कहानी- राह मिल गई (Short Story- Rah Mil Gayi)

सहेलियां उसे देखकर ईर्ष्या से आहें भरती थीं, पर मां-बाप के दिए संस्कारों ने उसे कभी अपने रूप और छरहरी काया पर घमंड नहीं होने दिया था. वह हमेशा से ही सामनेवाले के गुणों को देखकर दोस्त बनाना पसंद करती थी न कि रूप को देखकर. इसीलिए सीमा दीदी की शादी में आए नरेन जीजाजी और उसका यह भाई अंकित जब उसकी प्रिय सहेली कविता के सांवले रंग और छोटे कद का मज़ाक बनाने लगे, तो रितु से सहन नहीं हुआ था और वह उन्हें टोक बैठी थी, “कोई आप लोगों को मोटा और चष्मिश कहे, तो आपको कैसा लगेेगा?”

सामान से लदे थैलों के साथ रितु हांफने लगी थी, लेकिन रिक्शा था कि मिलने का नाम ही नहीं ले रहा था. थक-हारकर रितु पास ही के एक रेस्तरां में घुस गई और एक ठंडी लस्सी ऑर्डर कर दी. काउंटर पर गरम-गरम समोसे निकलते देख उसके मुंह में पानी आ गया. उसने दो समोसे भी ऑर्डर कर दिए. अपनी थुलथुल काया और थैले संभालती वह एक कोनेवाली सीट की ओर बढ़ गई. एक टेबल के पास से गुज़रते हुए उसने महसूस किया कि उस पर बैठा स्मार्ट सा नवयुवक उसे बहुत ध्यान से देखे जा रहा था. लेकिन रितु को नहीं लगा कि वह उसे जानती है और ऐसी बेडौल होती काया पर कोई लाइन मारेगा इसकी उसे उम्मीद नहीं थी. इसलिए वह इत्मिनान से घर फोन कर आया से बेबी के बारे में पूछने लगी. यह जानकर कि बेबी अभी तक सोई हुई है उसने संतोष की सांस ली.
“क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?” उसी नवयुवक को अपने इतने समीप पाकर रितु चौंक उठी.
“आपने शायद मुझे पहचाना नहीं?” युवक कुर्सी खींचकर बैठ चुका था.
“मैं अंकित हूं, आपके नरेन जीजाजी का छोटा भाई. आपकी सीमा दीदी की शादी में आपसे मुलाक़ात हुई थी…”
“हां, हां… याद आया. अंकित नाम है न तुम्हारा? और तुम बी. कॉम. ऑनर्स कर रहे थे. पर तुम… तुम तो बिल्कुल बदल गए हो. मैं क्या, कोई भी तुम्हें एक बार में नहीं पहचानेगा.”
“आप भी तो कितना बदल गई हैं! ख़ैर, इंडियन लेडीज़ में शादी के बाद यह बदलाव तो आता ही है.”
अंकित का मंतव्य समझ रितु झेंप गई थी. अपनी थुलथुल होती काया पर उसे इससे ज़्यादा शर्मिंदगी पहले कभी महसूस नहीं हुई थी. बरबस ही उसे ख़्याल आ गया कितनी कमनीय और सुडौल काया थी उसकी! सहेलियां उसे देखकर ईर्ष्या से आहें भरती थीं, पर मां-बाप के दिए संस्कारों ने उसे कभी अपने रूप और छरहरी काया पर घमंड नहीं होने दिया था. वह हमेशा से ही सामनेवाले के गुणों को देखकर दोस्त बनाना पसंद करती थी न कि रूप को देखकर. इसीलिए सीमा दीदी की शादी में आए नरेन जीजाजी और उसका यह भाई अंकित जब उसकी प्रिय सहेली कविता के सांवले रंग और छोटे कद का मज़ाक बनाने लगे, तो रितु से सहन नहीं हुआ था और वह उन्हें टोक बैठी थी, “कोई आप लोगों को मोटा और चष्मिश कहे, तो आपको कैसा लगेेगा?”

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रितु के तेवर देखकर दोनों के चेहरों का रंग उड़ गया था. रितु को भी अफ़सोस हुआ था कि उसे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.
वेटर दोनों के ऑर्डर रख गया था. अंकित ने जूस मंगाया था. सामने रखे समोसे जिन्हें देखकर रितु के मुंह में कुछ देर पूर्व पानी आ गया था अब उसे मुंह चिढ़ाते प्रतीत हो रहे थे. उस दिन उसने दोनों भाइयों को संतुलित देहयष्टि पर कितना लंबा-चौड़ा भाषण दिया था.
