मनुष्य का जीवन बड़ा अनमोल है व भाग्य से ही प्राप्त होता है. यदि इसका कुछ हिस्सा बिल्कुल अपने लिए, अपनी तरह से जी लिया जाए, तो यह ग़लत तो नहीं कहलाएगा न? वैसे तुम्हारी आधुनिकता की परिभाषा में मेरा यह कृत्य समा पाएगा या नहीं, यह मैं नहीं जानती. पर मेरी बेटियों का हठ, आग्रह और इच्छा भी यही है. जीवन के सुनहरे क्षणों को मैंने रिया व सपना के भविष्य की ख़ातिर होम कर दिया, इसका उन्हें एहसास है. अब जीवन के शेष दिन मैं अपने लिए जीऊं, यही मेरी व मेरी बेटियों की भी कामना है.
आज हमारी दोनों बेटियां आत्मनिर्भर हैं व अपने-अपने पतियों के साथ ख़ुश हैं. उनकी ज़िम्मेदारियों से निवृत्त होने के साथ ही मेरा इस घर से संबंध भी ख़त्म हो जाता है.
हां, अब यह बता दूं कि मैं कहां जा रही हूं और क्यों जा रही हूं? तो पहले प्रश्न का उत्तर है कि अवधेषजी को तो तुम अच्छी तरह जानते हो, जो मेरे साथ ही हिन्दी के प्रो़फेसर हैं, जिन्हें तुम पंडितजी कहते हो… तो उन्हीं अवधेषजी व मैंने यह तय किया है कि जीवन के अंतिम पड़ाव पर शेष दिन हम एक साथ रहकर गुज़ारेंगे.
रहा दूसरा प्रश्न ‘क्यों’? तो तुम्हें यह स्पष्ट बता दूं कि मैं तुमसे कोई तलाक़ नहीं चाहती हूं, क्योंकि मेरा अवधेषजी से विवाह करने का कोई विचार नहीं है और न ही दैहिक आकर्षण या आवश्यकता के तहत मैंने उनके साथ रहने का निर्णय लिया है. यदि देह ही प्रमुख होती, तो तुम्हारा घर मैं पंद्रह वर्ष पूर्व ही छोड़ चुकी होती.
समाज को समझाने के लिए न मैं इस झूठ का सहारा लूंगी कि मैं अवधेषजी को अपना धर्मभाई मानती हूं. हां, तुमसे भी ये झूठ नहीं कहूंगी कि हम दोनों केवल अच्छे मित्र ही हैं, क्योंकि वास्तव में हम केवल मित्र ही नहीं हैं, बल्कि उससे बढ़कर हैं एक-दूसरे के लिए.
हमने पाया है कि मन की धरा पर भावनात्मक स्तर पर हम दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. एक-दूसरे के लिए स्त्री-पुरुष नहीं, बल्कि केवल इंसान हैं, जिनके बीच आत्मीयता का सेतु स्थापित हो चुका है. इन आत्मिक संबंधों को कोई नाम दे पाना कठिन होगा. हां, तुम सही मायने में हमें साथी कह सकते हो.
मनुष्य का जीवन बड़ा अनमोल है व भाग्य से ही प्राप्त होता है. यदि इसका कुछ हिस्सा बिल्कुल अपने लिए, अपनी तरह से जी लिया जाए, तो यह ग़लत तो नहीं कहलाएगा न? वैसे तुम्हारी आधुनिकता की परिभाषा में मेरा यह कृत्य समा पाएगा या नहीं, यह मैं नहीं जानती. पर मेरी बेटियों का हठ, आग्रह और इच्छा भी यही है. जीवन के सुनहरे क्षणों को मैंने रिया व सपना के भविष्य की ख़ातिर होम कर दिया, इसका उन्हें एहसास है. अब जीवन के शेष दिन मैं अपने लिए जीऊं, यही मेरी व मेरी बेटियों की भी कामना है.
हां, सपना-रिया की तुम फ़िक्र न करना मैंने उनके मन में तुम्हारे मान-सम्मान को बरक़रार रखने की पूरी कोशिश की है. उन्हें मैंने अच्छी तरह समझाया है कि तुम घर के बाहर जो भी करते रहे हो, पर उनकी मां के प्रति सारी व्यावहारिक ज़िम्मेदारियां तुमने बख़ूबी निभाई हैं. इतना ही नहीं, अपने असामान्य संबंधों की फ्रस्टेशन तुमने कभी बच्चियों पर नहीं निकाली. उनके लालन-पालन व प्यार के प्रति तुम्हारी निष्ठा शत-प्रतिशत रही है.
स्निग्धा श्रीवास्तव
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