“क्या बात है लल्ली इस बार तुम कुछ उदास लग रही हो?”
मुझसे कोई उत्तर न पा वह उठकर मेरे पास आ बैठीं और मैंने उनकी गोदी में सिर रख दिया. मौसी ने मेरे बालों में हाथ फेरते हुए फिर से कहा, ”मुझसे नहीं कहोगी?” तो मेरे आ आंसुओं का बांध टूट गया. मौसी से बात करने ही तो आई थी मैं, पर बात शुरू करने में ही झिझक हो रही थी.
मौसी की चिन्ता स्वभाविक थी. पूछा,” पापा-मम्मी से कोई बात हो गई क्या?”
“पापा मेरा विवाह तय कर रहे हैं.” मुझसे इतना सुनते ही वह ज़ोर से हंस पड़ीं.
कोई उत्तर न पा मैंने कहा, “मुझसे दूरी बनाने के लिए ही यदि आपने मंगनी कर ली है, तो मैं स्वयं ही आपसे दूर चली जाती हूं. आप स्वतंत्र हो अपनी मनमर्ज़ी करने के लिए.”
अपनी बात पूरी कर मैं लौट गई.
मैंने पापा से मौसी से मिल आने की अनुमति ली. उनसे तो तीन-चार दिन ही का कहा, किन्तु जल्दी लौटने का मन था नहीं. मौसी के सिवा किससे करती अपने मन की बात?
मुझसे मिलकर मौसी बहुत प्रसन्न हुईं और मेरी सफलता पर गौरान्वित भी. मौसी मेरे आने की बेसब्री से प्रतीक्षा किया करती थीं. मौसा अल्पभाषी थे और अधिक समय पढने-लिखने में ही व्यतीत करते थे. उनका कमरा लाइब्रेरी की तरह लगता था, जिसके तीन तरफ़ पुस्तकों से भरी आलमारियां थीं. अवकाश प्राप्ति के बाद तो उनका पूरा दिन ही वहीं बीत जाता. मौसी अकेली पड़ जातीं. मैं आती, तो हम एक संग घूमने निकलते. इस बार भी मेरे आने के अगले दिन वह बोलीं, “बहुत दिनों से परदे बदलने की सोच रही हूं, पर कोई साथ ही नहीं मिल रहा था कपड़ा पसन्द करने के लिए.”
बहुत बदल चुका था मेरा वह पुराना क़स्बा. बड़ी-बड़ी दुकानें, नए-नए भोजनालय. पहले केवल साइकिल रिक्शा ही होते थे कहीं जाने के लिए. दूर जाना हो, तो तिपहिया स्कूटर ढूंढ़ा जाता. दिन में दो बार बस आती थी, एक सुबह और एक शाम को. अब तो वाहनों से भरी हुई थी सड़कें. क़स्बा न रह कर राजपुर ने अब एक छोटे शहर का रूप ले लिया था.
इतना सब होते हुए और बाज़ार के दो चक्कर लगाने पर भी अपने परदों के लिए कोई डिज़ाइन पसन्द न आया मौसी को. यह तो बाद में पता चला कि वास्तव में उन्हें परदे लेने ही नहीं थे और वह बाज़ार के चक्कर मेरा मन बहलाने का बहाना मात्र थे. मन उदास था मेरा, यह वो जान गईं थीं, किन्तु चाह रही थीं कि वह ज़बर्दस्ती दख़लअंदाज़ी न करें और जब मैं स्वयं बात करने को तैयार हो जाऊं, तभी बात हो.
और मैं थी कि बात करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रही थी.
तीसरे दिन मौसी ने स्वयं ही मुझे आ घेरा. रात को मैं लेटी थी. नींद तो नहीं आ रही थी, परन्तु सोने का उपक्रम अवश्य कर रही थी कि मौसी आकर बोलीं, “चलो आज मैं भी इसी कमरे में सो जाती हूं. ढेर सारी बातें करेंगे.” कहकर पासवाले पलंग पर लेट गईं. कुछ समय इंतज़ार करने के बाद बोलीं, “क्या बात है लल्ली इस बार तुम कुछ उदास लग रही हो?”
मुझसे कोई उत्तर न पा वह उठकर मेरे पास आ बैठीं और मैंने उनकी गोदी में सिर रख दिया. मौसी ने मेरे बालों में हाथ फेरते हुए फिर से कहा, ”मुझसे नहीं कहोगी?” तो मेरे आंसुओं का बांध टूट गया. मौसी से बात करने ही तो आई थी मैं, पर बात शुरू करने में ही झिझक हो रही थी.
मौसी की चिन्ता स्वभाविक थी. पूछा, “पापा-मम्मी से कोई बात हो गई क्या?”
“पापा मेरा विवाह तय कर रहे हैं.” मुझसे इतना सुनते ही वह ज़ोर से हंस पड़ीं.
“इस बात से परेशान है क्या मेरी लल्ली? यह तो अच्छी ख़बर है. वह न ढूंढ़ते तो मुझे ढूंढ़ना पड़ता तेरे लिए कोई योग्य वर. स्वयं तो तू ढूंढ़ने से रही.”
मेरे लिए मन की बात कहना और कठिन हो गया.
“मुझे नहीं करनी उन लड़कों से शादी, जो वह देख रहे हैं.”
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मेरे शब्दों से कोई संकेत मिला उन्हें अथवा चेहरे पर फैल गई लज्जा की लाली से, पता नहीं पर समझ गईं वह.
बोलीं, “क्यों तुम्हारी कोई अपनी पसन्द है क्या?” मैंने हां में ज़ोर से सिर हिला दिया, परन्तु तब भी बोल कुछ न पाई एकदम से. उनके दुबारा पूछने पर ही थोड़ा-थोड़ा करके ही मैंने उन्हें बताई सब बात. बात शुरू करना कठिन लगा था, पर कह चुकने पर मन हल्का हो गया. पिछले दिनों जिस अकेलेपन ने घेर रखा था, अपनी समस्या से अकेले जूझने के भय ने, उससे जैसे छुटकारा मिल गया.
जोशीजी से कई बार मिल चुकी थीं वह. बहुत पसन्द करती थीं उन्हें, पर अब तो एक व्यवधान आ गया था, उनकी मंगनी हो चुकी थी.
“यदि जोशीजी से मेरा विवाह नहीं हुआ, तो मैं विवाह करूंगी ही नहीं. आप पापा से कह दो. वह पापा की बात कभी नहीं टालते.” मैंने मौसी से कहा.
“तो क्या तुम ज़बर्दस्ती विवाह करोगी जोशीजी से?” मौसी ने पूछा.
“प्यार की भीख मांगोगी उनसे? पहले यह भी तो पता चले कि उनके मन में क्या है. सयानी औरतें कहती हैं कि लड़की को विवाह उससे करना चाहिए, जो उसे चाहता हो, न कि उससे जिसे वह चाहती हो. वैवाहिक जीवन में सुख पाने की यह सबसे बड़ी गारण्टी है.”
उषा वधवा
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