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कहानी- वैराग्य (Short Story- Vairagya)

“इन लुभावनी बातों और शब्दों के जाल में क्यों उलझते हो. जिस संसार में, जिस घर में तुम रहते हो, वहां भी वही ईश्‍वर है, जो इस पहाड़ व जंगल में है. संसार भी ईश्‍वर का ही बनाया हुआ है. ईश्‍वर ने तुम्हें माता-पिता, पत्नी-बच्चे सब दिए. घर, कामकाज, व्यापार सब है तुम्हारे पास और तुम हो कि ईश्‍वर का इतना सब दिया हुआ छोेड़कर भटक रहे हो.”

 

रघुपति की अच्छी-ख़ासी ज़िंदगी चल रही थी. घर-परिवार और कामकाज के बीच जीवन अपनी गति से गुज़र रहा था. यूं भी मौज-मस्ती, ख़ुशी-मायूसी, सफलता-असफलता से आदमी जूझता रहता है. यही जीवन है, लेकिन रघुपति के जीवन में धीरे-धीरे वैराग्य भाव आने लगा.
पूजा-पाठ, धर्म-कर्म और व्रत-उपवास तो वे पहले भी करते थे और जीवन के कामों में लग जाते थे, पर ऐसा वैराग्य भाव कभी नहीं आया कि सब छोड़-छाड़कर ईश्‍वर की खोज में निकल पड़े. ये वैराग्य भाव मीडिया के साधक-संतों, कथा वाचकों की देन है या खरपतवार की तरह बढ़ते मठों-आश्रमों में साधुओं के प्रवचन का असर है, जो सुबह उठते ही टीवी पर ब्रह्म मोक्ष, निर्वाण और जीवन की नश्‍वरता पर बोलते रहते हैं. जो कहते हैं कि सब रिश्ते-नाते मोह-माया हैं. इस मोह के बंधनों से ख़ुद को मुक्त करो. ईश्‍वर की शरण में जाओ. ईश्‍वर के अलावा जो कुछ भी है, सब व्यर्थ है, तो व्यर्थ के चक्करों में क्यों पड़ें? व्यर्थ हैं माता-पिता, पत्नी-बच्चे, काम-धंधा, यार-दोस्त और जीवन के रंग.
शायद रघुपति मेहता को संन्यास की ओर प्रेरित करने में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण थी. रघुपति ने अपने परिवारवालों और परिचित सभी लोगों सेे घर-गृहस्थी छोड़कर संन्यास की बात कही, तो सभी सकते में आ गए. मां बहुत रोईं. पत्नी उदास हो गई. दोस्तों ने सोचा कोई घरेलू समस्या होगी. रिश्तेदार हंसे. पिता ने समझाया. बच्चों ने सोचा बुढ़ऊ सनक गया है.
अब जो भी हो. धर्म एक नशे की तरह है, नशा चढ़ गया, सो चढ़ गया. जब बेहोशी टूटेगी, तब टूटेगी. किसी के रोकने समझाने से वैराग्य किसी हठी बालक की तरह और प्रबल होता है. घरवालों ने सोचा ऐसे ही अनमने ढंग से जी रहे हैं. इससे अच्छा है कि इन्हें अपने मन की करने दें.
घर में सब है, खेती-बाड़ी, धन-वैभव. बच्चे ब़ड़े हो गए हैं. कामकाज संभाल ही लेंगे. पत्नी ने उदास होकर पूछा, “मुझसे नाराज़ हो?” पति ने वैरागी ढंग से समझाया, “काम हो गया, अर्थ हो गया. अब जीवन में धर्म और मोक्ष भी आवश्यक है, अन्यथा मनुष्य और पशु के जीवन में क्या अंतर है. तुम चाहो, तो मेरे साथ चलो.”
पत्नी ने कहा, “ना बाबा ना, मैं अपने बच्चों के साथ ख़ुश हूं. मुझे नहीं चाहिए वैराग्य. मेरा तो सब कुछ यही है. आपकी वापसी का इंतज़ार करूंगी.” रघुपति समझ गए और मुस्कुराकर बोले, “मोह-माया में जकड़ी मूर्ख संसारी स्त्री, धन्य हो!” और वे ईश्‍वर की खोज में घर से निकल पड़े.
