कहानी- आंखें बोलती हैं 3 (Story Series- Aankhen Bolti Hain 3)

“हां गुड़िया, पर मुझे एक बात आज तक समझ नहीं आई कि बिन बताए उनकी परेशानी तुम कैसे समझ गई थी, कितनी छोटी थी तुम.”

“समझनेवाली बात क्या थी मां, इंसान की आंखें सब बोलती हैं. बस पढ़नेवाला चाहिए.”

“हां, यही कारण होगा. बड़े लोग अपने जीवन की आपाधापी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि किसी की आंखों की तो क्या, मुंह से कही बात भी पकड़ नहीं पाते. अच्छा एक बात बता, तुझे आज चंदा की आंखों में कुछ नज़र नहीं आया? वो कितनी थकी हुई, खोई-खोई सी काम कर रही थी, जैसे कोई ज़िंदा लाश हो. तभी उसकी नज़र हम पर नहीं पड़ी.”

रूबी को सुनकर थोड़ा धक्का लगा.

“हां मां, याद है. काका की वो झूठी खोखली हंसी, उदास पनीली आंखें… कितना दर्द छिपा था उनमें.” रूबी उदास हो चली, उसकी आंखों के सामने वह दृश्य जीवंत हो उठा, जब वह काका की चिंता में दादाजी के पास भागी-भागी गई थी. “दादाजी, देखो मेरे रघु काका को क्या हुआ है. आज अच्छे से बात भी नहीं कर रहे हैं. ज़रूर उनकी तबीयत ख़राब है. उन्हें डॉक्टर को दिखाओ.” पीछे पड़ गई थी उनके. मजबूरन दादाजी को सब काम छोड़कर पहले रघु काका से बात करनी पड़ी, उनका हाल जानना पड़ा. तब पता चला कि उनका बेटा बहुत बीमार था. इलाज के लिए पैसों की सख़्त ज़रूरत थी, मगर उनका स्वाभिमान किसी के आगे हाथ फैलाने में कतरा रहा था. तब दादाजी ने उन्हें पैसे देकर मेरी ओर देखा था और बोले थे, “अब ख़ुश. अब तो मेरा पीछा छोड़ मेरी मां.”

“हां गुड़िया, पर मुझे एक बात आज तक समझ नहीं आई कि बिन बताए उनकी परेशानी तुम कैसे समझ गई थी, कितनी छोटी थी तुम.”

“समझनेवाली बात क्या थी मां, इंसान की आंखें सब बोलती हैं. बस पढ़नेवाला चाहिए.”

“हां, यही कारण होगा. बड़े लोग अपने जीवन की आपाधापी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि किसी की आंखों की तो क्या, मुंह से कही बात भी पकड़ नहीं पाते. अच्छा एक बात बता, तुझे आज चंदा की आंखों में कुछ नज़र नहीं आया? वो कितनी थकी हुई, खोई-खोई सी काम कर रही थी, जैसे कोई ज़िंदा लाश हो. तभी उसकी नज़र हम पर नहीं पड़ी.”

रूबी को सुनकर थोड़ा धक्का लगा, “नहीं मां. मुझे तो उसे वहां देखकर ऐसी आग लगी कि इसके बाद मुझे न कुछ दिखा, न मैंने कुछ सुना. तुम्हें ऐसा क्या नज़र आया उसकी आंखों में?”

“मैंने उसकी आंखों में और चेहरे पर वही रघु काकावाली उदासी देखी थी गुड़िया.”

“क्या कह रही हो मां.”

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“हां बेटा, एक बात कहती हूं, परसों जब वह आएगी, तो पहले उससे बात करना, उसकी सुनना, फिर कोई निर्णय लेना.”

“ठीक है मां. अच्छा ये तो बताओ आपके मोबाइल में ये फोटो पहुंची कैसे?” चंदा प्रकरण से असहज हो चली रूबी ने बातों का रुख बदला.

“इस बार तेरा भाई जब घर आया था, तो सारी पुरानी एलबम बैठकर स्कैन कर डाली और मोबाइल में डाल दी. कहने लगा मम्मी एलबम में रखे-रखे इनमें दीमक लग जाएगी, इसलिए इन्हें डिजिटल बना रहा हूं. हमेशा साथ और पास रहेंगी. जब मर्ज़ी देख लो.”