“देखिए रूप-रंग सब भगवान देता है, इसलिए उसका मज़ाक बनाना उचित नहीं है. हमारे हाथ में है अपनी काया को स्वस्थ, सुडौल ओैर आकर्षक बनाना. अपने गुणों को इतना उभारना कि ये कमज़ोरियां उसमें छुप जाएं…”
“आपके समोसे ठंडे हो रहे हैं.” अंकित ने चेताया तो पुरानी बातें याद कर रितु के चेहरे पर फिर से शर्मिंदगी के बादल मंडराने लगे. अंकित ने शायद उसकी मनःस्थिति भांप ली थी.
“अरे, आप शर्मिंदा मत होइए. मैं तो बल्कि पुरानी उन सब बातों के लिए आपको धन्यवाद देना चाहता हूं, मेरा यह बदला हुआ रूप-रंग आपकी उसी समझाइश की बदौलत ही तो है. मैंने वर्कआउट और संयमित खानपान से यह संतुलित देहयष्टि हासिल की है. मुझे ‘मिस्टर राजस्थान’ का ख़िताब भी मिल चुका है.”
“अरे वाह, बहुत-बहुत बधाई! अब आगे की क्या योजना हेै?” रितु ने एक समोसा ख़त्म कर दूसरा अंकित के आगे बढ़ा दिया.
“नहीं! यह सब अभी बंद कर रखा है. मैं दरअसल यहां महानगरी में मॉडलिंग के क्षेत्र में अपना भाग्य आज़माने आया हूं.”
“अरे वाह, बहुत अच्छे! ईश्‍वर करे तुम्हें ख़ूब कामयाबी हासिल हो. नरेन जीजू कैसे हैं?”
“वे तो अब भी वैसे ही हैं. आपकी समझाइश उन्होंने उसी वक़्त एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दी थी… ख़ैर, आपकी हौसलाअफ़जाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया. वैसे मेरे पापा-मम्मी तो नहीं चाहते थे कि मैं इन सब मॉडलिंग आदि के पचेड़ों में पड़ूं, हमारा
अपना खानदानी व्यवसाय है. वे चाहते हैं मैं उसे संभालूं, पर मैं सोचता हूं इधर भी भाग्य आज़मा लूं. पांव नहीं जमा पाया, तो वह सब तो करना ही है.”
“हूं… वह भी ठीक है.” रितु का मोबाइल बजने लगा था.
“ओह बेबी उठ गई है. मुझे निकलना होगा.” रितु उठकर सामान आदि समेटने लगी थी.
“काश! अब तो रिक्शा मिल जाए.”
“मेरे पास गाड़ी है, मैं छोड़ देता हूं.” अंकित ने आगे बढ़कर उसका सामान उठा लिया, तो रितु मना नहीं कर पाई और मुस्कुराती हुई उसके साथ चल पड़ी. घर पहुंचकर रितु ने अंकित को धन्यवाद दिया और कॉफी के लिए आग्रह किया.
“आज तो नहीं, पर एक दिन आऊंगा ज़रूर, अब तो घर भी देख लिया है. कॉफी उधार रहेगी.”
अंकित लौट गया था, पर रितु के दिल के सोए तार छेड़ गया था. अब दिन में फ्री होने पर वह अक्सर पुराने एलबम लेकर बैठ जाती. अपनी पुरानी तस्वीरें देखकर आहें भरती रहती. इससे भी मन नहीं भरता, तो संदूक खोलकर पुराने ड्रेसेज़ टटोलने लगती, जिनमें समाकर कभी उसकी कमनीय काया खिल उठती थी. उसे याद आया सहेलियां कहती थीं इस ड्रेस को पहनने से तेरी नहीं इस ड्रेस की शोभा बढ़ गई है. कपड़े सहेजकर रखते रितु के चेहरे पर यह सब याद कर मायूसी पसर जाती थी. जिससे फिर वह चाहकर भी उबर नहीं पाती थी. आख़िर एक दिन उसने निश्‍चय कर लिया कि वह अपनी पुरानी देहयष्टि पाकर ही रहेगी.
रितु की दिनचर्या में आया बदलाव ग़ौर करने लायक था. सवेरे बेबी के उठने से पहले वह 2 घंटे जॉगिंग कर आती. उसके बाद डायटीशियन द्वारा बताया गया उबला या भाप में पकाया हुआ खाना खाती. शाम को फिर हल्का वर्कआउट. चार दिन बीतते-बीतते रितु का जोश ठंडा पड़ने लगा था. पूरे दिन बदनदर्द और कमज़ोरी के एहसास ने उसके चेहरे को निस्तेज़ कर डाला था. पति गौरव से यह सब नहीं देखा गया.
