Short Stories

कहानी- फ्रेम-दर-फ्रेम ज़िंदगी (Story- Frame-Dar-Frame Zindagi)

जिस महिला ने हमेशा से ख़ुद को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर रखा हो, लोगों के कहने के बाद भी जिसने नौकरी करते रहने को वरीयता दी हो. उसके ख़ुद ही नौकरी छोड़ने का निर्णय नितांत निजी है. पर लोग…? वो तो फिर मुझे फ्रेम में बांधने लगे.

डियर डायरी,

हर बात कहती हूं तुमसे, हर रोज़. बावजूद इसके कुछ न कुछ छूट ही जाता है. आज बिल्कुल अकेली हूं घर पर. निशांत 15 दिनों के टूर पर गए हैं. कीर्ति हॉस्टल में है. मां-पापाजी वापस लौट गए हैं, हर वर्ष की तरह तीन महीने हमारे साथ रहने के बाद. और जानती हो, आज एक बड़ी अलग-सी अनुभूति हुई है. वही बांट रही हूं तुमसे. बात शायद लंबी चले आज. देखो ना, हाथ में बैनर लेकर जीवन से इस बात पर मैंने लड़ाई कभी की ही नहीं कि मैं स्त्री हूं या मुझे कुछ कम मिला है, क्योंकि नारी होने के बेजा स्वांग की सच पूछो तो कभी ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई. हां, नारी होने के सुख को हमेशा, हर चीज़ पर भारी पाया है मैंने. जो भी सीखा अपने अनुभवों से सीखा, प्रयास से सीखा. तुमसे साझा कर-करके सीखा और कभी भी, कहीं भी ख़ुद को कमतर नहीं पाया. इस बात से बहुत ख़ुश भी हूं मैं. बस, आज मलाल हो रहा है, तो इस बात का कि यह ख़्याल पहले क्यों नहीं आया? वरना जीवन थोड़ा और आसान, थोड़ा और आज़ाद-सा हो जाता. थोड़ा बोझमुक्त और बहुत सरल हो जाता.

तुम्हें याद है? जब मैं बड़ी हो रही थी, कुछ 12 बरस से बड़ी रही होऊंगी, पर 13 की नहीं हुई थी. पीरियड्स आना शुरू ही हुए थे. तब रमा चाची ने कहा था मां से, “अब टुन्नो बड़ी हो रही है भाभीजी. हम छोटे शहर में रहते हैं, अब आप इसे फ्रॉक-व्रॉक पहनाना बंद कीजिए. अब तो सूट ही पहनना चाहिए इसे.” और मां ने अगले ही हफ़्ते तक ताईजी की बेटी चंदा दीदी के दो-तीन सूट घर पर ही मेरी फिटिंग के कर दिए और मुझसे उन्हें पहनने को कह दिया. मुझे कोई समस्या तो नहीं हुई, ना ही मैंने इसका विरोध किया. मुझे तो यह बड़े होने जैसी फीलिंग दे रहा था, क्योंकि घर की सभी बड़ी लड़कियों को सूट पहनते ही देखा था. यूं देखा जाए, तो मैं ख़ुश ही थी. हां, थोड़ी असुविधा ज़रूर हुई थी, दुपट्टा संभालते हुए साइकल चलाने में. कभी-कभी दुपट्टे साइकल में फंस जाते थे. मेरा तो नहीं फंसा, पर अर्चना का फंस नहीं गया था? जब मैं उसे अपनी साइकल के कैरियर पर बिठाकर स्कूल जा रही थी. ऐसी गिरी वो साइकल से कि माथा और घुटने छिल गए थे बुरी तरह. कमर में चोट आई सो अलग. आज सोचती हूं तो लगता है, रमा चाची ने आख़िर ऐसी सलाह मां को क्यों दी? उनकी तो ख़ुद भी एक लड़की थी और मां ने उनकी सलाह को क्यों माना? और तो और, मैंने ही क्यों माना? फ्रॉक्स बुरी तो नहीं होतीं? यह पहली थी… क़स्बे की लड़कीवाली फ्रेम.

