… कितनी प्यारी लग रही थी, जैसे किसी के प्यार में डूबी ख़ामोश लड़की… यूं ही दिल से एक पंक्ति निकली, “चांद खिड़की पे आके बैठ गया, तो क्यूं ये आसमान रूठ गया…” मैं ख़ुद पर हैरान रह गया… कलमकार अभी भी ज़िंदा है मुझमे, मुझे तो लगा था कंप्यूटर कोडिंग लिखते-लिखते, प्रपोजल, प्रेजेंटेशन बनाते मेरे अंदर का कवि मर चुका है… सच ही कहते हैं लोग, सामने ऐसी इंस्पिरेशन हो, तो कविता ख़ुद निकल आती है…
“सर, एक रिक्वेस्ट है…”
“हां कहो.” मैं ख़्यालों से बाहर निकला, वैसे इस वक़्त हक़ीक़त ख़्याल से कम हसीं नहीं थी.
“सर, क्या मैं ऑफिस आपके साथ जा सकती हूं… इफ यू डोंट माइंड? एक्च्युली ऑफिस कैब की वेट करते-करते एक-डेढ़ घंटा यूं ही वेस्ट होता है…” उसकी मासूम आंखें मिन्नतें कर रही थीं और मैं कतरा-कतरा पिघल रहा था.
“यस, वॉय नॉट… लेकिन मेरे वापस आने का कोई समय नहीं है, अक्सर लेट हो जाता हूं.” मैं बेक़रारी छिपाते हुए बोला.
“इट्स ओके सर, मुझे भी यहां अकेले क्या काम है… एक्स्ट्रा टाइम में ऑफिस में कुछ नया सीख लूंगी…”
“हम्म…”
“थैक्यूं सर, यू आर सच अ…” कुछ कहते हुए संभली, क्या कहने जा रही थी… क्या ‘डार्लिंग’ जैसा कुछ… “यू आर सो स्वीट…” उसने बात पूरी की और रसोई में सुगंधा के पास चली गई. अगली ग़ज़ल शुरु हो चुकी थी- ‘तेरे बारे में जब सोचा नहीं था, मैं तन्हा था, मगर इतना नहीं था…’
पूरी रात बेचैनी में गुज़री. दीया की मुझ पर ठहरी नज़रें सोने नहीं दे रही थी. उसकी आंखों से मेरे लिए पसंदगी टपकती थी और ये बात मुझे गुरूर से भर रही थी. मगर शायद वो अपनी लिमिट जानती थी और मैं भी…
अगली सुबह मॉनसून ने पहली दस्तक दी थी. आज बाहर का मौसम भीतरी मौसम से मिलता-जुलता था, कुछ उमड़ता-घुमड़ता… ख़्याली बादलों से घिरा…
“ये आज तुम्हें इस मौसम में भी पसीना क्यों आ रहा है?” सुगंधा ने मुझे रूमाल देते हुए मेरे माथे को छुआ.
“बुखार है क्या?”
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“नहीं तो… थोड़ा गर्मी लग रही है बस…” कैसे कहता कौन-सा बुखार चढ़ा है तुम्हारे पतिदेव को…
“हाय राम कहीं बीपी तो नहीं बढ़ गया… ज़रा भी ख़्याल नहीं है अपना…”
दीप्ति मित्तल
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