“रितु, तुम जैसी हो ठीक हो. मुझे तुम ऐसे भी पसंद हो. यह डायटिंग, वर्कआउट तुम्हारे बस की बात नहीं है. वज़न तो कम होगा नहीं व्यर्थ ही और बीमारियों को न्यौता दे बैठोगी.”
लेकिन पति की समझाइश ने आग में घी का काम किया. रितु ने निश्‍चय कर लिया कि वह सबको ग़लत सिद्ध करके दिखाएगी. आख़िर इंसान को कुछ तो अपनी ख़ुशी के लिए भी करना चाहिए. वह दोगुने जोश से अपने अभियान में जुट गई थी. 4-6 महीने बीतते-बीतते परिवर्तन स्पष्ट नज़र आने लगा था. रितु दर्पण में ख़ुद को निहारती और ख़ुद पर ही मोहित हो उठती.
लोगों की आंखों में अपने प्रति प्रंशसा के भाव उसे लुभाते. मन ही मन वह अंकित को धन्यवाद देती, जिसने उसे ख़ुद से प्यार करना सिखाया. यदि अब अंकित उसे देखे, तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? रितु सोचती और मन ही मन उसकी प्रतिक्रिया की कल्पना कर फूली नहीं समाती.

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उसकी इच्छा उस दिन सचमुच जीवंत हो उठी जब एक दिन अंकित ने आकर उसके दरवाज़े की घंटी बजा दी. दरवाज़ा खोलते ही अंकित को देखकर उसके मुंह से ख़ुशी की चीख निकल गई थी. अंकित ठिठककर दो कदम पीछे हट गया था. ओैर आंखें फाड़-फाड़कर रितु को देख रहा था. उसकी विस्मय से चौड़ी होती आंखें देखकर रितु का हंस-हंसकर ताली पीटने को मन कर रहा था.
“आप क्या कोई जादू जानती हैं? कभी शरीर में हवा भर लेती हैं कभी निकाल देती हैं?”
रितु इस प्रतिक्रिया पर हसंते-हंसते लोटपोट हो गई थी. अंकित सामने सोफे पर बैठा उसे इस तरह हंसते देखकर मुस्कुराता रहा. “यदि हंसी थम गई हो, तो मेरे लिए कॉफी बना लाओ. मैं तो अपना कॉफी पीने का वादा पूरा करने आ गया हूं.”
बेबी सो रही थी, इसलिए गरम-गरम कॉफी के घूंट भरते दोनों देर तक बतियाते रहे.
“इधर से गुज़र रहा था. सोचा आपको निमंत्रण देता चलूं. दो दिन बाद मेरा शो है. मैं चाहता हूं आप मुझे रैंप पर वॉक करता हुआ देखें.”
“हां, हां.. क्यों नहीं! कुछ सिने मैगजीन्स में पढ़ा था तुम्हारे बारे में. कुछ एड वेड भी किए हैं?”
“हां, दो-चार छोटे-मोटे.”
रितु ग़ौर कर रही थी अंकित के चेहरे पर वह ख़ुशी नहीं थी, जो इच्छित वस्तु पा लेने पर इंसान के चेहरे पर आ जाती है.
“तुम्हारे मां-पिताजी? घर जाना हुआ या नहीं? वे ख़ुश हैं?”
“हां, सभी मेरी कामयाबी से बहुत ख़ुश हैं या शायद यह सोचकर ख़ुश हैं कि मैं खुश हूं. दो बार घर भी हो आया हूं. सभी के लिए तोह़फे लेकर गया था. मां कहती है मेरी वजह से उनकी आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों में इज़्ज़त बढ़ गई है.”
“यह तो तुम्हारे लिए गर्व की बात है.”
“मेरा छोटा भाई और कुछ और भी चचेरे-ममेरे भाई-बहन इस क्षेत्र में आना चाहते हैं.”
उसके चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभर आई थीं, जिन्हें रितु स्पष्टतः देख सकती थी.
“तुम क्या चाहते हो?”
मैं उनकी आंखों में वही उत्सुकता, वही सपने देखता हूं, जो कभी मेरी आंखों में थे. पर यह सब देखकर मुझे ख़ुशी नहीं होती, वरन एक अनजाना-सा भय घेरने लगता है.”
