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कहानी- अनबॉक्स ज़िंदगी (Short Story: Unbox Zindagi)

“प्यार करते हो क्या किसी से?..” वे अपने प्रश्‍न पर शरारत से मुस्कुराईं. वे पेपर के रंगीन बोट-प्लेन बनाकर अलग रखती जा रही थीं. “जी, उसी से मिलने यहां आया हूं.” “कोई नाम तो होगा उसका.” “जी पारिजात. पारिजात दत्ता.” महिला को झटका-सा लगा, “पारिजात दत्ता? कभी मिले हो पहले भी?” “जी नहीं. पहली बार मिलूंगा.” “व्हाट्सऐप, फेसबुक, चैट?” वे मुस्कुराईं. “नो, नो मैडम. न फोन नंबर, न ईमेल आईडी, न कोई फोटो. बड़ी मुश्किल से पता मालूम किया.” “बिन देखे-सुने प्यार! कमाल है!!” वे फिर मुस्कुराईं. “आप भी उसे जानती होंगी. लगभग हर पॉप्युलर मैगज़ीन में उसकी बेहतरीन कहानियां छपती हैं. यहीं तो रहती है.”

अजीब-सा इश्क़ हो गया था मुझे पारिजात की कहानियों से. मैगज़ीन स्टॉलों पर मैं अक्सर ढूंढ़ा करता था. पन्ने उलटता-पलटता. एक-दो पत्रिकाएं तो मैंने सबस्क्राइब भी की हुई थीं, जिनमें उसकी रचनाएं अधिकतर प्रकाशित होती रहतीं. ज़िंदगी की छोटी-छोटी बातों को लेकर लिखी हुई घटनाएं सीधे दिल में उतर जाया करतीं. उनमें वर्णित घटनाएं लगता था मुझसे ही जुड़ी हुई हों, जैसे उसे मेरी पिछली या वर्तमान ज़िंदगी के बारे में सब कुछ पता हो. कहानियों-कविताओं के माध्यम से वो उसकी सांसों में बसने लगी थी. किसी भी पत्रिका में उसका कोई पता, फोटो भी नहीं दिया होता. एक दिन मैं पता करने के उद्देश्य से उसकी पत्रिका के कार्यालय पहुंच गया, शायद वहां उसका पता चले. वहां जब मालूम हुआ कि वो इसी शहर की रहनेवाली है, तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. मैंने झट डायरी और पेन निकाला, पता नोट करने लगा- पारिजात दत्ता, ए-215, गुलमोहर मोड़, स्वामी नगर, पंचशील, नई दिल्ली. मैंने डायरी जेब में रख ली थी.

मन ख़ुशी से झूम रहा था कि जल्दी ही मैं शायद उससे रू-ब-रू होऊंगा. दूसरे दिन मैं सुबह तड़के उठा. सौभाग्य से मुझे रोड पर आते ही एक ऑटो मिल गया.  लगभग आधे घंटे बाद मैं अपनी मंज़िल पर खड़ा था. घड़ी देखा सुबह के क़रीब साढ़े छह बज रहे थे. अभी बहुत जल्दी है, बेल बजाऊं या नहीं? मैं असमंजस में था. कुछ सोचते हुए मैं गुलमोहर और अमलताश के लाल-पीले वृक्षों से घिरे पार्क की ओर मुड़ गया. ‘थोड़ी देर घूमकर ही आता हूं.’ मैं बड़े पार्क की घास पर, तो कभी पेवमेंट पर चलने लगा. मार्च-अप्रैल महीने की एक ख़ुशनुमा सुबह थी. हल्की फुहार पड़ने के बाद बादलों के टुकड़े हवा में तैरने लगे थे. अमलताश और गुलमोहर के फूलों की भीनी-भीनी ख़ुशबू सारे वातावरण में रची-बसी थी.

