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कहानी- यथार्थ (Short Story- Yatharth)

 

क्या लड़का है! कितने अधिकार से अपनी पसंद बताकर लौट गया. सीटी तो ऐसे बजा रहा है, जैसे उसका अपना घर हो और क्या कहकर बोला था- यार… यह वह मुझसे बोला था या पराग से? क्या भाषा हो गई है आजकल के लड़कों की? लगता है, घर में कोई रोकने-टोकनेवाला ही नहीं है.

कहानी समाप्त हुई, तो नीरा का मन दुख, नैराश्य, आक्रोश जैसे मिले-जुले भावों से भर उठा. यह जानते हुए भी कि यह मात्र एक कहानी है, मन तर्क-वितर्क पर उतर आया था. उम्र के इतने अंतराल पर भी कोई कैसे एक-दूसरे की ओर इतना आकर्षित हो सकता है और ऐसी छिछोरी हरकतें कर सकता है. ऐसे ही उदाहरणों से तो समाज विघटित होता है. लड़की तो चलो अल्हड़ और नादान थी, पर उस अनुभवी, प्रौ़ढ़, सद्गृहस्थ को तो सोचना चाहिए था कि ऐसे संबंधों का हश्र पारिवारिक विघटन के अतिरिक्त कुछ नहीं होता.
विचारों की दौड़ थी कि बेलगाम घोड़े की भांति सरपट भागी जा रही थी. नीरा को ही उस पर लगाम कसनी पड़ी. पराग अपने किसी दोस्त के साथ स्टडी रूम में ज़रूरी प्रोजेक्ट तैयार कर रहा था. उनके लिए कुछ बनाने के उद्देश्य से नीरा रसोई की ओर बढ़ गई. मिनटों में ही भेलपूरी तैयार कर वह बच्चों के सम्मुख उपस्थित थी. पराग की उंगलियां कीबोर्ड पर व्यस्त थीं, लेकिन उसके दोस्त साहिल ने तुरंत अपनी प्लेट उठा ली और खाना भी शुरू कर दिया. नीरा पराग की प्लेट रखने के लिए जगह बनाने लगी, तभी साहिल की प्रतिक्रिया ने उसे उत्साह से भर दिया, “वाह, क्या भेलपूरी बनाई है! मज़ा आ गया.”
“और ले लेना, बहुत सारी बनाई है.”
“श्योर, थैंक्स!”
नीरा दूसरे कामों में व्यस्त हो गई. बाहर से कपड़े लाकर तहकर रख रही थी कि पीछे से साहिल की पुकार सुन चौंक उठी, “पानी चाहिए था.”
“अं… हां, अभी देती हूं.”
साहिल पानी पीने लगा, तो नीरा गौर से उसे निहारने लगी. सोलह-सत्रह की वय को छूता बच्चा. नहीं, बच्चा नहीं… हल्की-हल्की उभर रही दाढ़ी-मूंछों और पिंपल्स भरे चेहरे के संग उसे बच्चा तो कतई नहीं कहा जा सकता था. चेहरे की मासूमीयत कहीं खो-सी गई थी और उसका स्थान परिपक्वता ने ले लिया था. आवाज़ भारी और गंभीर थी. शरीर
भरा-भरा…
“छी! यह मैं क्या देखने लगी? ये सारे परिवर्तन तो पराग में भी हो रहे हैं, फिर भी वह तो मुझे बच्चा ही नज़र आता है.”
“और पानी चाहिए बेटा?” अपने विचारों को झटकते हुए नीरा ने पूछा. नीरा ने ग़ौर किया, पानी पीते हुए साहिल की नज़रें उसी पर टिकी हुई थीं. वह घबराकर अपना दुपट्टा संभालने लगी.
“एक ग्लास और, बहुत प्यास लगी है.” साहिल अब भी एकटक उसे ही घूर रहा था.
