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कहानी- अधूरा ख़त (Short Story- Adhura Khat)

मुरली मनोहर श्रीवास्तव

उन्हें याद आया ख़त भेजने से पहले वे इस काग़ज़ में गुलाब का फूल भी तो छुपा कर रखते थे. वे धीरे-धीरे एक-एक लाइन पढ़ रहे थे. वो ख़त क्या था, किसी के जज़्बात का पुलिंदा था. अपने एकाकीपन की ज़िंदगी का दस्तावेज़, जिसमें कॉलेज से लेकर नौकरी तक के संघर्ष को जैसे किसी ने रेशमी धागे में पिरो दिया हो.

घर की सफ़ाई करते हुए वो सोच रहे थे कि दिवाली भी बहुत तंग करती है. आज तीसरा दिन है और लग रहा है जैसे कुछ हुआ ही नहीं. पूरे घर की पुताई हो चुकी थी और एक-एक सामान झाड़-पोंछ कर लगाया जा रहा था. कल छोटी दिवाली है और उसके बाद दिवाली.
सालों की परंपरा कुछ ऐसी होती है कि उसे न निभाओ, तो अधूरापन लगता है. यह आदत तो उन्हें बचपन से थी. छोटी दिवाली से पहले एक-एक कॉपी, किताब, रैक, आलमारी सब झाड़-पोंछ कर साफ़ करना. जो फ़ालतू सामान है, उसे हर हाल में सुबह तक बाहर निकाल देना था. देखते-देखते घर का एक कोना बहुत से फ़ालतू सामानों से भर चुका था. पुराने कपड़े जो किसी को दिए जा सकते थे, रद्दी अख़बार जो बेचे जाने थे, टूटे-फूटे बर्तन, शोपीस और ना जाने क्या-क्या… यह क्रम चल ही रहा था कि साफ़-सफ़ाई में एक रंगीन काग़ज़ आलमारी से निकलकर गिर गया. और बस सफ़ाई करते उनके हाथ थम गए. इससे पहले की वो काग़ज़ रद्दी पेपरों में समा जाता, उन्होंने लपककर उसे उठा लिया.
एक पीले रंग के काग़ज़ पर फूल उभरे थे. किसी लेटर पैड का पन्ना था. उसे देखते ही वे कहीं खो से गए, क्योंकि वह स़िर्फ रंगीन काग़ज़ का एक लेटर पैड भर नहीं था, उस पर कुछ लिखा भी था. उन्होंने पढ़ना शुरू किया, ‘जानू आज नींद नहीं आ रही है, जैसे-जैसे मिलन के दिन क़रीब आ रहे हैं, ना जाने क्यों मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही है…’


उन्हें याद आया, ख़त भेजने से पहले वे इस काग़ज़ में गुलाब का फूल भी तो छुपा कर रखते थे. वे धीरे-धीरे एक-एक लाइन पढ़ रहे थे. वो ख़त क्या था, किसी के जज़्बात का पुलिंदा था. अपने एकाकीपन की ज़िंदगी का दस्तावेज़, जिसमें कॉलेज से लेकर नौकरी तक के संघर्ष को जैसे किसी ने रेशमी धागे में पिरो दिया हो.
लेकिन यह ख़त अधूरा था, क्योंकि आगे पेंसिल से डैश-डैश किया हुआ था जैसे अभी इसमें कुछ लिखना बाकी रह गया हो.
हां, सबसे नीचे तीन शब्द लिखे जा चुके थे- स़िर्फ तुम्हारा भोलू.
वह डैश डैश शायद ख़त को और रूमानी बनाने के लिए किसी शेर के लिए छूटे थे. खत पढ़ते-पढ़ते वे कहीं खो से गए थे.
कितना पुराना होगा वह ख़त? उस पर लिखी तारीख़ उसके कोई 35 साल पुराना होने की गवाही दे रही थी. किसी की ज़िंदगी में 35 साल कोई छोटा वक़्त तो नहीं होता!.. वे सोचने लगे उस व़क्त क्या लिखना चाहते थे. जो अधूरा रह गया और ख़त पोस्ट ना किया जा सका. उन्होंने खत को सीने से लगा लिया, जैसे कोई अधूरा ख़्वाब जी उठा हो. खत की स्याही हल्की पड़ गई थी, मगर उसके अल्फ़ाज़ की ताज़गी बरक़रार थी. 
खत पढ़ते-पढ़ते जब उनकी आंखें नीचे पहुंचीं, तो आंखें नम थीं- सिर्फ़ तुम्हारा…
उन्हें लगा ज़िंदगी में सिर्फ़ इस एक लाइन की इबारत को लिखने के लिए ही तो यह ख़त अधूरा रह गया था, जो पोस्ट ना किया जा सका.