रघुपति जानते थे कि ईश्‍वर प्राप्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को एक गुरु की आवश्यकता होती है, जो मार्गदर्शन करता है. ईश्‍वर तक पहुंचने का रास्ता बताता है. भले ही संसारी लोग गुरु की महत्ता को अस्वीकार कर दें, पर सभी धर्म-ग्रंथ एक स्वर में स्वीकार करते हैं- ‘गुरु बिन भव निधि तरे न कोई, जो विरंचि शंकर सम होई.’ कबीरजी जैसे निर्गुण उपासक ने भी कहा है- ‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय.’
अब गुरु की खोज शुरू हुई. शुरुआत उन्होंने आश्रमों, मठों, संस्थाओं आदि से की, जिनको उन्होंने पुस्तकों में पढ़ा और टीवी चैनल्स पर देखा था, लेकिन यहां तो रहने, खाने, सीखने सभी की फीस तय थी. अपना एटीएम कार्ड साथ लेकर निकले थे, तो जुगाड़ हो गया. जगह-जगह रहकर उन्हें जो कुछ बताया गया, सीखते रहे. उपवास, ध्यान व प्राणायाम सब कुछ किया, लेकिन उन्हें शांति नहीं मिली.
आश्रमों का माहौल उन्हें बाज़ार जैसा लग रहा था. हर जगह पैसे का बोलबाला था. पैसा भी ख़र्च करो और मुफ़्त सेवा भी करो. उस पर ढेर सारे नियम-क़ायदे अलग. साथ ही संस्था व आश्रम का प्रचार-प्रसार करो. उनकी क़िताबें, सामग्री, दवाएं आदि बेचो. ये सब कुछ शिष्य बनकर वे लोग कर रहे थे, जो बेकार व कुंआरे थे, जिनका कोई न था या जिन्हें नाकारा समझकर घरवालों ने घर से निकाल दिया था. वे ये सब गोरखधंधा देखते रहे और आगे बढ़ते रहे.
कभी बनारस, कभी हरिद्वार, तो कभी गंगा के घाट, लेकिन यहां पर भी वही धर्म-कर्म के कर्मकांड थे, जो घर पर करते रहते थे. बात-बात पर दक्षिणा-चंदे की डिमांड भी थी. कुछ ऐसे आश्रम थे, जिनका ईश्‍वर से कोई लेना-देना न था. वे बस राजनैतिक संगठन जैसे थे. भटकते-भटकते वे हिमालय की ओर निकल गए.
यहां भी कई आश्रम थे. इन आश्रमों में छोटे बच्चों से लेकर युवा संन्यासी तक थे. सिर मुंडाए, त्रिपुण्ड लगाए, भगवा भेष में ॐ का स्वर गूंज रहा था. वे कुछ दिन आश्रम में रहे. अपने रहने और भोजन का प्रबंध उन्होंने अपने ख़र्च पर किया. आश्रम आते-जाते उनकी कइयों से अच्छी जान-पहचान हो गई. एक बार उन्होंने एक बच्चे से पूछा, “क्या तुम्हें ईश्‍वर मिला?”
बच्चा उदास होकर बोला, “मेरे पिताजी मुझे यहां छोड़कर चले गए. मेरी मां मर गई है. पिताजी ने दूसरी शादी कर ली और मुझे गुरुजी के सुपुर्द कर दिया. मुझे तो मेरी मां की याद आती है. यहां खेलने को भी नहीं मिलता. गुरुजी कहते हैं, ‘यहीं ईश्‍वर हैं, ऐसा जानकर सेवा करो. लेकिन मुझे न गुरु चाहिए, न ईश्‍वर. मुझे तो मां चाहिए.”
रघुपति को झटका लगा. फिर उन्होंने एक युवा संन्यासी से पूछा, “जवानी की उम्र में संन्यास? ईश्‍वर के प्रति इतनी प्यास, इतना प्रेम.”
“वो तो है ही, लेकिन आप तो शादीशुदा हैं. ग्रंथ कहते हैं, ‘नारी नरक का द्वार है. नारी माया है.’ कैसी होती है स्त्री? देखने और महसूस करने की बड़ी इच्छा है. ऊपर से राम-राम कहता हूं, पर मन में स्त्री ही घूमती है. ये सब किसी से कहना मत.” रघुपति सोच में पड़ गए.