मैं झुककर नीचे गिरे कुछ नहाए से तरोताज़ा फूल उठाकर हथेलियों पर रखने लगा था. उनको छूकर सूंघते टहलना अच्छा लग रहा था. पारिजात की कहानियों की नायक-नायिका भी तो अक्सर यूं ही बाग-बगीचों, फूलों, तितलियों, झरनों को छूते, निहारते नज़र आ जाते हैं. बनावटी दुनिया से कोसों दूर इसी जहां की ख़ूबसूरती में मग्न ज़िंदगी को हर पल खुलकर जीते हैं. कितने सकारात्मक रहते हैं वे, हर बात में ख़ुशी ढूंढ़ लेते हैं. वे किसी भी उम्र के हों प्रकृति से उनका प्रेम, तारतम्य देखते ही बनता है. सच, कितना सुकून, कितनी स्फूर्ति मिल रही है. नीचे हरी घास पर बिछे लाल-पीले फूल, ऊपर फूलों से लदी शाखों के बीच से ये स़फेद बादलों की टोली, उड़ता झांकता आसमान. घास पर चलते हुए उसे सुखद अनुभूति हो रही थी.

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आज कितने दिन बाद वह खुली हवा में, किसी पार्क में प्रकृति के बीच टहल रहा था. प्राचीन इतिहास में एमफिल, पीएचडी कर रहा मकरंद, प्राचीन पत्थरों इमारतों से माथापच्ची करते हुए, कॉलेज में और अलग से ट्यूशन्स पढ़ाते हुए थक चुका था. शुक्र है, शोध कार्य के सिलसिले में ऊंची इमारतोंवाले मुंबई शहर से दूर दिल्ली आने का अवसर मिला. उसने फिर एक ताज़ा गिरे गुलमोहर के चित्तीदार लाल फूल को उठाकर दांतों से हल्का-सा दबाया, थोड़ी खटास का स्वाद मुंह में आने लगा.
उसकी एक नायिका मालविका ने कैसे हंसते हुए नायक पलाश की आंखें बंद कर कैसे-कैसे फूल एक के बाद एक चखने के लिए मुंह में रख दिए थे. जब वह स्वाद से सोचकर बतलाता कि कौन-सा फूल है, ग़लत होने पर वह कैसे ताली बजा-बजाकर बच्चों-सी हंसती. उन फूलों में एक ये भी था गुलमोहर. और उसकी कहानी ‘बरसात’ की वैदेही को कैसे भूल सकता हूं, जो हर बारिश में काग़ज़ न मिलता, तो अपनी या नायक राजवीर की चप्पलें बहते पानी में डालकर बहता हुआ देखती, ख़ुश होती हुई उसके साथ कुलांचे भरते हुए दूर निकल जाती. राजवीर उसके अल्हड़पन पर मुस्कुराता, पुकारता गीली मिट्टी की सोंधी सुगंध में धंसते पैरों से उसके पीछे चलता जाता. मकरंद का मन भी करने लगता वह राजवीर की तरह भागकर अपनी वैदेही पारिजात के पास पहुंच जाए और कहे ऐसी उन्मुक्त ख़ुुशी उसे भी दे दे. जहां कुछ बनावटी न हो, न कोई ज़बर्दस्ती, न कोई बंदिश. अपने खाली समय में बस वो दीवानावार पारिजात की कहानियां पढ़ता हुआ जाने कब वह पारिजात का ही दीवाना बन बैठा था.