“हां, लो न.” उसका ग्लास फटाफट भरकर नीरा तह किए हुए कपड़े रखने कमरे में घुस गई. उसके माथे पर पसीने की बूंदें झलक आईं. पसीना पोंछकर उसने चुपके से बाहर झांका. साहिल को स्टडी रूम की ओर लौटते देख उसने राहत की सांस ली.
कुछ देर पूर्व पढ़ी कहानी दृश्य के रूप में रूपांतरित होकर उसकी आंखों के सामने डूबने-उतराने लगी. घबराकर उसने आंखें मूंद लीं और कुछ देर के लिए बिस्तर पर लेट गई, लेकिन बेक़ाबू दिल की धड़कनें उसे बेचैन किए जा रही थीं. नीरा उठ खड़ी हुई और रसोई में जाकर खाना बनाने लगी. पीछे सरसराहट
हुई, तो वह बेतरह चौंककर पीछे की ओर मुड़ी.
“क्या हुआ ममा, इतना घबरा क्यों रही हो? मैं ही हूं.” पराग को देखकर नीरा की जान में जान आई.
“क्या बना रही हो? साहिल भी खाना यहीं खाएगा.”
“क्यों?” नीरा के चेहरे पर फिर से परेशानी के भाव उभर आए थे.
“कुछ दिक़्क़त हो, तो रहने दो.”
“नहीं, खाने की कोई परेशानी नहीं है. मेरा मतलब था, वो घर नहीं जाएगा?”
“जाएगा. प्रोजेक्ट पूरा हो जाए, फिर जाएगा. दरअसल यह हम दोनों का ज्वाइंट प्रोजेक्ट है और सोमवार तक जमा करना है, इसलिए हम दोनों सोच रहे थे कि आज ही पूरा कर लें, ताकि कल उसे फिर से न आना पड़े.”
“हां, यह भी ठीक है. अच्छा, राजमा-चावल बना रही हूं. तुम्हारे उस दोस्त को चलेगा? या और भी कुछ बनाऊं?”
“एक मिनट, पूछकर बताता हूं.” पराग लौट गया. नीरा असमंजस की स्थिति में चावल का डिब्बा हाथ में लिए खड़ी रह गई, तभी छलांग लगाता साहिल ख़ुद आ टपका. “ग्रेट यार! आपको कैसे पता चला कि राजमा-चावल मेरा फेवरेट है? बस, मेरा तो इसी से हो जाएगा. मेरे लिए और कुछ मत बनाना.” वह ख़ुशी से सीटी बजाता लौट गया, तो नीरा हैरानी से उसे ताकती रह गई.
क्या लड़का है! कितने अधिकार से अपनी पसंद बताकर लौट गया. सीटी तो ऐसे बजा रहा है, जैसे उसका अपना घर हो और क्या कहकर बोला था- यार… यह वह मुझसे बोला था या पराग से? क्या भाषा हो गई है आजकल के लड़कों की? लगता है, घर में कोई रोकने-टोकनेवाला ही नहीं है. जाने दो आज इसे, फिर पराग की ख़बर लेती हूं. जाने कैसे-कैसे दोस्त बना रखे हैं? पर पराग बेचारे का भी क्या दोष? सर ने जिसके संग काम करने को दिया है, उसके संग ही करना पड़ेगा न? दोष तो सारा अभिभावकों का है, जो शुरू से ही बच्चे को नियंत्रण में नहीं रखते. फिर बड़े होकर वे आवारा सांड की तरह इधर-उधर मुंह मारते-फिरते हैं और पिता से भी ज़्यादा दोष मैं मां को दूंगी, क्योंकि पिता यदि बच्चे का भौतिक संबल है, तो मां आत्मिक संबल. कद्दावर से कद्दावर शरीर भी तब तक उठकर खड़ा नहीं हो सकता, जब तक कि उसमें अंदर से उठने की प्रेरणा न जागे और यह प्रेरणा जगाती है मां. नीरा का मां के आत्ममंथन का पुराण जाने कब तक जारी रहता, यदि बीच में ही कुकर की सीटी न बजी होती. नीरा कुकर खोलकर राजमा मथने लगी.