फिर जब मैं कॉलेज में थी. को-एड कॉलेज था. हम लड़के-लड़कियां आपस में हर विषय पर बहस कर लिया करते थे. साथ-साथ आते-जाते भी थे. कभी-कभी जब सहपाठी लड़के बाज़ार में टकरा जाते थे, तो मैंने कभी उनसे बात करने में कोई झिझक महसूस नहीं की. एक बार यूं ही घर का सामान लेने गई थी और रास्ते में मनोज मिल गया. हम दोनों केमिस्ट्री के नोट्स को लेकर बात करते रहे और बातें कॉलेज की कई और बातों को जोड़ती गईं.

क़रीब-क़रीब घंटाभर सड़क के किनारे अपनी-अपनी स्कूटी को रोककर हम बतियाते रहे. फिर सामान लेकर मैं घर लौट आई. देर शाम को मां कमरे में आईं और पूछा कि मैं रास्ते में आज किससे बात कर रही थी? मैंने उन्हें बताया मनोज मिल गया था, पर ये भी पूछा कि आपसे किसने कहा इस बारे में? तो उन्होंने बताया कि पापा के एक कलीग ने मुझे सड़क पर उससे बात करते देखा, तो पापा से आकर कह गए कि आपकी बेटी एक लड़के से भरी सड़क पर गप्प लड़ा रही थी. पापा घर लौटे, तो उन्होंने मां से इसके बारे में पूछा, इसलिए वे पूछ रही हैं. मेरे जवाब से संतुष्ट मां चली तो गईं, लेकिन दूसरे दिन बातों-बातों में ये संदेश ज़रूर दे दिया कि बेटा, इस तरह सरेराह लड़कों से बात न किया करो. मैंने मां से कहा भी कि मां छुप-छुपकर तो नहीं मिले ना? और रास्ते में मिलने पर पढ़ाई की, कॉलेज की बात ही तो कर रहे थे और वो भी सरेआम? इसमें किसी को क्या दिक़्क़त होनी चाहिए? मां की सूरत थोड़ी उतर गई और मैं चाहते, न चाहते हुए भी बहुत कुछ समझ गई. ये दूसरी थी… छोटे शहर की युवतीवाली फ्रेम.

मैं हमेशा से अच्छी तरह जानती थी कि यूं देखा जाए, तो मैं औसत लुक्सवाली युवती थी, पर आत्मविश्‍वास मेरे व्यक्तित्व को हमेशा से ही कइयों से आगे ला खड़ा करता था. फिर भी कई बार जब-जब, किसी के द्वारा किसी अजीब-सी नई फ्रेम में जड़ी जाती थी मैं, पुरज़ोर विरोध नहीं कर पाती थी. एक बात रोकती थी शायद कि लोग… दूसरे लोग मुझे अच्छा नहीं कहेंगे और शायद तब समझ ही नहीं पाती थी कि फ्रेम में जड़ी जा रही हूं, तो कहती कैसे कि मुझे ऐसी फ्रेम में मत जड़ो, जिसमें मैं पूरी तरह समा ही नहीं सकती, क्योंकि मेरे स्वाभाविक व्यक्तित्व के तो कई आयाम हैं. उन्हें, उन सब को भला किस तरह फ्रेम में ़कैद किया जा सकता है? इसके लिए तो तुम्हें अनगिनत फ्रेम्स लानी होंगी, पर फिर भी कई-कई बातों में कई-कई लोगों ने कई-कई फ्रेम्स में जड़ना चाहा मेरे व्यक्तित्व को. यही सारी बातें तीसरी फ्रेम थीं जैसे… एक बड़ीवाली फ्रेम… एक बड़ी अच्छी लड़कीवाली फ्रेम.

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और वो याद है? शादी की बात चली तो निशांत के पिता के कहने पर निशांत ही हम सबसे मिलने आए थे. तब मैंने नौकरी शुरू की ही थी. एक छोटी-सी फर्म में कमर्शियल मैनेजर की. निशांत से बातचीत हुई, तो उनके सादे-से व्यक्तित्व ने मुझे बहुत प्रभावित किया था. उन्होंने कहा था कि वो चाहते हैं कि महिलाएं अपने पैरों पर खड़ी हों, जब इतना पढ़ा है तो अपनी शिक्षा का उपयोग करें. बस, इसी बात ने तो जैसे मुझे मेरा आकाश दे दिया था. मैंने तो मन बना ही लिया था कि यदि यहां से ‘हां’ हुई, तो मैं ज़रूर अपनी हामी दे दूंगी. जब निशांत के घरवाले मुझे देखने आए थे, तब उनकी मां ने कहा था, “नौकरी तो ठीक है, पर घर को निभाना पहली ज़िम्मेदारी होना चाहिए. घर को इग्नोर करके नौकरी करना तो किसी गृहिणी को शोभा नहीं देता.” तो उनकी बात जैसे सही ही लगी थी. तब तो एहसास नहीं हुआ था, पर आज लगता है ये चौथी फ्रेम थी… अच्छी बहूवाली फ्रेम.