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अपनी ही बातें एक उम्र के बाद पढ़ने, सुनने और देखने में बड़ी अजीब लगती हैं, उन्हें शॉपिंग के लिए जाना था. नीचे ड्राइवर गाड़ी साफ़ कर रहा था. बेटी के घर भी तो त्योहारी भेजनी होगी और वो जो उनके अंडर में दस लोग काम करते हैं, उनके लिए मिठाई और गिफ्ट भी तो लाना है. फिर घर में काम कर रही मेड और सोसायटी के चौकीदार के लिए भी कुछ लाना होगा. नियम के अनुसार मंदिर के पुजारी जी को नए वस्त्र देने हैं. आज उनके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है. वे न भी जाएं, तो असिस्टेंट को लिस्ट देकर सब मंगा सकते हैं और ख़ुशी-ख़ुशी सबको गिफ्ट दे सकते हैं.
लेकिन इन सबसे अलग उनका दिमाग़ उस चिट्ठी पर ही लगा था, उस चिट्ठी पर, जो पोस्ट नहीं हुई थी.
वे अधूरा ख़त पढ़ने लगे- ‘सुनो आज साइकिल से पूरे शहर का चक्कर लगाकर आया हूं. तब जाकर इतना सुंदर लेटर पैड मिला है और जानती हो, मेरे पास दिल की दौलत के सिवाय तुम्हें देने के लिए और कुछ नहीं है. एक बात और, न जाने क्यों, मैं अपने आसपास एक बहुत बड़ी भीड़ होने के बावजूद बिल्कुल अकेला महसूस करता हूं. हां, ज़्यादा तो नहीं तुमसे एक वादा कर सकता हूं, मैं सिर्फ़ तुम्हारा हूं और ताउम्र तुम्हारा रहूंगा… इसके बाद सबसे नीचे लिखा था, वही…
सिर्फ़ तुम्हारा भोलू…
उनकी आंखों में इसलिए आंसू थे, क्योंकि वह जो  कुछ लाइन अधूरी रह गई थी, वह उन्होंने अपनी पत्नी के साथ चलते-चलते आज 35 साल की ज़िंदगी में वक़्त के ऊपर लिख दी थीं, जिसे पढ़ कर समझना इतना आसान नहीं था.
आज उनके इतने बड़े पद, नाम, शोहरत, दौलत  और शानदार व्यक्तित्व के पीछे न जाने कितनी बड़ी भीड़ उनके लिए कुछ भी करने को तैयार थी. वह जानती थी इस शख़्स से जुड़ कर ज़िंदगी में कुछ हासिल ही होगा, जाएगा कुछ नहीं. लेकिन इन सबसे परे सवाल बहुत बड़े थे… सवाल किसी के साथ कुछ करने के लिए मौ़के का नहीं था और न ही आदर्शवादी होने का था. यहां सवाल भरोसे का था, भरोसे पर ज़िंदगी चलती है.
उन्हें याद आया कॉलेज के दिनों में कैरेक्टर सर्टिफिकेट मिला करते थे. उनके नंबर तो कुछ नहीं होते थे, मगर उसका अच्छा होना ज़रूरी होता था. कहीं भी एडमिशन लेना हो या नौकरी ज्वाइन करनी हो, सारे पेपर के साथ उसका लगा होना ज़रूरी होता. अगर कैरेक्टर सर्टिफिकेट न हो, तो प्रवेश नहीं मिलता.
इस कैरेक्टर सर्टिफिकेट की एक ख़ासियत और भी है. यह ज़िंदगी में सिर्फ़ एक बार मिलता है. यदि यह ख़राब हो गया, तो लाख कोशिश के बाद भी इंसान के चरित्र पर लगा धब्बा उतरता नहीं है.

