से पूछ लेता कि मैं क्या कर रही हूं या क्या पहन रखा है, फिर फोन करता… सारी बातें अब साफ़ थीं, पर मैंने गीता से कुछ नहीं कहा.
मैंने उसका पता और टेलीफोन नंबर पूछा, पर गीता ने बताया कि लगभग ढाई वर्ष पहले वह यहां की नौकरी छोड़कर स्टेट्स चले गए थे. वहां से एक-दो बार उनका कॉल आया था, पर उनका कोई कॉन्टैक्ट नंबर नहीं था उसके पास. गीता ने बताया कि बहुत ही अच्छे इंसान थे और उससे भी अच्छे सर्जन. बच्ची और पत्नी की मौत ने उन्हें अकेला कर दिया था.

अब भी उसके फोन का इंतज़ार कर रही हूं. यदि उसका पता या फोन नंबर मिलता तो मैं उससे ज़रूर संपर्क करती, चाहे वह दुनिया के किसी भी कोने में हो.
उसकी मित्रता मेरे लिए अनोखी थी, मेरी आवश्यकता बन गई थी. आज तीन वर्ष के क़रीब हो गए… आज भी जब कभी फोन बजता है तो मैं “हाय प्रीति, क्या कर रही हो?” सुनने के लिए दौड़ पड़ती हूं. क्या फिर कभी वह फोन करेगा? पता नहीं वह ज़िंदा भी है या… पता नहीं, मन में ये अपशकुन क्यों आता है? मैं इंतज़ार करूंगी. कभी तो उसे मेरी याद आएगी… शायद यह कहानी पढ़कर, यदि किसी तरह यह उस तक पहुंच जाए, वह जान सकेगा कि मैं उसके फोन का कितनी बेसब्री से इंतज़ार कर रही हूं.

– संगीता शर्मा

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