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कहानी- राग मधुवन्ती (Story- Raag Madhuvanti)

पत्र खोलते ही सम्बोधन ने उसे चौंका दिया, ‘प्रिय मधु…?’ उसके माथे पर सोच की लकीरें उभर आईं. इस नाम से तो उसे सीमा का ममेरा भाई नरेन्द्र बुलाता था. नरेन्द्र ने कभी खुलकर उससे बात तक नहीं की. आज वर्षों बाद पत्र क्यों लिखा है? उसे देखे क़रीब तीस वर्ष तो हो ही गये होंगे! सुजाता के मन में कई सवाल उठ रहे थे.

पास के मार्केट से रोज़मर्रा का कुछ सामान लेकर सुजाता घर लौटी, तो देखा बाहर बरामदे पर डाकिया एक पत्र डाल गया है. पत्र उसी के नाम था, पर लिखनेवाले का नाम-पता कहीं नहीं था. वो मन-ही-मन सोच रही थी, उसे कौन पत्र लिखेगा? दोनों पति-पत्नी एकमात्र बेटे-बहू के साथ ही रहते हैं. दोनों बेटियां भी इसी शहर में ब्याही हैं. एक सीमा है, उसके बचपन की सखी, पर ये लिखावट तो उसकी भी नहीं?
पत्र खोलते ही सम्बोधन ने उसे चौंका दिया, ‘प्रिय मधु…?’ उसके माथे पर सोच की लकीरें उभर आईं. इस नाम से तो उसे सीमा का ममेरा भाई नरेन्द्र बुलाता था. नरेन्द्र ने कभी खुलकर उससे बात तक नहीं की. आज वर्षों बाद पत्र क्यों लिखा है? उसे देखे क़रीब तीस वर्ष तो हो ही गये होंगे! सुजाता के मन में कई सवाल उठ रहे थे. वो सो़फे पर बैठकर पत्र पढ़ने लगी.