आश्रम में गुरुजी से बातचीत भी होती रहती. गुरुजी की उम्र पचास वर्ष के लगभग है. हट्टा-कट्टा शरीर, लंबी जटा, गले में रुद्राक्ष की ढेर सारी मालाएं. बातचीत से पता चला कि वे पिछले 20 वर्षों से यहां रह रहे हैं. अपनी बुद्धि और क्षमता के बल पर वे इस मठ के अधिपति बने हैं. उन्हें चारों वेद, पुराण व उपनिषद कंठस्थ हैं. जवानी में उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी के किसी अन्य पुरुष के साथ अवैध संबंध थे. वे ग़ुस्से में पत्नी की बेवफ़ाई से पीड़ित होकर इस मोक्ष गामी राह पर निकल पड़े. अपनी शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए तो अन्य माध्यम हैं, कृत्रिम भी और अकृत्रिम भी, लेकिन अपनी पत्नी की बेवफ़ाई को याद करते हुए आज भी उनकी आंखें ग़ुस्से से लाल हो जाती हैं.
संसार यहां भी चल रहा है, ये सोचते हुए रघुपति आगे बढ़ते गए. कोई रामायण पाठ करके गुरु बना हुआ है, तो कोई भगवत् कथा सुना रहा है. कोई वेद-उपनिषद की बातें कर रहा है. अच्छी ख़ासी दर्शक दीर्घा भी है इनके पास. लोग पैर पड़ते हैं, दान-दक्षिणा देते हैं, लेकिन ये सब तो घर पर भी कर लेते थे. उन्हें तो तलाश थी, एक ऐसे गुरु की, जो मोक्ष की राह बता सके. वे आगे बढ़े और देखते रहे आश्रम व धार्मिक संस्थाओं को. लेकिन उन्हें कुछ भी जमा नहीं. वे बड़े-बड़े श्री श्री 108 से लेकर 1008 तक उपाधि से भूषित संन्यासी, पंडित और ज्ञानियों से मिले. कुछ ऐसे भी मिले, जो ‘बम-बम भोले’ कहकर दिन-रात गांजे के नशे में चूर रहते हैं. यही उनका अध्यात्म है, लगाओ कश और पड़े रहो.
कुछ बड़ी ही मनमोहक व्याख्या करते हैं ज्ञान-ध्यान, वैराग्य और धर्म ग्रंथों की. लेकिन उनकी कथनी व करनी में अंतर स्पष्ट दिखता है. यूं ही भटकते-भटकते किसी आश्रम में एक बाबाजी के बारे में सुना, जिनके पास वे गए. इस व्यक्ति के पास न तो आश्रम था, न कोई दर्शक, न ही कोई पोथी-पंडे. हां, एक झोप़ड़ी थी, जिसमें अकेले रहकर वे ‘राम-राम’ जपते थे, लेकिन झोपड़े में किसी देवी-देवता की कोई तस्वीर भी न थी. वे धोती-कुर्ता पहनते थे. उनके पास एक जोड़ी फटे-पुराने कपड़े थे, जिसे पहनकर भिक्षा मांगते थे. ख़ुद ही खाना बनाते, खाते और पड़े रहते. उम्र होगी कोई 70 वर्ष. रघुपति ने उनके पैर छुए. उन्होंने आशीर्वाद दिया और पूछा,
“यहां कैसे?”
“ईश्‍वर की खोज में.”
वे ठहाका लगाकर हंस पड़े. रघुपति को आश्‍चर्य हुआ कि वे उनकी बात पर हंस क्यों रहे हैं. उन्होंने कारण पूछा, तो वे बोले, “तुम्हारी बात ही बेवकूफ़ी भरी है, हंसी तो आएगी ही.”
“तो आप ही कोई रास्ता बताएं. मैं आपकी शरण में हूं.” रघुपति ने समर्पित भाव से कहा.
70 वर्ष का वो बूढ़ा फिर हंसा. हंसते हुए कहा, “आओ बैठते हैं. मुझे लोग बाबाजी कहते हैं. बताओ क्या हलचल है मन में?”
“बाबाजी, मोक्ष और ईश्‍वर दर्शन की प्यास है.”
“तो धर्म के बाज़ार में क्यों भटक रहे हो?”
“आप ही बताइए कुछ. आत्मा-परमात्मा क्या है? अष्टांग योग व निर्वाण, समाधि क्या हैं?”
“इसके लिए तो बाज़ार से क़िताबें ख़रीद लेते. सब जानकारियां मिल जातीं.”
“लेकिन बाबाजी क़िताबों से ईश्‍वर तो नहीं मिलता.”