इतना सुहावना मौसम, पर कोई दिख नहीं रहा. लगता है घरों में दुबके सब संडे मना रहे हैं. सही तो कहती है पारिजात, ज़िंदगी को हमने ख़ुद ही बॉक्स में बंद कर रखा है. उसी में सांस लेने की आदत हमने डाल ली है. वही रूटीन, क़ीमती सुविधाओं-सामानों से लेस सजा-संवरा घर, बढ़िया खाना, म्यूज़िक, वीडियो, दोस्त, हर दवा भी उंगलियों पर. इन सबको मेंटेन करने के लिए अपनी रोबोटिक दिनचर्या में लिप्त-पस्त हम सहज ख़ुशी का स्वाद ही खो चुके हैं, जो प्रकृति में सर्वत्र सबके लिए बिखरा पड़ा है. उससे हमने ख़ुद को ख़ुद ही वंचित कर रखा है. मकरंद गुलमोहर के ऊंचे दरख़्तों से आती कुहू-कुहू की आवाज़ को ढूंढ़ता आगे बढ़ रहा था.
सहसा मोगरे की ख़ुशबू लिए हवा के झोंके से उसका तन-मन सुवासित हो उठा. आंखें आसमान से ज़मीं पर ठिठक गईं. वह चलते हुए घने बड़े-बड़े मोगरे की छाई बेल के पास आ गया था. कुहू की आवाज़ एक बार ऊपर से एक बार नीचे से उससे तेज़ फिर ऊपर से और तेज़ होती जा रही थी. उसने हैरानी से कोयल को ढूंढ़ते दबे पांव झाड़ियों के पीछे झांका, तो आश्‍चर्य हुआ एक पचपन-साठ वर्षीया महिला, ऊपर बैठी कोयल से कॉम्प्टीशन लगाकर मज़े ले रही थीं. काफ़ी स़फेद हुए बाल, आंखों पर चश्मा, कुर्ता-लेगिंग्स, एक्शन शूज़ पहने, झुरमुट के पीछे पड़ी बेंच पर रखा मोबाइल, रूमाल पर इकट्ठे किए कुछ लाल-पीले स़फेद फूल. एक झटके में यही देख पाया. उसे अपनी ओर यूं देखता वह अचकचा गया और झेंपकर वह पीछे हो लिया.

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“कौन हो बेटा, इतनी सुबह और यहां? फुर्सत कैसे मिली?” वे ओट से बाहर निकलकर पूछते हुए मुस्कुराईं.

“जी वो मैम मैं. सॉरी आपको डिस्टर्ब किया.”

“पेड़ की असली कोयल मिली नहीं, पर नीचे की नकली ढूंढ़ ली. वो देखो असली वहां से उड़ी.” वे हंस पड़ीं.

“कभी कोयल के साथ ये खेल खेला है, बहुत मज़ेदार है.” उसे चुप देखकर वह फिर बोलीं.

“यहां के तो नहीं लगते हो मतलब इस कॉलोनी के.”

“जी.” कहकर वह चुप हो गया था, तो प्रश्‍नवाचक दृष्टि से महिला उसे देखने लगी.

“जी दरअसल, यहां मैं किसी से मिलने आया था, पर लगता है अभी काफ़ी जल्दी है, सो टाइमपास के लिए इधर निकल आया.“

“हूं…” महिला ने कलाई पर बंधी अपनी घड़ी पर नज़र डाली थी. वे बेंच पर फूलों का रूमाल खिसका एक ओर बैठ गईं. बिखरे हुए रंगबिरंगे काग़ज़ समेटकर गोद में रख लिए और बेंच पर उसके लिए जगह बना दी.

“चाहो तो बैठ सकते हो.” वो उन पेपर्स से कुछ बनाने लगी थीं. “जी.” कहते हुए बैठ गया था.

“यहां पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में कुछ काम था. मुंबई में प्राचीन इतिहास का प्रवक्ता हूं. ट्यूशन्स भी लेता हूं. पीएचडी भी कर रहा हूं. बिल्कुल फुर्सत ही नहीं मिलती ऐसे नेचर एंजॉय करने के लिए.”

“अच्छा? शादी हो गई क्या?”

“जी नहीं, मां तो पीछे पड़ी रहती हैं, पर मैं नहीं चाहता.”

“प्यार करते हो क्या किसी से?…” वे अपने प्रश्‍न पर शरारत से मुस्कुराईं. वे पेपर के रंगीन बोट-प्लेन बनाकर अलग रखती जा रही थीं.

“जी, उसी से मिलने यहां आया हूं.”

