जब मौसी को यह निश्चित हो गया कि जोशीजी भी यही चाहते हैं, तो उन्होंने पापा से बात करने की ज़िम्मेवारी स्वयं पर ले ली. जोशीजी को उसी दिन वापिस भेज दिया एवं दो दिन बाद मुझे घर पहुंचाने के बहाने वह मेरे साथ देहरादून आ गईं, ताकि सामने बैठकर बात कर सकें. पापा ने एक आपत्ति इस बात को लेकर भी की कि उम्र में अंतर काफ़ी है, परन्तु मेरा निश्चय दृढ़ देखकर उन्हें मानना ही पड़ा.
मौसी ने जोशीजी को टेलीफोन करके पहले उनका हालचाल पूछा. यह भी बताया कि मैं आजकल उनके पास हूं, जो वह पहले ही जान चुके थे. जोशीजी ने जब मेरे बारे में पूछा, तो मौसी ने उनसे कहा, ‘वैसे तो ठीक ही है, पर बहुत उदास व परेशान है. मुझे कुछ बता भी नहीं रही.”
यह सुनते ही जोशीजी ने कहा, “मैं सुबह वहीं आ रहा हूं.”
रविवार का दिन था वह. भोजन के समय तक पहुंच गए जोशीजी. जब तक मौसाजी बैठे थे इधर-उधर की बातें होती रहीं. पुस्तकों पर चर्चा और राजनीति पर बहस हुई, पर फिर मौसाजी अपना अधूरा पड़ा लेख पूरा करने अपने कमरे में चले गए और मौसी ने बात छेड़ी.
जोशीजी को सगाई की मुबारक देते हुए मौसी ने अपनी नज़र उनके चेहरे पर टिकाए रखी. न ही जोशीजी ने कोई उत्तर दिया और न ही उनके चेहरे पर प्रसन्नता का कोई भाव आया. मौसी ने इसी बात को पकड़कर कहा, “क्यों क्या हुआ? ऐसा लग नहीं रहा कि तुम इस सगाई से ख़ुश हो. लड़की तो तुम्हारे पसन्द की है न?”
मौसी के बात आगे बढ़ाने से पहले ही मैं मेज़ पर से बर्तन उठा रसोई में चली गई. जोशीजी कहीं यह कह देते कि उन्होंने अपनी इच्छा से ही की है यह सगाई और वह पूर्णत: ख़ुश हैं, तो मैं सहज न रह पाती.
पर जोशीजी ने शायद कुछ उत्तर नहीं दिया. कुछ क्षण पश्चात मौसीजी की ही फिर से आवाज़ आई, “मुझे तो ऐसा लगता रहा है जैसे वैशाली और आपकी बहुत बनती है, बहुत चाहते हो एक-दूसरे को. और इसके पापा भी आपको बहुत मानते हैं, तो फिर अड़चन क्या थी?”
जोशीजी कुछ पल ख़ामोश रहे फिर धीमे स्वर में बात शुरु की. मुझे कुछ सुनाई दी, कुछ बाद में मौसी से पता चली. उनका कहना था, “अपने सीनियर का विश्वासपात्र होना और उनकी बेटी से प्यार करने लगना बहुत अंतर है दोनों में. सर ने वैशाली को पूर्णत: मेरे भरोसे छोड़ रखा था. ऐसा प्रस्ताव रखने से उन्हें लगता मैंने उनके भरोसे को तोड़ा है. ग़लत फ़ायदा उठाया है उनके विश्वास का. मैं एक बहुत साधारण परिवार से हूं, जबकि सर प्रायः ही अपने उच्चकुलीन ब्राह्मण होने की बात किया करते थे. वैशाली के लिए रिश्ता ढूंढ़ने की बात करते समय उन्होंने इस बात की अनिवार्यता तो नहीं रखी थी, परन्तु आग्रह ज़रूर किया था.
जब वह वैशाली के लिए वर ढूंढ़ने की बात मुझसे कर रहे थे, तो मैंने किस कठिनाई से स्वयं पर क़ाबू रखा यह मैं ही जानता हूं.