“हूं… क्या ख़ुशबू है? पराग यार, कंप्यूटर बंद कर, जल्दी से आ जा. अब और सब्र नहीं हो रहा.” ख़ुुशबू सूंघता साहिल डायनिंग टेबल पर आकर जम गया था. मनपसंद चीज़ बनने पर अक्सर पराग भी ऐसा ही करता था. उसकी ऐसी हरकतों पर नीरा की ममता उमड़ पड़ती थी, लेकिन साहिल की ऐसी हरकत पर प्यार दर्शाने की बजाय वह मन ही मन खीझ उठी थी. ‘कैसा बेशर्म लड़का है. ज़रा भी सब्र नहीं है. जैसे पहली बार राजमा-चावल देख रहा हो.’
तब तक पराग रसोई में आकर खाना ले जा चुका था. “आप भी साथ ही आ जाइए न ममा. फिर अकेले खाना पड़ेगा.” पराग ने इसरार किया, तो नीरा की ममता उमड़ पड़ी. “कोई बात नहीं बेटा, तुम लोग आराम से गपशप करते हुए खाओ. मैं बाद में खाऊंगी.”
“तेरे पापा लंच पर नहीं आते क्या?” पहला चम्मच मुंह में ठूंसने के साथ ही साहिल ने प्रश्‍न उछाल दिया. इसके साथ ही कौर उसके गले में अटक गया और वह बुरी तरह खांसने लगा. तुरंत पानी का ग्लास भरकर उसे पकड़ाते हुए नीरा ग़ुस्से से बोल ही पड़ी, “मुंह में कौर हो, तो बोलना नहीं चाहिए, इतना भी नहीं सिखाया मां ने तुम्हें?”
साहिल ने तुरंत पानी का ग्लास होंठों से लगा लिया और एक ही सांस में खाली भी कर दिया. ग्लास रखने तक आंखों से आंसू निकलकर गालों तक आ गए थे. नीरा सब कुछ भूल दुपट्टे से उसके आंसू पोंछने लगी. “देखो, खांस-खांसकर कितना पानी आ गया है आंखों में? अब तुरंत यह एक चम्मच शक्कर फांक लो.” कहते हुए नीरा ने ज़बरदस्ती उसके मुंह में एक चम्मच शक्कर डाल दी. पराग हतप्रभ-सा कभी ममा को, तो कभी अपने दोस्त को ताक रहा था.
“अब वो ठीक है ममा.”
“हंह… हां.” नीरा भी स्वयं को संयत करती हुई कमरे की ओर बढ़ गई. मैं भी कुछ ़ज़्यादा ही ओवररिएक्ट कर जाती हूं. एक मिनट पहले इसी लड़के पर इतना ग़ुस्सा कर रही थी और दूसरे ही पल ज़रा-सी खांसी आ जाने पर उसी के लिए इतना फ़िक्रमंद हो गई.
नीरा कान लगाकर सुनने का प्रयास करती रही, पर डायनिंग टेबल से फिर किसी उत्साही सीटी का स्वर सुनाई नहीं पड़ा. बस, पराग की ही दबी-सी आवाज़ सुनाई देती रही. शायद बता रहा था कि पापा तो सवेरे ही खाने का डिब्बा लेकर निकल जाते हैं और देर रात घर लौटते हैं. स्कूल से लौटने के बाद उसका सारा समय मां के संग ही गुज़रता है. वे साथ खाना खाते हैं, साथ टीवी देखते हैं, शाम को बगीचे में साथ बैडमिंटन खेलते हैं. यहां तक कि जब वह होमवर्क और पढ़ाई कर रहा होता है, तब भी ममा पास ही बैठी कोई पुस्तक पढ़ रही होती हैं या बुनाई कर रही होती हैं.