“कोई नाम तो होगा उसका.”

“जी पारिजात. पारिजात दत्ता.” महिला को झटका-सा लगा, “पारिजात दत्ता? कभी मिले हो पहले भी?”

“जी नहीं. पहली बार मिलूंगा.”

“व्हाट्सऐप, फेसबुक, चैट?” वे मुस्कुराईं.

“नो, नो मैडम. न फोन नंबर, न ईमेल आईडी, न कोई फोटो. बड़ी मुश्किल से पता मालूम किया.”

“बिन देखे-सुने प्यार! कमाल है!!” वे फिर मुस्कुराईं.

“आप भी उसे जानती होंगी. लगभग हर पॉप्युलर मैगज़ीन में उसकी बेहतरीन कहानियां छपती हैं. यहीं तो रहती है.” उसने पता बता दिया था.

“नहीं, जानती तो नहीं, पर कॉलोनी की रेसिडेंट डायरेक्टरी में कहीं देखा ज़रूर है.”

“बहुत अच्छा लिखती है मानो मेरी ज़िंदगी को बहुत क़रीब से देखा हो. भावनाएं ऐसी, जो मैंने महसूस की हों, विचार ऐसे जैसे मेरे दिल से निकले हों, जिनमें ज़िंदगी एकदम आईने के जैसी बिल्कुल साफ़ दिखने लगती हो. जो आंखों में चमक मन में उमंग भर दे. जैसे ज़िंदगी स्वयं बंद पिटारा खोलकर बाहर आ गई हो… जैसे अल्हड़-सी सुंदर शरारती लड़की नहाने के बाद भी पानी में पैर डाले छप-छप खेल रही हो…”

“और इतने में आपको उससे प्यार हो गया कि आप मिलने चले आए कि शायद वो आपकी ज़िंदगी को भी अनबॉक्स कर दे.”

“जी, ऐसी जीवंत ज़िंदगी जीने का कोई राज़ बता दे.”

“हो सकता है वो आपकी कल्पना के विपरीत हो, न बहुत सुंदर हो, न आपकी उम्र की. बिना देखे दिल देने का इतना बड़ा फ़ैसला कैसे ले लिया?”
“हो ही नहीं सकता मैडम. उसकी सारी कहानियों में उसका बचपन ज़्यादा दूर गया नहीं लगता. इतनी उमंग, इतना उत्साह युवा हुए भी बहुत देर नहीं हुई होगी. मुझे पक्का यकीन है पच्चीस-तीस के अंदर ही होगी.उसके पात्र अक्सर प्रचलित शब्दों की जगह ऐसे नए शब्द गढ़ लेते हैं कि आप सोच में पड़ जाते हैं. पहले अचंभित होते हैं, फिर हंसे बिना नहीं रह पाते.” महिला के बात करने के अंदाज़ से अपनेपन में खुलता चला गया.

“मसलन?”

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“जैसे- जहां चार्जर आ गया, जल्दी उठो फटाफट चार्ज करके आओ सचिन, ऑफिस नहीं जाना क्या… योर व्रत तोड़ इज़ रेडी… कहते हुए उसकी नायिका शिप्रा अपनी गीली हथेली पति सचिन के गालों पर लगा देती, तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठता. जाने कौन आ गया, उसे हड़बड़ाया देखकर वह खिलखिलाकर हंस पड़ती. और जैसे, मीठा सोप देना यार पता नहीं कहां रख दिया मैंने… उसका नायक जय अपने रूममेट से यूं ही कहता उसे सोच में पड़ा देख वह मुस्कुराता मज़े लेता, मतलब उसका टूथपेस्ट से होता. दोस्त कुछ देर बाद समझ पाता, क्या यार तू भी न बस कमाल है… अब आप ही बताओ ऐसी शरारत कोई उम्रदराज़ तो नहीं लिख सकता.”