आप सही कह रही हैं बहुत चाहता रहा हूं मैं वैशाली को. मुझे वह पहले ही दिन से अच्छी लगने लगी थी. ऐसी विलक्षण बुद्धि होने पर भी ऐसा सरल स्वभाव!
पर सर ने मुझे उपयुक्त नहीं समझा, तभी तो उसके लिए वर तालाश रहे हैं न! इसलिए भी मैं उनसे कहने की हिम्मत नहीं कर पाया.
वैशाली के प्यार को भी जानता हूं मैं. सब समझ रहा था और इसलिए इससे दूरी बनाने का प्रयत्न कर रहा था. जब मुझे लगा वह इतनी सरलता से अपने पापा का सुझाया प्रस्ताव नहीं स्वीकारेगी, कहीं अन्यंत्र विवाह करने को जल्दी से हामी नहीं भरेगी, तो मुझे यही एक रास्ता दिखाई दिया. हट जाऊं इसके जीवन से सदा के लिए. अंजली के पिता काफ़ी दिनों से उसका विवाह मुझसे करवाना चाह रहे थे. मैंने इनकार कर दिया, तो सर से भी कहलवाया था उन्होंने.”
जब मौसी को यह निश्चित हो गया कि जोशीजी भी यही चाहते हैं, तो उन्होंने पापा से बात करने की ज़िम्मेवारी स्वयं पर ले ली. जोशीजी को उसी दिन वापिस भेज दिया एवं दो दिन बाद मुझे घर पहुंचाने के बहाने वह मेरे साथ देहरादून आ गईं, ताकि सामने बैठकर बात कर सकें. पापा ने एक आपत्ति इस बात को लेकर भी की कि उम्र में अंतर काफ़ी है, परन्तु मेरा निश्चय दृढ़ देखकर उन्हें मानना ही पड़ा.
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बीस वर्ष होने को आए जोशीजी से जीवन साझा करते हुए. हां मैं आज भी उन्हें इसी नाम से सम्बोधित करती हूं. हम दोनों का ही करियर बेहद कामयाब रहा. दोनों ने ही अनेक ऊंचे मुक़ाम छुए. कभी संग रहने को मिला और कभी अलग-अलग भी रहना पड़ा, परन्तु पहली बार की उस टैक्सी यात्रा में जो एक-दूसरे के प्रति सम्मान उपजा था, वह आज भी क़ायम है.
विभोर अमेरीका पढ़ने गया, तो वहीं का होकर रह गया. पढ़ाई, नौकरी और फिर अमेरीका में बसी भारतीय मूल की लड़की से विवाह भी कर लिया. दो-तीन वर्ष में आता तो है, पर उसे यहां का अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता. भीड़ बहुत है, गंदगी है… यही कहता रहता है. आता भी अकेला है, क्योंकि उसकी पत्नी को लगता है कि यहां आकर बच्चे बीमार पड़ जाते हैं, सो जोशीजी पूरी तरह से निभा रहे हैं बेटे का फ़र्ज़.
मम्मी की पांच वर्ष पहले सर्जरी हुई थी, तो मैने उनकी पूरी देखभाल की. हस्पताल भी संग रही और घर आकर भी, जब तक वह चलने-फिरने लायक न हुईं.
पापा की अब उम्र हो चली. अब इन दोनों को ही सहारे की आवश्यकता है, अत: अब हम स्थाई रूप से देहरादून आ बसे हैं, पापा के ही घर में. उसी घर में जहां एक दिन सिंथेटिक सूट पहने और अपने अनिश्चित भविष्य से डरी-सहमी सी मैं आकर खड़ी हुई थी.
मम्मी अब वास्तव में मुझे बेटी-सा प्यार करने लगी हैं, दिखावे की ज़रूरत नहीं. हमारे दोनों बच्चे तो नाना-नानी से इतना जुड़े हैं कि स्कूल से आते ही सीधे उनके पास जाते हैं. और बच्चों के कहीं चले जाने पर नाना-नानी दोनो उदास हो जाते हैं.
उषा वधवा
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