कहानी- बापू से पापा तक… 2 (Story Series- Bapu Se Papa Tak…2) 

कुछ रिश्ते पिछले जन्मों से ही चले आते हैं शायद. बहुत कहती मुझसे कि मैं आराम कर लूं वे बैठेंगी मां के पास, पर कहां जाती मैं मां को छोड़कर? अकेले घर में? यहां मां तो हैं सामने, बिस्तर पर हैं, पर दिखाई तो दे रही हैं. इनके सिवा मेरा कौन था? मेरा मन ही न करता वहां से उठने को.

अनगिनत आशाओं, आकांक्षाओं, भविष्य के अनेक सुनहरे सपनों के साथ तय किए जाते हैं विवाह संबंध! उनमें कितने रेत के महलों की तरह ढह जाते हैं कौन रखता है इस बात का हिसाब? बेटी का ब्याह करना पिता का सामाजिक कर्तव्यों है, जो उसे पूरा करना ही है. विवाह पश्चात वह सुखी है दुखी, यह समाज की ज़िम्मेदारी नहीं, बेटी का भाग्य है.
दंड पाता है निर्दोष बच्चा.
मां न मायके गईं न ससुराल. परित्यक्ता का तमग़ा माथे पर लगा वह परिचितों में नहीं रहना चाहती थीं. पीहर में वह किस-किस को जवाब देतीं? ससुराल किस हक़ से जातीं? सो राजपुर नामक पास के एक क़स्बे में चली आईं.
वहां के मंदिर के पुजारी मां के परिचित थे, अत: वहीं जा आसरा लिया.
पुजारीजी वहां के निवासियों को अच्छी तरह से जानते थे. उन्होंने गिरधारीलाल का कमरा किराए पर दिलवा दिया. वह क़स्बे के उच्च माध्यमिक स्कूल के प्रिंसिपल थे. उनकी पत्नी मैथिली भी पढ़ी-लिखी महिला थीं. निसंतान होने से उन्हें अपना घर बहुत बड़ा लगने लगा था. पैसे से अधिक उनकी इच्छा थी कि घर में कुछ रौनक़ आ जाए. अत: बाहर की तरफ़ खुलनेवाला कमरा वह किराए पर चढ़ाना चाहते थे. इस अनजानी जगह पर कमरे का मिल जाना किसी सौभाग्य से कम नहीं था. सही कहते हैं जब एक द्वार बंद होता है, तो कहीं-न-कहीं एक खिड़की स्वयंमेव खुल जाती है.
किस उम्र तक माना जाता है बचपन? क्या बचपन की सीमारेखा की उम्र सब की एक होती है? मैं तो तभी बड़ी हो गई थी, जिस दिन पिता का घर छूटा था. हर दिन एक नई समस्या ले आता था. मां उदास रहती, पर कहतीं कुछ नहीं. न ही बापू के विरुद्ध कभी एक शब्द भी कहा. रेडीमेड कपड़े तैयार करनेवाली फैक्टरी में काम ले लिया. घर पर ले आतीं काम और रात देर तक करतीं रहतीं.
गिरधारीलाल क़स्बे के सबसे अच्छे स्कूल के प्रिंसिपल थे. उन्होंने मेरा भी उसी स्कूल में दाख़िला करवा दिया. शीघ्र ही इन लोगों से आत्मीयता बढ़ गई. मैथिली आंटी मेरी मौसी बन गई. उम्र में वह मां से बड़ी थीं. शिक्षित और समझदार भी थीं. उन्हें मां का सरल स्वभाव अच्छा लगता था और वह मां से छोटी बहन समान स्नेह करने लगीं.
मौसी की सलाह पर मां ने अपनी मशीन ख़रीदकर घर पर ही सिलाई का काम प्रारम्भ कर दिया. इसमें लाभ अधिक था, पर लोगों का आना-जाना शुरू हो गया. मौसी ने अपने ही एक कमरे में मेरे लिए मेज़ लगा दी, ताकि मेरी पढ़ाई में व्यवधान न पड़े.