“और यदि उसने आपका प्यार ठुकरा दिया या वो आपके लायक ही न हुई हो, तो आपकी बॉक्स ज़िंदगी में ताला ही पड़ जाएगा. पक्का इलाज क्यों नहीं करते.” उनके चेहरे पर मुस्कान थी.
वे पेपर के बनाए रंगबिरंगे प्लेन व बोट्स को और फूलोंवाले रूमाल को एक पॉलिथिन में भरकर खड़ी हो गईं. “अब मुझे जाना होगा बच्चे इंतज़ार में होंगे.” उन्होंने पार्क के बगल से होते हुए रास्ते पर दूर बनी झुग्गियों की ओर इशारा किया. “आपके बच्चे मैडम, वहां?” उसे आश्‍चर्य हुआ. “हूं. देखना है, तो आओ मेरे साथ.” वे पार्क से निकलकर दूसरी ओर बगलवाली सड़क पर आ गए थे. ऊंचे झूमते किनारे के दरख़्तों के बगल गड्ढों के पानी में आसमां, बादलों, पेड़ों का प्रतिबिंब प्रकृति के सौंदर्य को और विस्तार रूप दे रहा था. “उसकी एक नायिका वासु बचपन में इन पेड़ों आसमान के गहरे प्रतिबिंबवाले पानी में पैर डालने में इतना रोती और डूबने के डर से पार नहीं कर पाती, तो उसका साथी नमन उसे बार-बार पार करके ख़ूब छेड़ता- ‘डरपोक! डरपोक!’ वह डरकर आंखें भींचे उसकी शर्ट कसकर भींच लेती और रोते-रोते पार करती, तो वह ख़ूब हंसता. मुझे भी बचपन में इकट्ठे पानी में आसमान, उल्टे पेड़ों की गहराई देखकर बेहद डर लगता था, वैसे ही रोता था मैं भी.” वह हंसने लगा था. “अच्छा!” वे भी हंसने लगीं. “बहुत ख़ूब, अब तो नहीं लगता?” उन्होंने मकरंद का हाथ पकड़कर पानी भरे बड़े गड्ढे को कूदकर सड़क पार कर कर ली थी. “अरे रे, संभलकर मैडम.” “यूं जंप मारने का अपना ही मज़ा है.” दोनों मुस्कुरा उठे. कुछ दूर गड्ढे मिलकर नाले की शक्ल में कलकल के साथ बह रहे थे. साथ ही छोटे बच्चों का शोर सुनाई देने लगा. उन्होंने महिला को दूर से ही देख लिया. भागकर पास आ गए. महिला ख़ुश होकर बच्चों को नाव-जहाज बांटने लगीं. फिर एक-एक फूल उनकी नाव पर रख, उन सभी के मुंह में एक-एक टॉफी डालने लगीं. “आंटी, हमें दो हमें…” बच्चे ख़ुश होकर चीख रहे थे और वे भी ‘हां… हां…’ कहते हुए ख़ुश हो रही थीं. प्लास्टिक, ढक्कन, डंडी की जगह अब सब पानी में बहती अपनी फूलवाली नावों के पीछे भाग रहे थे. कुछ की नाव खुल गई, वो काग़ज़ ला उनसे बनाना सीखने लगे. कुछ कल के सिखाए अक्षरों को भीगे बालू के टीले पर लिखकर उसे दिखाने ले आए. वे एक पत्थर पर बैठ सब चेक कर रही थीं. मनोयोग से ख़ुश होकर उन्हें कुछ सिखा रही थीं. कुछ बच्चों ने मकरंद को भी पकड़ लिया. वह उनकी खुल गई नावों को याद करके सही करने लगा. पहले कितना बनाया करता था. आज कितने सालों बाद उसने काग़ज़ का जहाज बनाया भी और चलाया भी. कितना रोमांचित हो उठा था. बच्चे उससे कुछ सीखकर, लेकर ख़ुशी से भागे, तो उसे भी उतनी ही ख़ुशी महसूस हुई. वह