और डायरी, वो भला तुम कैसे भूल सकती हो? मैंने उसे सबसे पहले तो तुमसे ही साझा किया था न? वो हमारी शादी के बाद का मीठा-नमकीन-सा समय? शादी के बाद के प्यार का, पहले प्यार के ख़ुमार का. बड़े से महानगर में हम दोनों का साथ-साथ लगभग भागते हुए ऑफिस के लिए निकलना. शाम घर लौटना. रात के खाने के बाद लंबी-सी वॉक पर जाना और फिर एक-दूसरे की आगोश में सब कुछ भूलकर यूं सो जाना, जैसे दुनिया में हमें इससे ज़्यादा की तो कोई ज़रूरत ही नहीं है. इस बीच भी रिश्तेदारों के घर आने पर उनका हमारे वर्किंग कपल होने की तारीफ़ करने के साथ-साथ यह कहने से भी न चूकना कि यदि तुम काम न कर रही होतीं, तो घर को और ख़ूबसूरत तरी़के से रखा जा सकता था. ये पांचवीं फ्रेम थी… सुघड़ गृहिणीवाली फ्रेम.

फिर जब जॉब के दौरान मैं अपने कलीग्स से बात करती हुई बताती कि मैं अपने घर पर ख़ुद खाना पकाती हूं, कोई मेड नहीं लगा रखी है, तो उनका तपाक से यह कहना कि खाना तो बहुत अच्छा बना है, पर जब तुम दोनों कमा रहे हो, तो मेड क्यों नहीं रख लेते? एक्चुअली, छोटे शहरों में महिलाएं नौकरी के साथ खाना घर पर बना लेती हैं, पर हम तो खाना बनाना ही नहीं जानते और जब इतना कमाते हैं, तो मेड ही क्यों न लगाएं? फिर वीकएंड तो बाहर खाना खाने के लिए ही होते हैं? ये बातें बता रही थीं कि मैं छोटे शहर से आई महिला हूं और बड़े शहर की कामकाजी औरतों में शामिल होने के लिए ये थी छठवीं फ्रेम… शहर की स्मार्ट कामकाजी महिलावाली फ्रेम.

फिर कीर्ति के मेरे जीवन में आने का वो ख़ुशनुमा वक़्त. जब डिलीवरी के लिए ससुराल गई, तो बिल्कुल अनाड़ी थी. पहले बच्चे के दौरान कौन-सी महिला अनाड़ी नहीं होती? पहली बार मां बनती है, पहली बार बच्चा संभालती है और पहली बार उस अनुभव से गुज़रती है, जिसे हमेशा दिव्य करार दिया जाता है. अपने आप में दिव्य है भी मां बनने का अनुभव, पर डायरी, ये भी एक फ्रेम में बांध दिए जाने जैसा अनुभव ही है. अच्छी बातें सब बताते हैं, पर यह कोई नहीं बताता कि बचपन से अब तक जिस तरह ढांप-ओढ़कर मर्यादा में रहना सिखाया जाता है, डिलीवरी के वक़्त डॉक्टर, एनेस्थिसिस्ट और नर्स के आगे आप निपट नंगे हो जाते हो, बिल्कुल नंग-धड़ंग. दर्द में डूबे और असहाय. हां, अपने ही शरीर से निकले एक नन्हे शिशु के लिए यह सब सहना, उसके हमारी गोद में आते ही बहुत कमतर या छोटी-सी घटना जैसा लगता है. पर ये भी एक सच तो है ना? इसके बारे में कुछ न बताकर फिर आपको एक अच्छी मां के फ्रेम में बांध दिया जाता है. बात तो इसके आगे की भी है. डायरी! स्तनपान को यूं तो बड़ा ग्लोरिफाई करके दिखाया जाता है और एक बच्चे के लिए यह आवश्यक भी है. कीर्ति को भी तो मैंने ब्रेस्टफीड कराया ना? वो भी उसके दो साल के होने तक. पर बहुत से हार्मोनल बदलावों से गुज़र रही नई-नई मां को अपने शिशु को स्तनपान कराने के लिए शुरुआत में कितनी गहन पीड़ा से गुज़रना पड़ता है? इसका ज़िक्र कोई नहीं करता, क्यों? और ऐसी अस्त-व्यस्त-सी स्थिति में आपकी साड़ी, दुपट्टा अपनी जगह से हट जाए, तो आने-जानेवाली महिलाएं आपके दर्द को, आपकी रात की पूरी न हुई नींदों को अनदेखा करते हुए यह बताने से नहीं चूकतीं कि भले ही नई मां बनी हो तो क्या, शउर से रहना तो सीखो. ये सातवीं फ्रेम है… चुस्त-दुरुस्त मां वाली फ्रेम.