प्रिय मधु,
मैं जानता हूं, मेरा ख़त पढ़कर तुम सकते की हालत में अवाक् खड़ी रह जाओगी. आज जीवन के कई पड़ाव पार कर लेने के बाद वृद्धावस्था के गिने-चुने दिन ही शेष रह गये हैं. बासठ का हो चला हूं मैं. तुम भी तो पचपन-छप्पन वर्षों का खट्टा-मीठा अनुभव दामन में समेटे किसी की नानी-दादी बन चुकी होगी. न जाने कनपटियों पर स़फेद हो आईं लटों से घिरा तुम्हारा चेहरा कैसा लगता होगा? मैं तो तुम्हारे उस अनुपम रूप माधुरी को अब तक विस्मृत नहीं कर पाया हूं, जब हम पहली बार रत्ना बुआ के घर पर मिले थे.
गुलाबी रंग की साड़ी, गले में स़फेद मोतियों का हार… ख़ूबसूरत गुलाबी चेहरे पर हीरे-सी जड़ी मोहक, कजरारी, पनीली आंखें, अधरों पर आकर्षक मुस्कान….. खिलखिलाकर हंसने पर गालों पर उभरते ख़ूबसूरत गड्ढे….. तुम्हें पहली बार देखकर मैं हतप्रभ रह गया था.
“भैया, ये सुजाता है. हमारे कॉलेज की ब्यूटी क्वीन… और सुजाता, ये हैं मेरे ममेरे भाई, नरेन्द्र.”
मेरी बुआ की बेटी सीमा ने परिचय करवाया, तो मैंने थरथराते हाथ जोड़ दिये थे, पर आंखें अपलक तुम्हें निहार रही थीं. कुछ कहने के लिये शब्द ही कहां शेष रह गये थे?
“तुम्हारे भैया गूंगे हैं क्या?” अचानक तुम्हारी मिश्री-सी आवाज़ कानों में किसी मधुर गान की तरह उतरी थी. मैं कुछ कह पाता, इससे पहले ही सीमा तुम्हें भीतर खींचकर ले गयी थी. अपनी शादी का जोड़ा दिखाने… याद हैं ना वो पल…
तुम्हारा ख़याल हर पल मेरे दामन से लिपटा रहता. मेरी धड़कनों ने बेकरार होकर मेरा चैन, मेरी नींद सब कुछ छीन लिया था. तुम जब भी सीमा से मिलने आतीं, मेरी धड़कनें बेकाबू हो उठतीं. तुम दोनों ज़मानेभर की बातें करने में मशगूल होतीं. और मैं धीरे-से खिड़की का पर्दा हटाकर तुम्हें अपलक निहारता रहता. एक अदृश्य डोर में बंधा, अवश-सा… तुम्हारी ओर खिंचता जा रहा था.
मैं सीमा की सगाई पर मात्र सप्ताह भर की छुट्टी पर आया था, पर उसकी शादी तक रुक गया था. जिस बुआ के घर साल में पांच या सात दिन छुट्टियां गुज़ारने आता था, वहां महीनेभर से टिका था. एक दिन बुआ ने स्नेह से पूछा भी था, “क्यों इंजीनियर साहब, इस बार नौकरी छोड़कर आये हैं क्या?”
“अरे नहीं बुआ, मां की मृत्यु के बाद एक तुम ही तो हो, जिससे मैं सबसे ज़्यादा प्यार करता हूं. सोचा इस बार ज़्यादा समय तुम्हारे साथ गुज़ारूं. छोटी बहन को विदा कर दूं. काम में तुम्हारा हाथ बटाऊं.” मैं लाड़ में बुआ के गले से लिपट गया था. उस व़क़्त महसूस हुआ कि स़फेद झूठ बोलना कितना दुश्कर काम है. पर बुआ की पारखी आंखों ने तुम्हें देखकर मेरे चेहरे पर उभरनेवाले प्रेम पगे भावों और स्नेहिल उमंगों से परिपूर्ण भविष्य के सपने बुनती मेरी आंखों में जैसे सब कुछ पढ़ लिया था.
एक रात बुआ ने भेद भरे स्वर में मुझे समझाया भी था कि मैं एक संभ्रांत मैथिल ब्राह्मण खानदान का इकलौता वारिस हूं. मुझे अपने पिता और स्वर्गीय मां के मान-सम्मान का ध्यान रखते हुए कोई भी क़दम उठाने से पहले दस बार सोचना चाहिए.
बुआ ने मुझे बचपन से पाला था. वो मेरे मन में उमड़ रहे विचारों से अनजान नहीं थीं. मैं भी बुआ के मनोगत विचार भली-भांति समझ रहा था. सब कुछ समझकर भी हम दोनों मौन थे. और तुम्हें तो मेरे असीम प्रेम का लेशमात्र पता नहीं था.
एक शाम सीमा एक संगीत समारोह के दो टिकट ले आयी थी. उसने बताया कि टाउन हॉल में हो रहे उस संगीत समारोह में तुम भी गीत गाने वाली हो. उस क्षण तुम्हारे व्यक्तित्व के एक और अनछुए रहस्य पर से पर्दा उठा कि अपार सौन्दर्य की स्वामिनी तुम कोकिल कण्ठी भी हो.
हॉल खचाखच भरा था. कई उत्कृष्ट गायक मंच पर आये. उनका संगीत सुनकर बार-बार हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता था. पर मैं तो दम साधे उस पल की प्रतीक्षा कर रहा था, जब तुम्हारी आवाज़ हॉल में गूंजेगी. तभी उद्घोषक ने मंच पर आकर कहा, “अब आपके सामने वूमन्स कॉलेज की छात्रा कुमारी सुजाता ‘राग मधुवन्ती’ पर आधारित एक भजन प्रस्तुत करने जा रही हैं. इस भजन में वृक्ष पर सहमे से बैठे उस पक्षी की ईश्‍वर से दया की कातर पुकार है, जिसे ऊपर मंडराते बाज और नीचे तीर साधे खड़े बहेलिये का भय कंपा रहा है. तभी सर्पदंश के कारण बहेलिये का निशाना चूक जाता है. और तीर सीधे बाज के कलेजे में उतर जाता है इस भजन में ईश्‍वर की अपार कृपा का वर्णन किया गया है… तो लीजिये… मंच पर आ रही हैं… कुमारी सुजाता.”
पूरा हॉल नि:शब्द था. उस क्षण तुम्हारी मधुर आवाज़ कानों में एक अविस्मरणीय गूंज बनकर उभरी. “हौं अनाथ…बैठ्यो द्रुम डरिया…. पारधि साधे बाण. ताके भय मैं भागन चाहूं… ऊपर ढुक्यो सचान. अब के राखि लेहू भगवान…… !”
लोग स्तब्ध होकर संगीत रस में डुबकियां लगा रहे थे. और मैं मंत्रमुग्ध-सा तुम्हें अपलक निहार रहा था. उस पल ने मेरे दिल पर जैसे किसी अमिट स्याही से तुम्हारा नाम लिख दिया था. मैंने सोच लिया था कि अगर कोई मेरी जीवनसंगिनी होगी, तो वो स़िर्फ तुम होगी.
उसी दिन मैंने तुम्हें नया नाम दिया था, ‘राग मधुवन्ती.’
“वाह भैया, तुम्हारा भी जवाब नहीं. क्या नाम दिया है, राग मधुवन्ती……” सीमा खिलखिलाकर हंस पड़ी थी. साथ में तुम्हारा भी ठहाका गूंजा था. मैंने पहली बार हिम्मत जुटाकर तुमसे कहा था, “तुम्हारा स्वर इतना मीठा है कि तुम्हारा नाम सुजाता नहीं…..मधु होना चाहिए.”
“ठीक है, आप मुझे मधु ही कहिये.” तुमने मुस्कुराकर सामान्य रूप से कहा था.
काश! मैं उस व़क़्त तुम्हें अपना हृदय चीर कर दिखला सकता, पर मैं तो बुआ की नसीहतों से बंधा था. जात-पात, कुल की मर्यादा मेरे प्रेम को उसी तरह निगलती जा रही थी, जैसे चांद पर लगा ग्रहण उसे धीरे-धीरे ढंकता चला जाता है.
बुआ के साथ कुछ दिन पहले हुई बातचीत का एक-एक शब्द कानों में गूंज रहा था.
“नहीं नरेन्द्र, तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो? कहां तुम उच्च कोटि के ब्राह्मण. और कहां वो… सुजाता पासवान? नहीं बेटा, भूल जाओ उसे. तुम्हारे लिये लड़कियों की कमी है क्या?”
“मुझे उसकी जात से क्या लेना-देना बुआ? मैं तो स़िर्फ इतना जानता हूं कि मैं उससे अथाह प्रेम करने लगा हूं. उसके सिवा किसी और की पत्नी के रूप में कल्पना भी नहीं कर सकता.”
“बेटे, यथार्थ और कल्पना में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ होता है. तुम्हारे पिता किसी भी क़ीमत पर नहीं मानेंगे.”
“बुआ मेरी ख़ातिर, एक बार बाबूजी से बात करने का प्रयास…”
“नरेन्द्र, प्रयास वहीं करना चाहिए, जहां सफलता की कम-से-कम एक प्रतिशत तो गुंजाइश हो.”
मेरी दशा उस जुआरी जैसी हो गयी थी. जिसका सर्वस्व दांव पर लग गया हो.
सीमा के विवाह के दिन तुम्हारे साथ विभिन्न कामों में जुटा रहा. अपने अधरों पर मौन का पहरा बिठा दिया था मैंने. चेहरे पर मुश्किल से ओढ़ी गयी हंसी के पीछे अपना सारा दर्द अच्छी तरह छिपा लिया था, पर उसी पल जाना, दर्द छिपाना कितना दुश्कर होता है.

