किस धातु से बना होता है स्त्री मन? मन होता भी है क्या स्त्री के पास? कब कर पाती है वह अपने मन की? अपने मन से तो नहीं चुना था लतिका ने अपना पति, पर एक बार उसके साथ बंध गई, तो पूरी निष्ठा से निभाया. अपने कर्त्तव्य पर प्यार को हावी नहीं होने दिया. स्त्री को नाज़ुक कहते हैं लोग, इतना मज़बूत तो पुरुष कभी नहीं हो सकता.
सुबह तो उस दिन भी अति सामान्य-सी हुई थी विक्रम की. प्रतिदिन की ही तरह. परदे के पीछे से झांकती किरणों को देखकर ही उठा था वह. उसे अलार्म की आवाज़ से उठना कभी नहीं भाया. नौ बजे पहुंचना होता था अस्पताल और उसी की बगल में बने क्वॉर्टर में रहता था वह. अत: सात के सवा सात बज जाने से भी क्या फ़र्क़ पड़ता था? उठते ही रेडियो चला देता, ताकि लगे घर में उसके सिवा भी कोई है. रेडियो का लाभ यह है कि वह टीवी की तरह आपका ध्यान आकर्षित नहीं करता. उसके बजते रहने से काम भी होता रहता है और मन भी लगा रहता है.
विक्रम को अपना नाश्ता स्वयं ही बनाना होता था. अंडा, डबलरोटी और दूध का ग्लास. बस, हो गया नाश्ता. दोपहर का भोजन वह अस्पताल की कैंटीन में कर लेता और रात का, एक स्त्री आकर बना जाती. बहुत कम थीं विक्रम की ज़रूरतें. कैंसर विशेषज्ञ है डॉ. विक्रम सहाय और पूरी तरह समर्पित. अपने क्षेत्र में पारंगत माना जाता है वह. वर्षों से इस प्राइवेट अस्पताल में काम कर रहा है. शहर में तो नाम है ही, आसपास के शहरों से भी मरीज़ कंसल्टेंट के लिए आते रहते हैं.
पर कभी-कभी एक अति सामान्य-सी लगनेवाली सुबह भी एक असामान्य-सा दिन ले आती है न! सो ऐसी ही सुबह थी वह भी. मंगलवार का दिन था वह. सुबह से ओपीडी में बैठे-बैठे थक चुके थे विक्रम.
“बाहर बस एक आख़िरी मरीज़ है.” नर्स ने बताया और एक स्त्री को व्हीलचेयर पर भीतर लाया गया. डॉक्टर ने उसे परीक्षण मेज़ पर लिटाने को कहा एवं हाथ का काम पूरा करके उठे. स्त्री के पास गए, तो चेहरा कुछ परिचित लगा, पर जिसका ध्यान आया, यह उसकी परछाई मात्र थी. ओपीडी स्लिप पर नाम देखा- ‘लतिका ही है’ बीमारी से अशक्त शरीर, मुरझाया चेहरा, बेहोश तो नहीं, परंतु पूर्णत: सजग भी नहीं. साथ में देखभाल करनेवाली आया और घर का पुराना नौकर विश्वंभर. साहब अपने काम से विदेश गए हुए थे.
लतिका की हालत नाज़ुक थी और उसे तुरंत भर्ती करना आवश्यक था और उतना ही आवश्यक था इस प्राइवेट अस्पताल में अग्रिम राशि जमा करवाना. नौकर के पास इतना पैसा कहां से आता? विक्रम ने अपनी ओर से पैसे जमा करवा लतिका को अस्पताल में दाख़िल करवा दिया, ताकि फ़ौरन इलाज शुरू हो सके.
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लतिका को ब्लड कैंसर था. इस उम्र में ब्लड कैंसर होने पर ठीक होने की आशा तो कम रहती है, पर जितने दिन जीवित रहे, चैन से जिए यही प्रयत्न किया जा सकता था.
थोड़े-थोड़े अंतराल पर रोगी को रक्त चढ़ाया जाता है. कुछ दिन ठीक बीतते हैं और हालत फिर से बिगड़ने लगती है. सामान्यतः बीच के दिनों में मरीज़ को घर भेज दिया जाता है, पर लतिका को कोई लेने-देखने आता तो भेजते! विश्वंभर आता था देखने. उसे कुरेदने पर पता चला कि साहब तो कब के लौट आए हैं और उनके साथ एक युवती भी है. उन्हें पत्नी की गंभीर अवस्था का पता है और विश्वंभर ने उन्हें पैसों के लिए भी कहा है, पर उनका कहना है कि बचना तो वैसे भी नहीं है, तो उन्हें किसी सरकारी अस्पताल में क्यों नहीं ले जाते हो?