“ये कैसे समझ लिया तुमने कि आश्रम, पहाड़, हिमालय में ईश्‍वर मिल जाता है? हां, यहां शोरगुल नहीं है, इसलिए एकांत और शांति मिलना स्वाभाविक है, लेकिन ईश्‍वर यहां छिपकर थोड़े ही बैठा है, जो तुम यहां खोजने आ गए.”
“मैं दुविधा में हूं.”
“जहां हो, वहीं ईमानदारी से कर्म करो. कुछ समय जन-कल्याण के लिए निकालो. क्या मासूम बच्चों की मुस्कुराहट में ईश्‍वर नहीं दिखा तुम्हें? पत्नी की दिन-रात की सेवा में ईश्‍वर नहीं दिखा तुम्हें?”
“लेकिन बाबाजी यदि इसी में ईश्‍वर दिखता है, तो आप यहां क्यों?”
“मेरा कोई नहीं था. मैं किशोर अवस्था में ही भटकता रहा किसी गुरु की तलाश में. कई आश्रमों की सेवा की. कई गुरुओं के साथ रहा. वर्षों गीता-रामायण पढ़ता रहा और अंत में पाया कि निष्काम भाव से जो करो, वही पूजा है. चलो मान लो कि ईश्‍वर ने किसी साकार रूप में मुझे दर्शन दे दिए, तो उससे भी क्या? वे दर्शन देकर चले गए. जीवन तो हमें ही जीना है.
मैं यहां ऊंचाई पर झोपड़ी बनाकर रहने लगा. मन में संतोष भाव था धर्म का बाज़ार नहीं लगाया. नीचे गांवों में जाकर भिक्षा मांगकर अपने लिए कुछ बनाकर खा-पी लेता हूं. साथ ही राम नाम जपता रहता हूं. अब तो एकांत ही भाता है.”
“तो मोक्ष, निर्वाण व सद्गति का क्या?”
“ये सब क़िताबी और अव्यावहारिक बातें हैं. गीता पढ़ो और समझो. ज़्यादा नहीं, बस इतना कि निष्काम भाव से कर्म करो. किसी से अपेक्षा मत रखो. इतना किसी में मन मत लगाओ कि उसके छोड़ने, त्यागने और न रहने पर मन को दुख पहुंचे. फिर चाहे वो धन हो, स्त्री हो या अन्य
सांसारिक पदार्थ.”
“तो मैं क्या करूं?”
“अपने परिवार के साथ ख़ुशी-ख़ुशी रहो. ख़ुशियां बांटो. किसी पर बोझ मत बनो. सबके सुख-दुख में काम आओ. सबमें ईश्‍वर देखो. सबको सम्मान दो.”
“और ज्ञान, वैराग्य, मोक्ष, ईश्‍वर…?”
“इन लुभावनी बातों और शब्दों के जाल में क्यों उलझते हो? जिस संसार में, जिस घर में तुम रहते हो, वहां भी वही ईश्‍वर है, जो इस पहाड़, जंगल में है. संसार भी ईश्‍वर का बनाया हुआ ही है. ईश्‍वर ने तुम्हें माता-पिता, पत्नी-बच्चे सब दिए. घर, कामकाज, व्यापार सब है तुम्हारे पास और तुम हो कि ईश्‍वर का इतना सब दिया हुआ छोड़कर भटक रहे हो.”
“अब आप ही बताएं कि मेरे लिए क्या आदेश है?”
“मेरा ही आदेश मानते हो, तो सुनो. वो काम कभी मत करना, जिससे मन में भय व ग्लानि पैदा हो और दूसरे का नुक़सान हो. बस, वही पाप है, बाकी सब परमात्मा है. जो हो रहा है, जिस पर तुम्हारा बस नहीं, उस पर शोक मत करना. ईश्‍वर की लीला समझकर देखना. दुख में भी सुख तलाशना. जीवन का पूरा सम्मान करना. कभी भी परिस्थितियों से भागना मत, डटकर मुक़ाबला करना. जो मिल जाए, वो हरि कृपा, जो न मिले, उसे हरि इच्छा जानकर स्वीकार करना.”
रघुपति की आंखें खुल गईं. उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हुआ. उन्होंने भावविभोर हो बाबाजी के चरण स्पर्श किए और वापस घर की ओर चल दिए.

        देवेंद्र कुमार मिश्रा

 

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Meri Saheli Team

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