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जानती हो डायरी, ये फ्रेम्स जैसे ख़त्म ही नहीं होतीं, जिनमें हर महिला को बांध दिया जाता है या बांधने का प्रयास किया जाता है, बड़े हौले-से. और इनके शीशों में उतरने लगता है उसका व्यक्तित्व. कब? उसे भी पता ही नहीं चलता. याद है? जब कीर्ति दो-तीन साल की हुई थी. इन तीन वर्षों तक तो मुझे वर्क फ्रॉम होम दे ही दिया था कंपनी ने. मैं रोज़ाना कीर्ति को नीचे लेकर जाती थी शाम को, दूसरे बच्चों के साथ खिलाने, वहां अमूमन होममेकर्स ही मिलती थीं, अपने बच्चों के साथ. कामकाजी महिलाओं के बच्चे तो उनके दादा-दादी, नाना-नानी या मेड्स के साथ ही नीचे आते थे. एक दिन मैं कुछ बच्चों की मांओं के साथ बात कर रही थी कि अचानक कीर्ति कहीं नज़र नहीं आई. मैं उसे ढूंढ़ने गई, तो पाया कि वो थोड़ी ही दूर पर कुछ दूसरे बच्चों के साथ खेल रही है. वह मेरे साथ आने को तैयार नहीं हुई, तो मैंने वहां खड़ी एक मेड से कीर्ति का ध्यान रखने को कहा और उन महिलाओं का रुख किया, जिनसे मैं बात कर रही थी. वे मुझे आते देख नहीं सकीं और उनकी बातें मुझे सहज सुनाई दे गईं. उनमें से एक महिला दूसरी से पूछ रही थी, “क्या वाकई कीर्ति की मां कुछ काम करती है?” तो दूसरी महिला ने कहा, “कहती तो है, पर सच-झूठ ईश्‍वर जाने.” तीसरी बोली, “जिस तरह अकड़ती है, लगता है काम करती ही होगी.” चौथी ने कहा, “यदि कामकाजी होती, तो हम होममेकर्स के ग्रुप में आकर बात थोड़े ही करती?” मैं उल्टे पांव कीर्ति के पास लौट गई, क्योंकि फिर एक फ्रेम में बांधी जा रही थी… होममेकर/कामकाजीवाली फ्रेम.

फिर जब मैंने कीर्ति को समझा-बुझाकर क्रैश में रहने को राज़ी किया और फुलटाइम काम पर जाने की शुरुआत की, तो मैं, तुम और निशांत ही जानते हैं डायरी कि पहले के 15 दिनों तक वह मेरे लिए क्रैश के अंदर रोती थी और मैं उसके लिए उतनी ही देर क्रैश के बाहर ज़ार-ज़ार रोती थी. उसके चुप होने पर वह भली-सी क्रैश ओनर मुझे बाहर आकर इशारा कर देती थी कि वह चुप हो गई है और मैं मुरझाया-सा मुंह लेकर घर लौट पड़ती थी. कभी-कभी तो क्रैश ओनर कहती थी कि मुझे बहुत गिल्ट होता है. अंदर कीर्ति रोती है और बाहर आप. कीर्ति को मैं संभाल लूंगी, क्योंकि बच्चों को बहलाना आता है मुझे, पर आपका रोना मैं बर्दाश्त नहीं कर पाती. फिर कीर्ति को क्रैश की आदत लगाकर जैसे ही पहले दिन ऑफिस पहुंची, तो सबसे क्लोज़ कलीग ने ही एक और फ्रेम में बांध दिया. उसने कहा, “अरे, तुमने जॉइन कर लिया, इतनी छोटी-सी बच्ची को छोड़कर?” ये बड़ी निर्दयी फ्रेम थी… एक निर्मोही मां वाली फ्रेम.