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अचानक उस ख़त को हाथ में लेते ही उन्हें कुछ और याद आया. आज यह जो शानदार घर है, नाम, शोहरत, इज़्ज़त है, बच्चे हैं… जब यह ख़त लिखा गया था, तो यह सब कुछ नहीं था.
उन्हें याद आया तब तो बस एक लकड़ी की टेबल और कुर्सी हुआ करती थी उनके पास. हां, एक फोल्डिंग बेड भी थी. फिर क्या, हुआ कुछ नहीं था. बस उनकी शादी हो गई थी. वैसे किसी इंसान की शादी मज़ाक के टर्म में बर्बादी ही समझी जाती है, जो अपनी सोच पर निर्भर करती है. उन्हें भी शुरू में कुछ ऐसा ही लगा था, क्योंकि शादी होते ही घर के नियम-क़ानून बदल गए थे.
यह क्या आरती ने तो घर में आते ही सिर पकड़ लिया था. भोले राम के घर में दौलत के नाम पर सिर्फ़ एक टेपरिकॉर्डर और कैसेट थे. न चूल्हा, न चक्की का कोई ठिकाना. ऊपर से सिर पर कर्ज़ भी चढ़ा हुआ था.
भला क्या देखकर घरवालों ने उसके लिए लड़का ढूंढ़ा था, मगर नहीं इसे ही ज़िंदगी कहते हैं. भोलू राम के भीतर तमाम कमियां थीं, मगर जनाब जिसे ब्याह कर लाए थे, उस पर फ़िदा थे और फ़िदा होते भी क्यों नहीं, हर तरफ़ अब यही अफ़साने हैं हम तेरी आंखों के दीवाने हैं… वो उम्र भी कुछ ऐसी होती है कि बस पूछिए मत, सो वे अपनी इस फटेहाली पर अपना सा मुंह बना कर आरती के आगे खड़े थे.
आरती ने पूछा, “बाबू मोशाय, यह बताओ घर कैसे चलेगा?”
वे बोले, “ये वेतन है, हर महीने मिलता है. बस बाकी मुझे नहीं पता.”
आरती ने सोचा इस इंसान से झिक-झिक करने का कोई फ़ायदा नहीं है. अब शादी हुई है, तो निभाना तो पड़ेगा.
तभी आरती को परेशान देख भोलू राम बोले, “सुनो टेंशन की कोई बात नहीं है, बनिये के यहां खाता खुला है. सब समान आ जाएगा. जब पूरी दुनिया उधारी पर चलती है, तो हम कौन से अलग हैं. सब हो जाएगा. तुम लिस्ट बताओ, मैं  अभी लेकर आया.” 
आरती ने नाराज़गी जताते हुए कहा, “हमारे घर में उधार नहीं आएगा. जितने पैसे हमारे पास होंगे, हम उसी में गुज़ारा कर लेंगे.”
और एक बार उधार का चक्र टूटते ही घर में ख़ुशहाली आने लगी थी. अब बनिये से महंगेे और मनमाने रेट पर सामान ख़रीदने की ज़रूरत नहीं थी. बाज़ार में जहां सस्ता मिला, सही मिला, वहां से ख़रीदारी होती. बचत की बचत और घूमने का घूमना हो जाता.
कभी-कभी शौक कम करने पड़ते, तो उससे बहुत बड़ा फ़र्क़ नहीं पड़ता.
वैसे ही एक दिन जब बाहर जाने की बात आई, तो आरती बोली, “ये हर महीने भाग-भागकर हम लोग ही क्यों जाते हैं? जिसे मिलना है, उसे बुलाने के बारे में सोचो और हां त्योहार के त्योहार चलेंगे. एक बार में सबसे मिल आएंगे.”
खैर यह जो छोटी-छोटी समझदारी भरी बचत होती है, वह घर-गृहस्थी की तस्वीर बदल देती है, जो अब इस घर में दिखाई देने लगी थी.
देखते-देखते परिवार बढ़ा, समय बीता और उनकी भी तरक़्क़ी होने लगी. आरती की  पढ़ाई-लिखाई ने बच्चों को कभी ट्यूशन नहीं जाने दिया. देखते-देखते बच्चों के टॉप करने से घर-परिवार का मान-सम्मान सब कुछ तो बढ़ गया था.
आज नीचे जो बड़ी सी गाड़ी खड़ी है और यह जो शानदार ड्रॉइंगरूम में भोलू राम पैर पसारे बैठे-बैठे चैन की बंसी बजा रहे हैं, वह सब किसी सपने के पूरा होने से कम नहीं था. हां, उन्हें ताउम्र इस बात का ख़्याल रहा कि यह जो कैरेक्टर सर्टिफिकेट है, ज़रा सा भी फिसलने न पाए. यह  फिसला कि बच्चों का करियर और समाज में मान-सम्मान सब हाथ से गया, जो फिर कभी लौटकर नहीं आने वाला.
वे हाथ में वो रंगीन खत लिए न जाने कब तक ऐसे ही सोचते रहते कि आरती की आवाज़ सुनाई दी, “क्यों जी तुमने काग़ज़-पत्तर समेट दिए कि नहीं? हे भगवान ये आदमी भी न, पता नहीं क्या करने लगता है… एक काम नहीं होता इससे, इतनी देर में तो मैं घर को तीन बार समेट देती. मैंने सोचा कहीं कुछ काम के काग़ज़ न हों, सो इन्हें देखने को बोल दिया.” 

