कहानी- बापू से पापा तक…1 (Story Series- Bapu Se Papa Tak…1)

 

बापू को अपने सहकर्मियों की पत्नियों के सामने मां का सीधापन कांटे की तरह चुभने लगा. उन्हें मां में अनेक नुक़्स नज़र आने लगे. गांव में जन्में और पले बापू में कुछ अधिक ही बदलाव आ गया था. वह अपने सहकर्मियों से भी अधिक आधुनिक दिखने का प्रयत्न करते. चाहते, घर में अंग्रेज़ी ही बोली जाए, विशेषकर बच्ची के साथ, ताकि वह अन्य बच्चों की तरह फरार्टेदार अंग्रेज़ी बोल सके.

किसी दूसरे की कहानी सुनाना कितना आसान है, आपबीती कहना कितना कठिन!
‘इतनी बड़ी दुनिया में मैं शीघ्र ही बिलकुल अकेली रह जानेवाली हूं’ यह भयावह सत्य मेरे सामने था. हस्पताल के बिस्तर पर नीम बेहोशी में पड़ी, दर्द से छटपटाती मां. ईश्वर से न यह मांग सकती थी कि ‘उन्हें उठा ले, दर्द से मुक्ति दे’ और न ही यह कह सकती थी कि ‘इन्हें मत ले जाओ, मेरा क्या होगा?’ क़स्बे में रहती, अकेली लड़की. कैसे जिएगी इस निर्मम दुनिया में?
एकदम अनिश्चित था भविष्य. अपने अतीत को खंगालती रहती, कोई तो सुराग़ मिले, कोई तो राह दिखे.
धुंधली-सी याद थी बापू की- बहुत धुंधली. अधिकतर तो मां से सुनी हुई बातें ही थीं. बचपन से ही बहुत तीव्र बुद्धि के थे बापू. गांव के अपने मास्टर से ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछते कि वह भी निरुत्तर रह जाते. पर भले मानुष! क्रोध नहीं करते. ढूंढ़-ढूंढ़कर बच्चे की जिज्ञासा पूरी करते. उसका मार्गदर्शन करते. इधर-उधर से पुस्तकें लाकर देते उसे पढ़ने के लिए. दादाजी से कहते, “बहुत होनहार है तेरा बेटा. ख़ूब पढ़ाना इसे.”
बोर्ड की परीक्षा बहुत अच्छे अंकों से पास कर ली. गांव में तो आगे स्कूल था नहीं. मास्टरजी ने दादु को समझाया कि पास के शहर में भेज दें. प्रबन्ध सब वह कर देंगे. “ऊंचा अफ़सर बनेगा तुम्हारा बेटा. कलक्टर बनेगा एक दिन.” दादु बड़ी-बड़ी डिग्रियों के नाम नहीं जानते थे, पर कलक्टर शब्द समझते थे. बस एक समस्या थी, दादू चाहते थे कि बापू पहले विवाह कर ले. दरअसल, दादु ने अपने बेटे का विवाह उनके बचपन में ही अपने एक मित्र की बेटी के साथ तय कर रखा था. मां जब सोलह की हुईं, तो उनके पिता शीघ्र विवाह करने का आग्रह करने लगे. दादु ने प्रस्ताव रखा, “विवाह कर लो उसके बाद तुम जितना चाहो पढ़ने के लिए आज़ाद हो. दुल्हनिया हमारे संग रहेगी. जब तक तुम नौकरी नहीं करने लगते, तब तक हम करेंगे उसकी देखभाल.” अत: बीए में ही बापू का विवाह कर दिया गया और मां अपने ससुराल में आकर रहने लगीं. छुट्टियों में ही आ पाते बापू अपने घर.
मां ने बापू की बात शिकायती लहजे में कभी नहीं की. अपनी ही कमज़ोरी मानती रहीं. अपने ही सिर लेतीं रहीं पूरा इल्ज़ाम.
आईएएस की ट्रेनिंग पूरी होने पर नौकरी लगते ही बापू हमें फ़ौरन अपने पास ले गए. मां बताती हैं मैं तब चार वर्ष की ही थी.
कुछ दिन तो- महीने भी नहीं- ठीक से गुज़रे, परन्तु शीघ्र ही बापू को अपने सहकर्मियों की पत्नियों के सामने मां का सीधापन कांटे की तरह चुभने लगा. उन्हें मां में अनेक नुक़्स नज़र आने लगे. गांव में जन्में और पले बापू में कुछ अधिक ही बदलाव आ गया था. वह अपने सहकर्मियों से भी अधिक आधुनिक दिखने का प्रयत्न करते. चाहते, घर में अंग्रेज़ी ही बोली जाए, विशेषकर बच्ची के साथ, ताकि वह अन्य बच्चों की तरह फरार्टेदार अंग्रेज़ी बोल सके. एक शिक्षिका भी लगा दी, जो मुझे और मां दोनों को पढ़ाती थी. कोशिश भी की मां ने, परन्तु नहीं सीख पाईं वह अंग्रेज़ी के टेढ़े-मेढ़े नियम. मेहनत करने पर भी नहीं. बापू धीरज खोने लगे. उन के मित्र आते, तो मां ख़ामोश बैठी रहतीं, जबकि बापू चाहते थे कि वह मित्र पत्नियों की तरह स्मार्ट हो जाएं, उनकी तरह खुलकर बात करे. अनेक जगह भ्रमण कर चुके बापू ने वह दुनिया देखी थी, जो तेज़ी से बदल रही थी- बदल चुकी थी. जबकि मां उस रफ़्तार से नहीं भाग पाईं. दूरियां बढ़ती गईं. मां ने अपनी हार मान ली. पति के ताने सुन-सुनकर सीधी-सादी मां का आत्मविश्‍वास डगमगा गया था शायद और उन्होंने प्रयत्न करना ही छोड़ दिया.

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मां ने गांव लौट जाने की इच्छा ज़ाहिर की, तो बापू ने सहर्ष इजाज़त दे दी. मां को उम्मीद थी कि शायद वह उन्हें रोक लेंगे. बच्ची की ख़ातिर या फिर परिवार में बदनामी होने के डर से, पर बापू के तो मन की बात पूरी हो रही थी, अत: वह चुप्पी साध गए. मां ने मुझे भी संग ले जाने की अनुमति चाही, तो वह भी दे दी और बापू द्वारा क़ानूनी तलाक़ का किया अनुरोध मां ने स्वीकार कर लिया. जब साथ रहना नहीं, तो बांधे रहने से क्या लाभ? बापू ने हर माह ख़र्च भेजने का वादा किया.

उषा वधवा

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