मां-बेटी की ऐसी ही बातों में दो दिन गुज़र गए. रूबी का मन अब शांत था. सुबह चंदा अपने तय समय पर आ गई. रूबी ने बड़े सहज भाव से पूछा, “अरे चंदा, तेरा गांव का काम ख़त्म हुआ कि नहीं?”

“हां दीदी, हो गया.” चंदा नीची नज़रें किए थोड़ा हकलाते हुए बोली.

“अच्छा, मुझे नहीं पता था तेरा गांव सनसिटी सोसायटी में ही है…” रूबी ने मुस्कुराते हुए कहा.

सुनकर चंदा के पैरों तले ज़मीन निकल गई, चेहरे पर ऐसी हवाइयां उड़ीं जैसे किसी चोर की हालत रंगे हाथों पकड़े जाने पर होती है. वो बुरी तरह घबराकर बोली, “दीदी वो…”

“मैं भी वहां गई थी. तुझे वहां काम करते देखा, इसीलिए पूछ रही हूं.” रूबी बिल्कुल संयत थी. “ऐसी क्या बात हो गई चंदा, जो तुझे वहां काम करना पड़ा? पहले ही तेरे पास इतने काम हैं, ज़्यादा काम करेगी, तो शरीर थकेगा. पिछले महीने ही तुझे बुख़ार आया था. अभी कमज़ोरी पूरी तरह गई भी नहीं है.”

चंदा बेहद आश्‍चर्य में थी. उसका झूठ और धोखा पकड़ने के बाद भी दीदी इतने प्यार से बोल रही हैं. उसका अपराधबोध आंखों के रास्ते बह निकला. सुबकते हुए कहने लगी, “क्या करती दीदी. छोटे की फीस भरनी थी. फीस न भरने पर मास्टरजी ने उसे पूरे दिन कक्षा से बाहर खड़ा रखा था.”

“पर तेरा तो बड़ा बेटा भी नौकरी करता है ना? फिर…?”

“कहां दीदी, वो तो चार महीने से घर पर बैठा है. आपसे जो फीस भरने के लिए एडवांस लिया था, वह पूरा मेरी बीमारी पर ही ख़र्च हो गया था.”

“अरे, तो मुझसे क्यों नहीं बोली?” रूबी ने उसके कंधे थपथपाए.

“क्या बोलती दीदी. एक आप ही हो, जो ज़रूरत पर मदद कर देती हो. बाकीलोगों ने तो बीमारी की छुट्टी के भी पैसे काट लिए. आप से कितना मांगूं. मुझे शर्म आती है दीदी.” चंदा बुरी तरह फफकने लगी.

“मुझे माफ़ कर दो दीदी.”

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“माफ़ी किस बात की चंदा. तू आख़िर मां है. अकेले अपने बच्चों को पाल रही है. मैं तो तुझे वहां देखकर ही समझ गई थी कि तू बहुत परेशानी में ही आई है, वरना कभी ऐसा न करती. आगे से ऐसी कुछ बात हो, तो बता दिया कर. मुझसे शर्माने की ज़रूरत नहीं. तू भी तो मेरी ज़रूरत पर कितना एक्स्ट्रा काम कर देती है. लोग ऐसे ही एक दूसरे के काम आते हैं. चल अब चुप हो जा, मैं पहले तेरे लिए चाय बनाती हूं. चाय पीकर काम शुरू करना.”

दिल का बोझ उतर चुका था. चंदा का भी और रूबी का भी. रूबी रसोई में चाय बनाने जा रही थी, चंदा पल्लू से आंख-नाक पोंछ रही थी और निर्मलाजी अपनी बिटिया को देख मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं, क्योंकि उन्हें वहां 35 साल की सेल्फ सेंटर्ड आधुनिका रूबी नहीं, बल्कि छह साल की गुड़िया नज़र आ रही थी, जो आंखों की बोली समझती थी.

    दीप्ति मित्तल

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