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जैसे ही आरती की आवाज़ सुनाई दी, वे सतर्क हो गए, “अरे, आ रहा हूं. क्यों ग़ुस्सा करती हो.”
“अरे इतनी देर हो गई. और कोई काम नहीं है क्या घर में. त्योहार का दिन है. मार्केट जाना है, और तुमसे ज़रा सा काम नहीं सिमट रहा. तुम वहीं रहो, मैं चाय ला रही हूं.”
इधर आरती की आवाज़ बंद हुई कि उनका दिमाग़ घूमा. यह क्या करने जा रहे हैं वो. जब इतने सालों तक अपने कैरेक्टर सर्टिफिकेट को बचा कर रखा था, तो यह ऑफिस स्टाफ के साथ वो गोवा के टूर पर क्यों जा रहे हैं?
वह भी सेक्रेटेरियल स्टाफ के साथ, जिनमें तीन लड़कियां हैं. भला इन नए बच्चों के साथ उनका क्या तालमेल. इन नए लड़के-लड़कियों का क्या, सबके सब पता नहीं क्या-क्या करेंगे?  उनके दिल के भीतर कौन से छुपे अरमान हिलोरे मार रहे हैं, जो वे इसके लिए हामी भरे बैठे हैं.
इससे पहले वे ज़्यादा कुछ सोचते कि आरती चाय लेकर आ गई और उसने भोलू के हाथ में रंगीन काग़ज़ देख लिया.
“क्यों जी यह क्या है? अब तुम्हारी उम्र है यह सब करने की. मुझे दिखाओ क्या लिखा है इसमें और यह किसे देने जा रहे हो?”
उन्होंने लेटर छुपाना चाहा बोले, “अरे, कुछ नहीं, अभी-अभी सफ़ाई में निकला है. बस, फेंकने जा रहा था.”
“अच्छा जी मुझसे बहाने मत बनाओ. आधे घंटे से सारा काम छोड़ के यह पेपर लिए बैठे हो और कह रहे हो रद्दी है.” इतना कहते हुए आरती ने  भोलू राम से वह लेटर छीन लिया. उसने देखा उस पर बहुत पुराने फाउंटेन पेन से तारीख़ लिखी थी, एक जनवरी 1990.
नीचे लिखे ह़र्फ देखकर वह इमोशनल हो गई.
“क्यों जी, यह कौन सी चिट्ठी है और इसे कहां छुपा कर रखा था तुमने?”
भोलू भी भावुक हो उठे थे बोले, “तुम मेरा ख़त मुझे दे दो.”


“अच्छा यह तुम्हारा ख़त है? कोई बात नहीं, यह बताओ किसके लिए लिखा है तुमने ऐसा ख़त?” आरती बोली.
भोलू से कुछ बोलते न बना. लड़खड़ाती आवाज़ में बोले, “वो तुम्हारे लिए लिखा था, लेकिन पूरा नहीं हुआ, तो पोस्ट नहीं कर पाया था, वही सफ़ाई में दिख गया.” 
“जब मेरे लिए लिखा था, तो ख़त मेरा हुआ कि तुम्हारा, सोच कर बताओ. यह मेरे लिए था ख़त  तो मेरा हुआ.” आरती हंसते हुए बोली.
“प्लीज़ यार खत दे दो. अभी बच्चे देखेंगे, तो कितना चिढ़ाएंगे, तुम समझती क्यों नहीं.” भोलू जैसे गिड़गिड़ाते हुए बोले.
“चलो ठीक है तुम्हें दे दूंगी, पर एक शर्त पर. इसे तुरंत फोल्ड करो और कहो कि आज के बाद इसे बाहर नहीं निकालोगे. अगर सुबह से शाम तक मैं भी ऐसे ही तुम्हारी तरह बैठी रहूं, तो हो चुका काम. चल चुका यह घर.” आरती ने कहा.
भोलू ने ख़त लेते हुए हां में सिर हिलाया और जल्दी-जल्दी खत फोल्ड करने लगा, फिर अचानक बोला, “सुनो तुम भी तैयारी कर लो.”
आरती बोली, “अरे, किस की तैयारी कर लूं, दिवाली की तैयारी कर तो रही हूं और क्या करना है?”  
“अरे बताया तो था तुम्हें कि गोवा जा रहा हूं.” भोलू ने कहा.
“हां, लेकिन वह तो तुम्हारे ऑफिस का टूर है. उसमें मेरे चलने की तो कोई बात नहीं हुई थी.” आरती ने कहा.
“अब जो कह रहा हूं वो सुनो. मैं अकेले गोवा नहीं जा रहा हूं, तुम भी मेरे साथ चल रही हो.” भोलू ने कहा.
और आरती, जिसने ख़त के अंतिम तीन शब्द पढ़े थे- सिर्फ़ तुम्हारा भोलू… वह सोच रही थी, यह ख़त अधूरा कहां है. भोलू ने तो इस अधूरे ख़त को अपनी ज़िंदगी के चरित्र की स्याही से लिख कर पूरा किया है. इस ख़त में तो वफ़ा की रोशनाई भरी हुई है.

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