लेकिन विक्रम ने लतिका को इस बात की भनक तक न पड़ने दी. वह समय-समय पर अस्पताल में रक़म जमा करवा देता और उसकी पूरी देखभाल भी करता रहा. ड्यूटी का समय समाप्त होने पर घर का एक चक्कर लगाता और फिर उसके पास आ बैठता. जिन दिनों उसकी हालत बेहतर होती, तो वह बातें भी करती. अपने पति, अपने वैभव के क़िस्से सुनाती, देश-विदेश के भ्रमण की चर्चा करती. घर में होनेवाली पार्टियों, विशेष अतिथियों के नाम गिनाती. वह इसी ख़ुशफ़हमी में थी कि उसके इलाज का पूरा ख़र्च उसके पति ही कर रहे हैं. वह अभी तक विदेश में हैं, अत: मिलने कैसे आएं? वह यही सोचकर ख़ुश थी. विक्रम उसकी बातें ध्यान से सुनता रहता.
कितने वर्षों से उसका सपना था लतिका से मुलाक़ात करने का, बातचीत करने का. चुलबुली लतिका की चटपटी बातें ही तो उसको सबसे अधिक लुभाती थीं. दुनियाभर के क़िस्से होते थे उसके पास. आज लतिका की सब बातें चाहे सच न भी हों, कहने वाली तो उसे सच मानकर ही कह रही थी न! वह लतिका की ख़ुशी में ख़ुश हैं. उसके सहचर्य मात्र से संतुष्ट हैं.
विक्रम ने उसकी शाम के बाद की ज़िम्मेदारी पूर्णत: अपने ऊपर ले रखी थी. नर्स को बुलाने की बजाय स्वयं उसे दवा देता, उठने में सहायता करता इत्यादि. वह कभी अपने प्यार के बारे में नहीं कह पाया था, पर इतने वर्षों बाद आज भी उतनी ही शिद्दत से चाहता था उसे.
कभी कमज़ोरी के कारण लतिका को नींद आ जाती, तो पास कुर्सी लगाकर बैठा रहता विक्रम लतिका का हाथ अपने हाथ में लिए. चाहता, अपनी कुछ शक्ति इस स्पर्श द्वारा उसके शरीर में उड़ेल दे, पर यह तो क़िस्से-कहानियों की बातें हैं. असली जीवन में कहां संभव है यह सब? हम साधारण मनुष्य ऐसा कुछ नहीं कर पाते. बहुत चाहकर भी नहीं. उसका हाथ पकड़े-पकड़े विक्रम अक्सर ही अतीत में पहुंच जाता. उस अतीत में जब लतिका के संग जीवन जीने की आशा थी, मन में उत्साह था.
एक ही कॉलोनी में रहते थे दोनों. एक ही पार्क में खेलकर बड़े हुए थे. बचपन का वह धमा-चौकड़ीवाला दौर धीरे-धीरे लड़कियों के लिए पार्क में चक्कर लगाने और लड़कों के लिए क्रिकेट फुटबॉल खेलने में बदल गया. इन सब के बीच एक उम्र ऐसी आती है, जब परिचित लड़कों की निगाहें बचपन संग खेली लड़कियों को एक अलग नज़र से देखने लगती हैं और जो बचपन की नज़र से बहुत अलग होती है. उन्हें देखकर कुछ अलग तरह का महसूस होने लगता है. बहुत शनै:-शनै: आता है यह बदलाव, यहां तक कि उन्हें स्वयं भी इस बात का पता नहीं चल पाता. हो भी कैसे? बहुत नया-सा अनुभव होता है यह. यह पहला प्यार. इसको समझना कठिन है, परिभाषित करना और भी कठिन. स़िर्फ महसूस किया जा सकता है.
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यूं तो पार्क में लड़के-लड़कियों के अलग ग्रुप बने हुए थे, पर विक्रम और लतिका के एक स्कूल और एक ही कक्षा में होने के कारण आपस में अक्सर बात हो जाती. कभी स्कूल के किसी काम को लेकर, तो कभी यूं ही.