“भय? कैसा भय?” रितु हैरत में थी.
“इस मायानगरी की चकाचौंध आकर्षित तो करती है, पर पास आने पर पता चलता है सब मृगमरीचिका हेै. ग्लैमर की यह नगरी अंदर से खोखली और अस्थिर है. यदि मैं अपने भाई-बहनों को यह सब बताऊंगा तो शायद वे मेरी बातों पर यक़ीन नहीं करेगें. समझेगें मैं उनकी मदद नहीं करना चाहता. मेरे माता-पिता ने शायद अपने अनुभव के आधार पर मुझे पहले ही चेता दिया था. तब मैंने उनकी सलाह अनसुनी कर दी थी. पर हक़ीक़त यह है कि आज मैं उनके पास लौटना चाहता हूं. अपने पुश्तैनी व्यवसाय से जुड़ना चाहता हूं. वहां मेहनत है, तो साथ में सम्मान, प्यार और निश्‍चित आय भी है. यहां सिर्फ़ मेहनत है और किसी चीज़ की गारंटी नहीं है. मैं असमंजस में हू कि क्या मुंह लेकर लौटूं और किस मुंह से अपने भाई-बहनों को यहां न आने की सीख दूं?”
“तुम कुछ ज़्यादा ही उद्विग्न हो रहे हो. जबकि समस्या इतनी गंभीर नहीं है. मेरा कहा मानो तो जो कुछ तुमने सीखा, देखा और भोगा है वही सब कुछ अपने परिचितों को बता दो. अब यह उनकी इच्छा है कि वे क्या कदम उठाते हैं? कई बार हम अनजाने ही किसी के आदर्श बन जाते हैं. जैसे कि मैं तुम्हारी आदर्श बन गई थी. तुम अपने भाई-बहनों के आदर्श बन गए हो.
तुम मेरे रास्ते पर चलते हुए कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ते चले गए. मिस्टर राजस्थान बने, फिर मॉडल बने… और मैं… मैं अपने ही दिखाए रास्ते से भटक गई. फिर तुम्हें देखा, तो अपना आदर्श याद आया. फिर सही राह पर चलने लगी. लेकिन तुम्हारे भाई यानी जीजू ने सब देखकर भी अनदेखा कर दिया. वे आज भी वहीं हैं. आगे नहीं बढ़ पाए. कहने का सार यह है कि आप किसी के आगे बढ़ने, न बढ़ने का हेतु यानी कि एक सहायक कारण हो सकते हैं, पर एकमात्र ज़िम्मेदार कारक नहीं. अपनी हर प्रगति अवनति के लिए इंसान स्वयं ज़िम्मेदार होता है, कोई दूसरा नहीं.”
“मुझे डर है जिस तरह मैंने अपने माता-पिता की नहीं सुनी, उसी तरह वे भी मेरी बात नहीं सुनेगें.”
“कोई बात नहीं. देखो अंकित, दुनिया में भिन्न-भिन्न तरह के लोग होते हैं. कुछ दूसरों को लड़खड़ाते देखकर ख़ुद संभलकर चलने लग जाते हैं, तो कुछ रास्ता ही बदल लेते हैं. कुछ ख़ुद के लड़खड़ाकर गिरने का इंतज़ार करते हैं. फिर संभलते हैं. तो कुछ ऐसे भी होते हैं, जो सब कुछ देखते-सुनते हुए भी अंधे-बहरे बने रहते हैं. उनका कुछ नहीं हो सकता. इसलिए बिना कोई अपराधबोध पाले तुम अपना पक्ष दुनिया के सामने रख दो. अब कौन, क्या निर्णय लेता है इसके लिए वे स्वयं ज़िम्मेदार होगें, तुम नहीं.
जहां तक माता-पिता के पास किस मुंह से लौटने की बात है, तो इंसान को ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए. दुनिया में एक माता-पिता ही तो ऐसे हैं जिनके पास लौटने में इंसान को कभी भी संकोच नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका प्यार निःस्वार्थ होता है. यदि हम सच्चे दिल से क्षमा मांगते हुए उनके पैरों में झुकेगें, तो उनके घुटनों तक ही झुक पाएंगे, क्योंकि पहले ही उनके भावातिरेक से कांपते हाथ हमारे कंधे थाम लेगें.” अपनी बात समाप्त कर रितु ने नज़रें उठाईं, तो पाया अंकित का चेहरा आंसुओं से तर था. पर चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे. शायद उसे अपनी राह मिल गई थी.

संगीता माथुर

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