और तुम तो जानती हो डायरी, मैं और निशांत एक ही बच्चा चाहते थे. आख़िर ये हमारा ़फैसला था. कीर्ति के इस दुनिया में आने से पहले ही निशांत ने मुझसे कह दिया था, “हमारा आनेवाला बच्चा बेटा हो या बेटी, पर होगा इकलौता ही.” मेरे क्यों? पूछने पर उन्होंने कहा था, “मैं इतना निष्ठुर नहीं हो सकता कि तुम्हें दोबारा लेबर पेन से गुज़रने दूं.” उनका जवाब सुनकर मेरी आंखें भर आई थीं. डायरी, और मैं कसकर लिपट गई थी उनसे. फिर हम पर घर-परिवार, रिश्तेदारों और कलीग्स का दबाव-सा आने लगा. जैसे वही हमारे दूसरे बच्चे को पालेंगे. आश्‍चर्य की बात है डायरी, जब घर-परिवार और रिश्तेदारों से मिलो, तो वे इकलौते बच्चे के बिगड़ने के संदेहों से घिरे और जब कलीग्स से मिलो, तो वे डबल इनकम सिंगल किड के तमगे से नवाज़ते हुए फिर बांधने लगे अलग-अलग फ्रेम्स में. पर इस बार की फ्रेम्स में मैं अकेली नहीं थी, निशांत भी थे. मैंने देखा इस बार फ्रेम में जड़े जाने को लेकर मैं हर बार की तरह सोच में डूबी थी, पर निशांत… उन्होंने ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. शायद इस फ्रेम का कोई दबाव महसूस नहीं किया उन्होंने, क्योंकि शायद वे पुरुष हैं, क्योंकि पुरुषों की कंडीशनिंग अलग तरह की होती है और शायद पहली बार उन्हें कोई किसी तरह की फ्रेम में जड़ने की कोशिश कर रहा था, तो जैसा कि मेरे साथ भी पहली बार हुआ था कि मैंने बिना कुछ महसूस किए सलवार-सूट सहजता से पहन लिया था, वही उनके साथ हुआ. उन्होंने सलवार-सूट पहनने की यानी दूसरा बच्चा करने की हामी तो नहीं भरी, पर सहज बने रहे.

फिर मेरे सामान्य, सहज ढंग से रहने, ज्वेलरी को नापसंद करने, ब्रैंडेड कपड़ों को ख़ास तवज्जो न देने पर मेरे अपने ही क़रीबी रिश्तेदारों का ये कहना कि आप कामकाजी हो, पर कामकाजी लगती तो नहीं हो. एक अलग तरह की फ्रेम थी. और इसी तरह पार्टीज़ में ज़्यादा दिलचस्पी न लेने को देखते हुए कलीग्स ने भी मुझे एक और फ्रेम में जड़ दिया… नीरस महिलावाली फ्रेम. ऐसे ही सास-ससुर के घर आने पर अपनी मर्ज़ी से कुछ महीनों के लिए ऑफिस में सलवार-कमीज़ पहनकर जाने को कलीग्स ने पू बनी पार्वती और आ गईं बहनजीवाली फ्रेम में जड़ दिया.

इस बीच 10 वर्ष तक नौकरी की और अपनी मेहनत से प्रमोशन भी बटोरती गई मैं. लोगों ने इस बीच भी कई फ्रेम्स में जड़ा, जैसे- बुरी बॉस फ्रेम, किस्मतवाली फ्रेम, चाटुकार महिला फ्रेम वगैरह… पर इन्हें इग्नोर करती रही मैं. देखो न डायरी, इन सभी फ्रेम्स को इग्नोर भले ही किया हो, पर मन के किसी कोने में आज भी ये मौजूद हैं, मतलब इनसे अप्रभावित तो नहीं रही न मैं? यही बताना चाहती हूं तुम्हें कि लोगों की अपेक्षाओं पर कान देती, उनके मुताबिक फ्रेम्स में ढलने की कोशिश करती मैं. मैं तो रह ही नहीं पाई, आज लगता है ये.