भीगी रेत पर डंडी से उन्हें अक्षर, सूरज, फूल बनाकर सिखाने लगा. ऐसा कर उसे बहुत अच्छा अनुभव हो रहा था. उसकी घड़ी पर नज़र गई, साढ़े आठ. “अब चलूंगा मैडम, व़क्त का पता ही नहीं चला. आपसे बहुत कुछ सीखने को मिला. शुक्रिया! मिल लूं उससे, वरना निकल न जाए कहीं.” “हां, ज़रूर क्यों नहीं… क्या पता बात बन ही जाए. ऑल द बेस्ट!” कहकर वे मुस्कुराईं. मकरंद ‘थैंक्यू… नमस्ते… बाय’ कहकर तेज़ क़दमों से उस पते की ओर बढ़ गया. अब सही टाइम है. वह पहुंच गया था, कर्नल एस. के. दत्ता. उसने धड़कते दिल से डोरबेल बजाई थी. नौकर ने दरवाज़ा खोला था, “किससे मिलना है आपको?” “पारिजात दत्ताजी से. यहीं रहती है न?” वह व्हीलचेयर पर बैठे स़फेद बालोंवाले टीवी देखने में मग्न सज्जन को देखते हुए बोला. “जी, पर मैडम तो अभी हैं नहीं, बाहर गई हैं.” ‘इतनी सुबह.’ वह हैरान था. उसने मन में सोचा. “अब आनेवाली होंगी, आप चाहें तो इंतज़ार कर सकते हैं.” “अच्छा!” वह बैठने ही वाला था कि नज़र दीवार पर लगी आदमकद तस्वीर पर पड़ी, तो वह चौंक गया. “इसमें तो वही महिला इन सज्जन के साथ मुस्कुरा रही हैं और दूसरे फ्रेम में लॉन्ग स्कर्ट और फूलोंवाली हैट में एक ख़ूबसूरत लड़की, जिसकी शक्ल उन्हीं महिला से थोड़ी मिल रही थी. इसका मतलब पारिजात उन महिला की ही बेटी है. मैं उनसे क्या-क्या बकवास कर गया. उसे अपने पर शर्म और हंसी भी आ रही थी. दिल में आया कि चला ही जाए बगैर पारिजात से मिले ही. क्या सोचती होंगी वे. उन्होंने बताया भी नहीं. वह संकोच और उधेड़बुन में बैठ गया था. नौकर पानी ले आया था. वह एक सांस में गटक गया. ग्लास ट्रे में वापस रखते हुए उसने नौकर से धीरे-से पूछा, “ये हैट में पारिजातजी ही हैं न?”
“हां भइया, मैडमजी ही हैं. एक में अकेले एक में साहब के साथ.” वह धीरे से फुसफुसाया. “मैडम मतलब?… ये मैडम की बेटी नहीं?” “जी, बेटी है ही नहीं, तो उसकी फोटो कहां से आएगी? ये तो मैडम की जवानी की फोटो है.” मकरंद को जैसे करंट लग गया हो. उसने दांतों के बीच ज़ुबान दबा ली. बहुत बड़ी ग़लती कर बैठा. वह झटके से उठ खड़ा हुआ. पारिजात दत्ता के आने से पहले वह जल्द से जल्द भाग जाना चाहता था. प्यार का इज़हार तो अंजाने ही हो गया ग़लती से, अब क्या करूं? ऑटोग्राफ नहीं ले सका इसका अफ़सोस रहेगा, पर उनसे खुलकर जीवन जीना तो अच्छी तरह सीख लिया. अपनी ज़िंदगी तो अनजाने ही अनबॉक्स हो गई. वह संतोष और ख़ुशी से मुस्कुरा उठा. फिर उमंगभरे तेज़ क़दमों से बाहर हो लिया. नौकर हैरानी से पूछ रहा था. “क्या हुआ भइया. मैडम से मिलना नहीं?”

डॉ. नीरजा श्रीवास्तव ‘नीरू’

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