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सीमा की विदाई के व़क़्त मैं बिलख-बिलख कर रोया था. ख़ुद तुमने कहा था, “सीमा, तुम्हारे भैया तुमसे कितना प्यार करते हैं.” पर तुम्हें क्या पता, मेरी आंखों से केवल सीमा का बिछोह ही नहीं, तुम्हारा बिछोह भी झरने की भांति फूट पड़ा था. कोई मेरे दर्द को समझनेवाला था, तो वो एकमात्र बुआ थीं. मेरे अमर-प्रेम की मूक साक्षी. सीमा भी तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम से सर्वथा अनजान थी, आज भी है.
सीमा से ही तुम्हारे बारे में हर ख़बर मिलती रही. कुछ वर्ष बीते, पता चला तुम अपने स्नेहिल पति और तीन बच्चों के साथ बेहद सुखी हो. मेरे लिये यही बहुत बड़ी बात थी. क्या प्रेम का अर्थ केवल शारीरिक मिलन है? प्रेम तो वो एहसास है, जो किसी के लिये सम्पूर्ण समर्पण की भावना को जन्म देता है. हम जिससे प्रेम करते हैं, वो हर हाल में ख़ुश रहे, जब मन में ये भावना उदित होती है, तो बिछड़ने का एहसास कम पीड़ा देता है. मैं तुम्हारी हर ख़बर रखता था… तुम्हारे बच्चे बड़े हुए… उनकी शादियां हुईं… तुम सास बनीं… फिर नानी… और दादी बनीं.