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तुम कह सकती हो डायरी कि मैं बहुत ज़्यादा संवेदनशील हूं, पर मुझे पता है तुम नहीं कहोगी. तुम तो मेरी अपनी हो ना? तुम मुझे किसी फ्रेम में भला क्यों जड़ोगी? इन सभी बातों से क़तरा-क़तरा मेरा व्यक्तित्व बना है और तुमसे बेहतर कौन जानता है यह? अब आगे की सुनो, तुम्हें याद तो होगा ही कि अभी कीर्ति टीनएज में आने भी न पाई थी कि उसे लेकर मुझे हर ओर से यह सुनाई देने लगा था… लड़की है, बड़ी हो रही है, अकेली बेटी है, बच्चियों को संभालने की उम्र है, एक ही तो बच्ची है, तुम्हें क्या ज़रूरत है इतना कमाने की, नौकरी करने की. इन आरोपों में लापरवाह मां, लालची मां की फ्रेम में जड़ी जा रही थी मैं.

सबसे अच्छी बात यह रही कि निशांत ने कभी मुझे किसी फ्रेम में नहीं जड़ा. बस, यहीं आकर ईश्‍वर की कृतज्ञ रही हूं हमेशा. उम्र बढ़ रही थी, थकान बढ़ रही थी, एक ही जगह काम करते हुए मोनोटोनी बढ़ रही थी और मां हूं, तो कहीं न कहीं इस बात का पूरा इल्म था कि अब कीर्ति बड़ी क्लास में आ रही है. उसे पढ़ने के लिए तो नहीं, पर पढ़ाई के दबाव से जूझने के लिए अपने आसपास मेरी उपस्थिति की दरकार है. अचानक एक दिन मैंने निशांत से कहा, “मैं नौकरी छोड़ना चाहती हूं.” उन्होंने मेरी बातों को सुना, मेरी बातों के वज़न को तौला और कहा, “जैसा तुम चाहो.”

जिस महिला ने हमेशा से ख़ुद को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर रखा हो, लोगों के कहने के बाद भी जिसने नौकरी करते रहने को वरीयता दी हो, उसके ख़ुद ही नौकरी छोड़ने का निर्णय नितांत निजी है. पर लोग…? वो तो फिर मुझे फ्रेम में बांधने लगे. अरे, इतने साल नौकरी की है, अब घर कैसे बैठ पाओगी? थोड़े दिन अच्छा लगेगा, इसके बाद पछताओगी. और यहां मुझ पर मढ़ी जा रही थी… ग़लत निर्णय लेनेवाली महिला की फ्रेम.

नौकरी छोड़ने के बाद थोड़ा खालीपन लाज़मी था. इसी खालीपन के बीच ही तो ये सोच नमूदार हो गई. इन सारी बातों को सोचते हुए आज लगा कि मैं इन फ्रेम्स में बंधते-बंधते, फ्रेम-दर-फ्रेम ज़िंदगी जीते-जीते अपने वास्तविक व्यक्तित्व से परे चूं-चूं का मुरब्बा हो चली थी. बहुत-सी फ्रेम्स में बंद चूं-चूं का मुरब्बा. आज सोच लिया है कि अब इन फ्रेम्स से आज़ाद होना है. इस तरह कि अब कभी इनमें कोई भी मुझे जड़ न पाए. और जानती हो डायरी, सबसे मज़ेदार बात क्या है? घर में मौजूद सारे फ्रेम्स को मैंने उठाकर स्टोर में उस जगह रख दिया है, जहां हर माह कबाड़ी को देने के लिए चीज़ें इकट्ठा करती हूं, क्योंकि अब मुझे ये फ्रेम्स कहीं नहीं चाहिए. न दिल में, न दिमाग़ में और ना ही घर में. मैं ख़ुद के और दूसरी महिलाओं के लिए अनंत आकाश चाहती हूं और बस चले तो मैं दुनिया की हर महिला के दिल में बसी ऐसी फ्रेम्स को निकालकर फेंक दूं… आज, अभी और इसी वक़्त. सच! नए आकाश का पंछी तुम्हारी उन्मुक्त-सी शिखा.

 

शिल्पा शर्मा

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