धीरे-धीरे इन ‘यूं ही’ वाली बातों की संख्या बढ़ने लगी. बातूनी लतिका की बातें होती भी तो इतनी रोचक थीं कि सुननेवाले का मन ही न होता उसे रोकने का.
स्कूल के बाद विक्रम मेडिकल करने लगा. और लतिका बीए, पर रहते तो आसपास ही थे, सो मिलना होता रहा. मेडिकल करते हुए विक्रम ने निश्चय कर लिया था कि जीवन तो लतिका के संग ही बिताना है. ठीक है कि एक ही कक्षा में होने के बावजूद लतिका उससे वर्षभर बड़ी थी, पर देखने में नाज़ुक-सी थी और विक्रम लंबा-चौड़ा. देखने में अजीब न लगता था, तो सर्टिफिकेट में लिखा होने से क्या फ़र्क़ पड़ता था.
पर फ़र्क़ पड़ा था. कारण कुछ और होने पर भी यही मुद्दा बन गया था. विक्रम ने मेडिकल पूरी कर ली थी. उसे लतिका से पता चला कि उसके माता-पिता उसके विवाह की सोच रहे हैं, तो वह उनसे मिलने गया. लतिका के पिता ने बड़ी देर तक उससे बात की. बड़े प्यार से उसे समझाया. लतिका की ब्याह योग्य उम्र हो चुकी है और उसमें अब देरी नहीं की जा सकती. जबकि विक्रम को स्थापित होने में अभी बहुत समय है. एमबीबीएस पूरी हो गई है, पर अभी इंटर्नशिप करनी है और फिर एमडी. उसके बाद भी प्रैक्टिस क्या दो ही दिन में चल निकलेगी?
इधर विक्रम के माता-पिता को भी बहू के बड़ी होनेवाली बात गले नहीं उतर रही थी. दो-चार साल छोटी न सही, एक-दो साल तो हो. यह तो हमउम्र भी नहीं, उलटे विक्रम से बड़ी थी. वह अपने माता-पिता को तो किसी तरह समझा भी लेता, पर लतिका के पिता नहीं माने. दरअसल, वे लतिका का रिश्ता अपने ही आर्थिक स्तर के किसी परिवार में करना चाहते थे और ऐसे कुछ परिवार उनकी नज़र में थे भी. सो उन्होंने लतिका का रिश्ता एक सफल व्यवसायी के बेटे के साथ तय कर ही दिया. लतिका की मर्ज़ी को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करते हुए. यह भी संभव है कि लतिका ने उसे उतनी शिद्दत से चाहा ही नहीं था जितना विक्रम ने उसे.
पहले विक्रम लतिका को पाने का लक्ष्य सामने रखकर पढ़ाई कर रहा था. लतिका उसकी प्रेरणा थी. अब वह प्रेरणा हट गई थी उसके सामने से, तो उसने एक अच्छा डॉक्टर बनना ही अपना लक्ष्य बना लिया था और वह पूरी लगन से जुट गया अपने लक्ष्य में, ताकि लतिका को खोने से वह किसी अवसाद में न डूब जाए.
नया रक्त चढ़ाने के पश्चात् जब लतिका बेहतर महसूस करने लगती और घर जाने की बात करती, तो विक्रम उलझन में पड़ जाता. कैसे भेज दे वह उसे घर? क्या वह सहन कर पाएगी, जब उसे पता चलेगा कि उसका पति विदेश में नहीं घर पर ही है और एक विदेशी युवती के संग रह रहा है. इस स्थिति से बचने की दूसरी राह यह थी कि उसे विक्रम अपने घर ले जाए. उसे तो इनकार नहीं था, पर लतिका क्योंकर मानेगी?
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उसके मन में तो आज भी अपने पति के लिए कोई दुर्भाव नहीं था. पूर्ण विश्वास था उस पर. और विक्रम भी किस अधिकार से लाता उसे अपने घर? अपने संगी-साथियों को, अपने रिश्तेदारों को क्या उत्तर देता?
उपाय एक ही था कि ‘उस पर अभी दिन-रात निगरानी की आवश्यकता है’ कहकर उसे अस्पताल में ही रोके रखा. विक्रम इस का अतिरिक्त ख़र्च वहन करने को भी तैयार हो गया. वर्षों के फ़ासले राह चलकर नहीं, यादों में तय किए जाते हैं.