तुमसे मिलने में हमेशा कतराता रहा. कहीं मेरी आंखें मेरे मन का भेद न खोल दें.
मेरे पिता और बुआ वंश नष्ट होने की अगाध पीड़ा लिये दुनिया को अलविदा कह गये. मेरे नसीब में शायद एकाकी रहना ही लिखा था. मेरी दशा पर दु:खी होकर एक दिन सीमा ने कहा था, “न जाने वो कौन अभागी होगी, जिसने आप जैसे हीरे की अवहेलना की?”
“उसे तो पता भी नहीं कि मैं उससे बेपनाह प्रेम करता हूं.” मेरी बात पर सीमा बुरी तरह चौंक पड़ी थी. उसकी आंखों में घोर आश्‍चर्य था. उसने लाख क़समें दीं, पर मेरा मौन नहीं टूटा. अट्ठावन वर्ष की उम्र तक नौकरी की… फिर रिटायर हुआ… और फंस गया फेफड़ों के कैन्सर की गिऱफ़्त में. लगातार सिगरेट पीने का फल सामने था.
पर मैं दुखी नहीं हूं… मेरी मृत्यु तो उसी व़क़्त हो गयी थी, जब तुम्हारी डोली उठी थी. हां, एक शरीर शेष बचा था… जो अब नष्ट होने जा रहा है. डॉक्टर कहते हैं, कुछ ही दिनों का मेहमान हूं… पुनर्जन्म पर विश्‍वास नहीं है, इसलिये अगले जन्म में तुम्हारा साथ पाने की कामना भी तो नहीं कर सकता.
एक दिन अचानक मन में ख़याल आया, हम जिससे प्रेम करते हैं, उसे अगर इस प्रेम का आभास भी न रहे, तो क्या प्रेम की सार्थकता सिद्ध हो सकती है? दिमाग़ ने कहा, क्यों नहीं… पर दिल ने बार-बार नकार दिया. पूरा एक सप्ताह लगा है काग़ज़ पर चंद शब्द उकेरने में. बहुत सोचा, तुम्हें कभी कुछ पता न चले, पर अब हार गया हूं. मृत्यु मेरे सिरहाने मंडरा रही है… भीषण व्याधि, वेदना का तीर साधे समक्ष खड़ी है… आज मेरी दशा भी उसी कातर, व्याकुल और विह्वल पक्षी की तरह हो गयी है, जिसे सिर पर बाज और नीचे बहेलिये का भय आतुर कर रहा था.
मरते हुए इन्सान की आख़िरी इच्छा पूरी करना सबसे बड़ा धर्म है ना? मेरी भी एक अन्तिम इच्छा है… काश! मृत्यु से पहले एक क्षण के लिये तुम्हें देख पाऊं. क्या ऐसा हो सकता है?
जानता हूं, मेरे शब्द… उनमें छिपा निवेदन… मनुहार… तुम्हें काठ बना डालेंगे,पर एक तुम ही तो हो, जो मेरी मृत्यु को सरल बना सकती हो. मुझे माफ़ कर देना, मन पर वश नहीं रख पाया… अस्पताल के एक कर्मचारी के हाथों पत्र डाक में डलवा रहा हूं. न जाने तुम तक पहुंचेगा भी या नहीं. वर्षों पहले सीमा की डायरी से तुम्हारा पता चुपचाप उतार लिया था ना…
किस अधिकार से तुम्हें कहूं कि इसी शहर के सिटी अस्पताल के फर्स्ट फ्लोर के कमरा नम्बर 120 में तुम्हें आना ही होगा?… क्या तुम एक बार… नहीं आ सकती मधु?
अब तक स़िर्फ तुम्हारा…
पत्र पढ़कर सुजाता पाषण की प्रतिमा की तरह जड़… संज्ञाशून्य-सी होकर सो़फे पर ढह-सी गयी. पत्र का एक-एक शब्द मानो हृदय को अनजानी वेदना के असंख्य तीरों से बेधता चला गया. वो भीतर तक कांप उठी. “प्रेम का ये कैसा रूप है? हे ईश्‍वर! मैंने तो कभी उनको इस दृष्टि से नहीं देखा. अगर ये पत्र मेरे पति या बेटे-बहू के हाथ में पड़ जाता तो? इस उम्र में अपयश की काली परछाइयों से बच सकती? कौन करता मेरी सच्चाई पर विश्‍वास?”