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मुझे बाद में पता चला कि बापू ने तीन-चार माह तक नियमित रूप से मनीऑर्डर भेजा था, जिसे मां ने हर बार लौटा दिया. बहुत खुद्दार थीं वह. उन्हें इस बात का क्षोभ था कि उन्हें बिना अपराध के दंड भोगना पड़ रहा था. उन्होंने अपनी मर्ज़ी से तो नहीं किया था यह विवाह!
गांव का स्कूल आठवीं तक था और शहर जाकर पढ़ने का तो सवाल ही नहीं था. बड़ों द्वारा ही तय किए जाते थे सब नियम. वही लेते थे सब निर्णय. विशेषकर लड़कियों के मामले में. उनकी मर्ज़ी तो कभी नहीं पूछी गई. समय लग गया था मां को हालात से समझौता करने में, पर अकेले जूझते हुए समय के साथ-साथ मां का आत्मविश्‍वास बढ़ने लगा. एक-एक करके दिन बीत ही रहे थे, पटरी पर समगति से चलती गाड़ी के समान कि ठीक सामने एक पर्वत आन खड़ा हुआ. सामनेवाली पटरी के एकदम बीच में.
मां की तबीयत कुछ दिनों से ठीक नहीं चल रही थी, पर मुझे नहीं बताया गया. न ही इस तरफ़ मेरा ध्यान ही गया. बोर्ड की परीक्षाएं सिर पर थीं और मेरा अधिक समय तो मैथिली मौसी के कमरे में पुस्तकों पर झुके ही बीतता था. जिस दिन अंतिम परीक्षा देकर आई और दिनभर कमरे में पड़ी रही, तो मां की तरफ़ ध्यान गया. वे निश्चय ही पहले से कमज़ोर लग रही थीं और हर थोड़ी देर बाद जाकर लेट जातीं. पूछने पर बताया, “पेटदर्द है, होता ही रहता है. चूरन खा लेती हूं, पर ठीक नहीं हो रहा. डॉक्टर के पास गई थी. उसने कुछ टेस्ट बताए हैं. अब तुम्हारी परीक्षाएं समाप्त हो गई हैं, कल चलेंगे टेस्ट करवाने.”
टेस्ट करवाए और डॉक्टरों ने आंत का कैंसर बताया. मां को तुरंत हस्पताल में भर्ती कर लिया गया. ऑपरेशन भी हुआ, परंतु डॉक्टरों ने शुरू में ही कह दिया कि आपने आने में बहुत देर कर दी है. कैंसर बहुत फैल चुका है. मौसी ने किसी सगे के समान ही मेरी सहायता की. खाना बनाकर लातीं, कपड़े धो लातीं- हर रोज़. कुछ रिश्ते पिछले जन्मों से ही चले आते हैं शायद. बहुत कहती मुझसे कि मैं आराम कर लूं वे बैठेंगी मां के पास, पर कहां जाती मैं मां को छोड़कर? अकेले घर में? यहां मां तो हैं सामने, बिस्तर पर हैं, पर दिखाई तो दे रही हैं. इनके सिवा मेरा कौन था? मेरा मन ही न करता वहां से उठने को. कोई आशा नहीं थी मां के बचने की, बस तीव्र वेदना से बचाए रखने का प्रयास भर कर रहे थे डॉक्टर. और दिनभर उनके पास बैठे बीतता मेरा दिन. वह दर्दनिवारक इंजेक्शन ले बेहोशी में पड़ी रहतीं और मैं पास बैठी रहती. मेरे हाथों से मां का सुरक्षात्मक आंचल तेज़ी से खिसक रहा था और मैं उस आंचल का एक कोना थामे बैठी थी- ख़ामोश और अवश.
पुरानी हर स्मृति को बार-बार दोहराती.

उषा वधवा

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Usha Gupta

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