पूजा के परफॉर्मेंस पर पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. पहली पंक्ति में बैठा उसका पूरा परिवार उसका हौसला बढ़ा रहा था. उनके साथ बैठी अनु भी बहुत ख़ुश थी, लेकिन उसके चेहरे पर छाए मायूसी के बादल लाख छुपाने पर भी साफ़ नज़र आ रहे थे. उसे इस बात का दुख हो रहा था कि इतना पढ़-लिखकर भी वह कुछ नहीं कर पा रही है, उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है.
“आदि, पड़ोस की पूजा दीदी हैं ना, आज उनका डांस शो है यशवंत राव चव्हाण हॉल में. मुझे भी इनवाइट किया है, लेकिन मैं कैसे जाऊं? मांजी को ये थोड़े ही कह सकती हूं कि आप यश को संभालो और मैं पूजा दीदी का शो देखने जा रही हूं.”
“कुछ घंटों की तो बात है, चली जाओ शो देखने. मां से कह दो, वो यश को संभाल लेंगी.” आदित्य ने बात को संभालते हुए कहा.
“सच कहूं, तो कभी-कभी पूजा दीदी के नसीब पर रश्क होता है. बड़ी क़िस्मतवाली हैं वो. इस उम्र में भी अपने सारे शौक़ पूरे कर रही हैं और परिवार के लोग भी उन्हें पूरा सपोर्ट करते हैं. पिछले महीने ही उनका उपन्यास छपा था. तब भी उनके पति और परिवारवालों ने उनका ख़ूब हौसला बढ़ाया था.
एक मैं हूं, कोई पूछनेवाला नहीं कि मेरी भी कोई ख़्वाहिश है, ज़रूरत है. बस, दिनभर नौकरानी की तरह सबके आगे-पीछे घूमते रहती हूं कि किसी की शान में कोई गुस्ताखी न हो जाए मुझसे. किसी काम में कोई कमी न रह जाए… बच्चे की ज़िम्मेदारी भी जैसे अकेले मेरी ही है. तंग आ गई हूं मैं एक जैसी नीरस ज़िंदगी जीते-जीते.”
“अनु, तुमसे किसने कहा कि नौकरानी की तरह रहो. ये तुम्हारा अपना घर है. तुम जैसे चाहो रह सकती हो. किसी काम में मदद चाहिए तो बेझिझक कह दिया करो. हां, जहां तक बच्चे की ज़िम्मेदारी की बात है, तो उसमें मैं तुम्हारी ज़्यादा मदद नहीं कर सकता. मां की घुटनों की तकलीफ़ से तुम वाकिफ़ हो. वो यश के आगे-पीछे नहीं दौड़ सकती. ऐसे में हम दोनों में से किसी एक को घर पर रहकर बच्चे की देखभाल करनी ही होगी. तुम कहो तो मैं…”
आदित्य की बात को बीच में ही काटते हुए अनु चिढ़कर बोली, “अब उपदेश देकर महान बनने की कोशिश मत करो. मैंने भी आपकी तरह कड़ी मेहनत करके एमबीए की डिग्री हासिल की है, मुझे भी कई बड़ी कंपनियों से जॉब ऑफर आए थे, लेकिन शादी के बाद सब ख़त्म हो गया. औरत हूं ना, मेरी मेहनत या क़ाबिलियत की क़द्र कौन करेगा? मैं पूजा दीदी जितनी नसीबवाली कहां हूं.”
अब आदित्य को भी ग़ुस्सा आ गया था. वो चिढ़कर बोले, “मैं भी तंग आ गया हूं तुम्हारे रोज़ के झगड़े से. आख़िर तुम चाहती क्या हो? तुम्हारी ख़ुशी के लिए मैं यश को बेबी सिटिंग में भी रखने को तैयार हूं, ताकि तुम जॉब कर सको, लेकिन तुम बच्चे को वहां भी नहीं रखना चाहती. अब तुम ही बताओ कि मुझे क्या करना चाहिए. मैं तुम्हारी हर बात मानने को तैयार हूं.”
“कुछ नहीं… बस, मुझे अकेला छोड़ दो.” कहते हुए अनु कमरे से बाहर निकल गई.
मुंबई शहर के हज़ार स्क्वेयर फीट के फ्लैट में अनु और आदित्य का झगड़ा मां के कानों तक न पहुंचता, ये तो संभव नहीं था, फिर भी उन्होंने चुप्पी साधे रखी. बेटे-बहू के झगड़े में वे कम ही बोलती हैं, ताकि घर में शांति बने रहे.
आदित्य के ऑफ़िस जाने के कुछ देर बाद जब अनु काम करते हुए गुनगुनाने लगी, यश के साथ खिलखिलाते हुए बातें करने लगीं, तो मां को लगा, अब अनु से बात की जा सकती है. वे जानती हैं, अनु दिल की बुरी नहीं है. बस, जब उसे महसूस होता है कि उसकी सारी पढ़ाई, काम का दायरा घर के भीतर ही सिमटकर रह गया है, तो वह चिढ़ जाती है. उसकी जगह कोई भी लड़की होती, वो भी ऐसा ही करती, इसलिए वे उसकी बातों का बुरा नहीं मानतीं, उल्टे आदित्य को ही चुप रहने और शांति बनाए रखने को कहती हैं.
“अनु, तुम पूजा का डांस शो देखने ज़रूर जाओ. 3-4 घंटे की ही तो बात है, फिर आदित्य भी आज जल्दी घर आनेवाला है. मैं यश को संभाल लूंगी. वैसे भी तुम कई दिनों से घर से बाहर नहीं निकली हो.” मां ने अनु के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा.
“थैंक्यू मॉम..! यू आर सो स्वीट ! सच, बहुत मन था पूजा दीदी का शो देखने का. आपने मेरी ख़्वाहिश पूरी दी.” कहते हुए अनु मां से लिपट गई.
अनु की हरक़तें आज भी बच्चों जैसी हैं. पल में तोला पल में माशा. मन में कुछ नहीं रखती. जो जी में आया कह देती है, इसीलिए मां को उसकी किसी भी बात का बुरा नहीं लगता.
हाल ही में ख़रीदी नई ड्रेस पहनकर जब अनु घर से निकली, तो गुड़िया जैसी प्यारी लग रही थी. उसकी यही चंचल हरक़तें घर में रौनक बनाए रखती हैं.
रास्तेभर वह पूजा से उसके शो के बारे में बातें करती रही. बातों ही बातों में उसने पूजा से यह तक कह दिया कि उसके नसीब और शोहरत से उसे कई बार ईर्ष्या होने लगती है. पूजा रास्तेभर चुपचाप उसकी बातें सुनती रही.
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फिर जब शो शुरू हुआ, तो पूजा के परफॉर्मेंस पर पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. पहली पंक्ति में बैठा उसका पूरा परिवार उसका हौसला बढ़ा रहा था. उनके साथ बैठी अनु भी बहुत ख़ुश थी, लेकिन उसके चेहरे पर छाए मायूसी के बादल लाख छुपाने पर भी साफ़ नज़र आ रहे थे. उसे इस बात का दुख हो रहा था कि इतना पढ़-लिखकर भी वह कुछ नहीं कर पा रही है, उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है.
कमला बडोनी
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