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वो सिर थामकर बिलख पड़ी. विगत के कई चित्र बार-बार आंखों के सामने नृत्य कर उठे. पत्र में जिन घटनाओं का उल्लेख था… सारी घटनाएं नवीन चोला धारण कर मन को मथने लगीं. क्या करूं? सुजाता के मन में मन्थन चल ही रहा था कि कॉलबेल बज उठी. उसने जल्दी से पत्र अलमारी में छिपा दिया फिर देखा, उसके पति विपिन अपने दोस्त के घर से लौट आये थे.
“एक कप चाय मिलेगी?” कहते हुए उन्होंने पत्नी के पीले ज़र्द चेहरे पर नज़रें डालीं, तो चौंक पड़े.
“क्या हुआ? तबियत तो ठीक है ना?” सुजाता ने सहज होने का प्रयास करते हुए कहा, “चार बजनेवाले हैं, बच्चों का नाश्ता फ्रिज में रखा है. समर और बहू आयें तो कह दीजियेगा, मैं अपनी एक मित्र से मिलने जा रही हूं… शायद आने में देर हो जाए… प्लीज़ आज आप दोनों बच्चों को नाश्ता निकालकर दे दीजियेगा…”
“अरे भई, वो मेरे भी पोता-पोती हैं.” विपिन हंस पड़े थे. “तुम निश्‍चिन्त होकर जा सकती हो.” उन्होंने सुजाता का कंधा थपथपा दिया था.
ऑटो से सिटी अस्पताल का आधे घंटे का सफ़र उसे सदियों की यात्रा जैसा लग रहा था. वो ऑटो से उतरकर लगभग दौड़ती हुई कमरा नम्बर 120 के दरवाज़े पर खड़ी हो गयी.
कमरे में कई लोग खड़े थे. सब सुजाता के लिये अपरिचित थे. सबकी प्रश्‍नवाचक निगाहों की अवहेलना करके वो भीतर चली आयी. वहां उपस्थित लोगों की बातचीत के कुछ शब्द उसके कानों में भी पड़े.
“इनकी रिश्तेदारी में बस एक फुफेरी बहन है… उसे ख़बर दे दी गयी है… शाम छ: बजे की ट्रेन से आ रही है.”
“मेरे ही किरायेदार थे नरेन्द्र बाबू… पिछले पांच वर्षों से… महीने भर पहले तबियत बिगड़ी… तो मैं ही अस्पताल ले आया था.”
“न जाने घड़ी-घड़ी दरवाज़े पर किसे खोजते हैं?”
“तीन दिनों से हालत बिगड़ती जा रही है… लगता है प्राण अब छूटे कि तब… पर पता नहीं किसके लिये प्राण अटके हैं?”
“शायद बहन की प्रतीक्षा हो.” जितने मुंह उतनी बातें थीं.
सुजाता थरथराते क़दमों से बेड की तरफ़ बढ़ी. कृशकाय नरेन्द्र बेड पर अर्धमूर्च्छित-सा पड़ा था.
आहट पाकर नरेन्द्र की पलकें धीरे-से खुल गयीं. आंखों में असीम आश्‍चर्य से ओतप्रोत आह्लाद कौंधा. अधरों पर सन्तुष्टि भरी मुस्कान उभरी. होंठों से अस्फुट से कुछ शब्द फूटे, “राग… म…धु…वन्ती…” नरेन्द्र के चेहरे पर ज़िन्दगी की अन्तिम चमक कौंधी और उसकी आंखें निस्तेज हो गयीं. पर चेहरे पर अब भी प्रेम-मंडित एक मुस्कान थी, जो मानो मृत्यु का उपहास कर रही थी.
“हे भगवान! ये तो नहीं रहे.” आसपास खड़े लोग अफ़सोस ज़ाहिर करने लगे, पर सुजाता के संयम का बांध टूट गया. उसका रुदन सारी सीमाएं तोड़ गया.
“कौन है ये, जो इस तरह रो रही है?” सबकी आंखों में फिर सवाल छोड़कर सुजाता तेज़ क़दमों से कमरे से बाहर निकल गयी. छ: बजने ही वाले थे. कुछ ही देर में सीमा अस्पताल पहुंच जाएगी. वो उसका सामना नहीं करना चाहती थी. राज़, राज़ ही रहे तो अच्छा होगा, उसने सोच लिया था.
ऑटो तेज़ ऱफ़्तार से भागा जा रहा था. सीट की पुश्त से सिर टिकाये सुजाता अब तक रो रही थी. उसकी भीगी आंखों में रह-रहकर नरेन्द्र का वर्षों पुराना मुस्कुराता चेहरा कौंध रहा था. आज वो सारे बन्धन तोड़कर चला गया था, पर जाते-जाते सुजाता को एक बन्धन से बांध गया था. ऑटो घर के पास पहुंचने ही वाला था. सुजाता ने रुमाल से अच्छी तरह चेहरा पोंछा और होंठों पर मुस्कुराहट ओढ़ने की कोशिश की. पर दोनों हाथों से चेहरा छिपाकर फिर फूट-फूट कर रो पड़ी.
रात दस बजे सीमा का फ़ोन आया, “सुजाता, इसी शहर से बोल रही हूं… आज शाम नरेन्द्र भैया की सिटी अस्पताल में मौत हो गयी.”

 डॉ. निरुपमा राय

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Usha Gupta

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