“बड़ा लकी है यार तू! तेरे परीक्षा में इतने अच्छे नंबर कैसे आते हैं, अब समझ में आया.” वार्तालाप इसके बाद शायद थम-सा गया था, क्योंकि नीरा को स़िर्फ प्लेट-चम्मच की ही आवाज़ें आती रहीं. दोनों को ही शायद जल्दी खाना ख़त्म कर प्रोजेक्ट पूरा करने की चिंता लग गई थी. उनके स्टडी रूम में चले जाने के बाद नीरा ने उठकर खाना खाया और रसोई समेटकर लेट गई. कुछ ही पलों में वह नींद के आगोश में थी. आंख खुली, तो घड़ी देखकर चौंक उठी. ओह! चार बज गए. पराग को दूध देेने का समय हो गया. देखूं, उसका वह दोस्त गया या अभी यहीं जमा है. नीरा ने चुपके से स्टडी रूम में झांका, तो पाया कंप्यूटर बंद हो गया था यानी काम समाप्त हो गया था. पराग सब पेपर्स समेट रहा था और साहिल दीवार पर लगे उसके और विपुल के फोटो को बड़े ग़ौर से देख रहा था.
“यार पराग, तेरे मम्मी-पापा की लव मैरिज है या अरेंज्ड?”
“तुझे क्या लगता है?” पराग ने मज़ाक के मूड में पूछा.
“यार, तेरी मम्मी जितनी सुंदर और यंग लगती हैं न, लगता है तेरे पापा ने उनसे लव मैरिज ही की होगी.”
साहिल के जवाब से ख़ुुश होने की बजाय न जाने क्यों नीरा चिढ़-सी गई. “नहीं, अरेंज्ड मैरिज है हमारी. कोई प्रॉब्लम?” तीर की तरह नीरा एकदम सामने आई, तो दोनों दोस्त भौंचक्के-से रह गए.
“म… मैं निकलता हूं.” साहिल ने जल्दी से अपने पेपर्स उठाए और बाहर निकल गया. पराग उसे रोकता ही रह गया. नीरा फिर से अपने कमरे में जाकर लेट गई. उसका सिर यह सोचकर भारी होने लगा था कि अभी पराग अंदर आएगा और उस पर ग़ुस्सा होगा कि उसने उसके दोस्त का अपमान क्यों किया? पराग आया.
लेकिन यह क्या? नीरा हैरान रह गई, वह ग़ुस्सा होने की बजाय शर्मिंदगी महसूस कर रहा था. “आपको साहिल पसंद नहीं आया न ममा…? दरअसल, ग़लती उसकी भी नहीं है. शुरू से ही हॉस्टल में रहा है. उसे पता ही नहीं घर पर कैसे रहना चाहिए. उसके मम्मी-पापा की लव मैरिज थी. साहिल के पैदा होने के कुछ वर्ष बाद ही उनमें तलाक़ हो गया. दोनों दूसरी शादी करना चाहते थे, इसलिए कोई उसका संरक्षण लेने को भी तैयार न था. उसके पापा को जबरन उसे रखना पड़ा, तो उन्होंने उसे हॉस्टल में डाल दिया. वह तो छुट्टियों में भी घर जाने से कतराता है. अभी भी प्रोजेक्ट के बहाने रुक गया था, तो मैं उसे घर ले आया. अब आगे से…”
“आगे से जब भी छुट्टी हो, उसे तुरंत घर ले आना. मुझसे पूछने की भी ज़रूरत नहीं है. दरअसल… मुझसे ही उसे समझने में भूल हो गई.” नीरा ने कहा, तो पराग ख़ुशी से मां से लिपट गया.
नीरा सोच रही थी कि हर कहानी को हूबहूू यथार्थ के सांचे में फिट करने का प्रयास करना नादानी है. हां, कहानी से सबक लेकर यथार्थ को सुंदर बनाने का प्रयास करना बुद्धिमानी है. एक कहानी की सार्थकता भी वस्तुतः इसी में है.

       अनिल माथुर

 

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