अस्पताल की कुर्सी पर बैठा वह अतीत और वर्तमान के बीच घूमता रहता, जब तक कि वह सो न जाती. रातभर के इंतज़ाम की तसल्ली करके ही वह घर लौटता. इसी तरह वर्ष बीतने को आया, पर विक्रम के धैर्य में कोई कमी न आई.
स्थिति नाज़ुक हो रही थी. मृत्यु की पदचाप निकट आ रही थी. गुज़रते समय को मानो कसके पकड़े रखना चाह रहा था विक्रम. पर काल था कि उसकी बंद मुट्ठी में से भी फिसलता ही चला जा रहा था.
प्रायः ही वह लतिका को रात्रि भोजन करवाकर अपने घर चला जाता था, पर जाने क्यों आज उसका जाने का मन नहीं हुआ. इसके विपरीत उसने लतिका की देखभाल करनेवाली आया को सोने भेज दिया, यह कहकर कि घर जाते समय उसे जगा देगा. तब तक वह आराम कर ले.
बस थोड़ी देर और, थोड़ी देर और सोच बैठा रहा. कहीं भीतर से उसे लग रहा था कि अभी लतिका को छोड़कर नहीं जाना चाहिए. हालांकि यह नहीं जानता था वह कि आज की रात ही लतिका की आख़िरी रात भी होगी.
रात दस बजे के बाद लतिका बेचैन-सी होने लगी. उसने विक्रम से अपने पति को बुलाने का अनुरोध किया. विक्रम ने विश्वंभर को टेलीफोन से सूचना दी कि स्थिति नाज़ुक है और साहब को सूचित कर दे. परंतु साहब किसी पार्टी में गए हुए थे और जल्दी आने की उम्मीद नहीं थी. विक्रम ने वहीं संदेश पहुंचाने को कहा और संदेश पहुंचा भी दिया गया. लतिका इंतज़ार करने लगी. हर थोड़ी देर में द्वार की ओर नज़र टिका देती, पर धीरे-धीरे उसकी शक्ति क्षीण होने लगी.
विक्रम पूरा समय उसका हाथ थामे उसे दिलासा देता रहा. उससे बात करता रहा. लतिका ने कई बार अपने पति के बारे में पूछा. विक्रम चाहता था कि वह पूर्ण शांति से जाए. न शारीरिक दर्द सहे, न मानसिक. अत: वह झूठ ही कह देता कि उसके पति का फोन आया था समाचार जानने के लिए. पति उसका जैसा भी था, वह पूरी तरह समर्पित थी उसके प्रति. किस धातु से बना होता है स्त्री मन? मन होता भी है क्या स्त्री के पास? कब कर पाती है वह अपने मन की? अपने मन से तो नहीं चुना था लतिका ने अपना पति, पर एक बार उसके साथ बंध गई, तो पूरी निष्ठा से निभाया. अपने कर्त्तव्य पर प्यार को हावी नहीं होने दिया. स्त्री को नाज़ुक कहते हैं लोग, इतना मज़बूत तो पुरुष कभी नहीं हो सकता.
लतिका के पति के पास संदेश तो पहुंच गया, परंतु पार्टी बहुत महत्वपूर्ण थी. बीच में नहीं छोड़ी जा सकती थी. एक नया अनुबंध मिलने की पूरी उम्मीद थी.
‘वापसी में अस्पताल से होता हुआ आऊंगा.’ उसने कहला भेजा. लेकिन नया अनुबंध प्राप्त करने के सुरूर में वह अस्पताल जानेवाली बात तो भूल ही गया!
दूसरे दिन सुबह नौ बजे के लगभग जब वह अस्पताल पहुंचा, तो लतिका का शव मॉर्चरी में रखा जा चुका था और कमरे की सफ़ाई हो रही थी. विक्रम वहीं अस्पताल में ही था. मृत्युपत्र पर हस्ताक्षर उसी के थे, पर उसकी पूरी निष्ठा के बावजूद दाह संस्कार तो उसके पति के हाथों ही होना था. यही सामाजिक नियम है.
पूरा शृंगार किया गया लतिका का. सुहागिन मरी थी वह.
उषा वधवा
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