कहानी- बस एक पल 3 (Story Series- Bas Ek Pal 3 )

वह तड़पकर बोली, ‘‘बिल्कुल ठीक कहते हो. नहीं माफ़ कर सकी मैं तुम्हें आज तक…! और न शायद कर सकूंगी. तुम्हें कोई हक़ नहीं था अतुल किसी की भावनाओं से खेलने का. नहीं माफ़ कर सकी तुम्हें, क्योंकि तुम्हारी कायरता की सज़ा मैंने भोगी है अतुल…! तुम्हारे चले जाने के बाद भी मैं तुम्हारा इंतज़ार करती रही थी, इस आस पर कि तुम्हें जब भी मेरे प्यार की गहराई का एहसास होगा, तुम लौट आओगे मेरे पास…”

वह भी मुझे देख कर स्तब्ध थी, ‘‘अतुल तुम…?’’ वह इंसान, जिसे मैं बरसों से तलाश रहा था, वह आज अचानक इस तरह मेरे सामने आ खड़ी होगी, मैंने सपने में भी इसकी कल्पना नहीं की थी! मैं अब तक यक़ीन नहीं कर पा रहा था कि सिया… मेरी अपनी सिया… मेरे सामने खड़ी है! कितना कुछ कहना चाहता था उससे, पर न ज़ुबान साथ दे रही थी, न मन!
मैंने अचरज से कहा, ‘‘सिया, तुम हो निशांत की मां…?’’
वह दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘हां… मैं ही हूं निशांत की मां…!’’ मैंने मुस्कुराने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा, ‘‘लगती तो नहीं हो. बिल्कुल भी नहीं बदली हो तुम! बस, ये चश्मा लग गया है.’’
वह ठहरे हुए स्वर में बोली, ‘‘हां… ठीक कहते हो, मैं आज भी वैसी ही हूं, जैसा तुम मुझे छोड़कर भाग गए थे…! आज भी उतनी ही हतप्रभ- क्या और कैसे हो गया ये सब…?’’
मैंने दबे स्वर में पूछा, ‘‘माफ़ नहीं कर सकी न मुझे आज तक…? तुम तो जानती थी न कि मैं मजबूर था सिया!’’
वह तड़पकर बोली, ‘‘बिल्कुल ठीक कहते हो. नहीं माफ़ कर सकी मैं तुम्हें आज तक…! और न शायद कर सकूंगी. तुम्हें कोई हक़ नहीं था अतुल किसी की भावनाओं से खेलने का. नहीं माफ़ कर सकी तुम्हें, क्योंकि तुम्हारी कायरता की सज़ा मैंने भोगी है अतुल…! तुम्हारे चले जाने के बाद भी मैं तुम्हारा इंतज़ार करती रही थी, इस आस पर कि तुम्हें जब भी मेरे प्यार की गहराई का एहसास होगा, तुम लौट आओगे मेरे पास… वो शहर छोड़ने के आख़िरी पल तक मैं तुम्हें तलाशती रही. तुमसे मिलने, तुमसे बात करने की कोशिश करती रही, पर सब व्यर्थ था… फिर भी दिल को कहीं-न-कहीं ये भरोसा था कि तुम मुझे यूं छल नहीं सकते. यक़ीन था मुझे कि एक दिन तुम आओगे और कहोगे, ‘बस, बहुत हो गया सिया, बहुत धोखा दे लिया ख़ुद को…, सच तो यह है कि मैं नहीं रह सकता तुम्हारे बिना… और बस एक पल में सब ठीक हो जाएगा…’’
अपनी आवाज़ में उतर आई नमी को संभालकर सिया ने कहा, ‘‘…इसी उम्मीद के सहारे जाने से पहले तुम्हारे दोस्त मनीष को अपना पता दे गई थी, पर उससे कहा था कि पता तुम्हें तभी दे जब तुम मांगो, जब तुम ख़ुद मुझे तलाशो, वरना नहीं! पर तुमने न मुझे तलाशा, न उससे मेरे बारे में पूछा…! मैं बार-बार उससे तुम्हारे बारे में पूछती- ‘क्या वह मुझे याद करता है? क्या मुझे तलाशता है? क्या मेरी ज़रूरत महसूस करता है?’ पर मेरे हर सवाल का जवाब उसकी चुप्पी ही होती थी. उसने मुझे कितना समझाना चाहा कि मैं भूल जाऊं तुम्हें… पर मैं जाने किस चमत्कार के घटित होने का इंतज़ार कर रही थी. मुझे लगता था कि तुम ज़्यादा दिन मुझसे अलग न रह सकोगे और मुझे ढूंढ़ते हुए आ जाओगे एक दिन और ले जाओगे अपने साथ… फिर एक दिन उसने बताया कि तुम्हारी शादी हो गई है… उस दिन दिल के किसी कोने में जलता उम्मीद का आख़िरी दीया भी बुझ गया था…!’’
इतना कहकर वह ख़ामोश हो गई. फिर जैसे ख़ुद से ही सवाल करती हुई बोली, ‘‘लाख सिर पटकूं, पर एक सवाल का जवाब नहीं मिलता कि तुम भी मुझसे प्यार करते थे, फिर तुम्हारे पलायन की… हमारे अलगाव की वजह क्या थी? क्या कमी थी मुझमें, जो इस तरह बीच रास्ते मुझे छोड़कर भाग गए तुम…?’’
मैंने सिर झुकाकर कहा, ‘‘डरता था सिया… डरता था मम्मी-पापा के इंकार से… डरता था कि उन्होंने इंकार कर दिया, तो मैं तुम्हें खो दूंगा…!’’ मेरी बात सुनकर सिया बहुत ज़ोर से हंसी, पर उसकी वह हंसी जैसे मेरे कानों में पिघला शीशा उड़ेल गई थी.
वह बोली, ‘‘तो क्या इसके बाद भी तुम मुझे पा सके अतुल…? यह क्यों नहीं कहते कि तुम मुझे पाना ही नहीं चाहते थे. तुम्हें कभी प्यार था ही नहीं मुझसे… तुम डरते थे अपने मम्मी-पापा के सामने अपनी छवि के धूमिल हो जाने से… मैं ही पागल थी, जो उन्मुक्त पवन को अपनी बांहों में थामने की कोशिश कर रही थी. बस, यही बात हर पल तड़पाती है मुझे कि तुमने एक बार भी मुझे पाने की कोशिश नहीं की. लड़ने से पहले ही हार मान ली तुमने… मैं तुम्हें माफ़ नहीं कर सकती…!’’
सिया की बात सुन अतुल ने बुझे स्वर में कहा, ‘‘तुम जो चाहे कह सकती हो सिया, आज सारे अधिकार हैं तुम्हारे पास… पर हर इंसान के जीवन में कुछ ऐसे पल आते हैं, जिनमें वह बहुत कमज़ोर पड़ जाता है और बस एक पल ऐसा ही था वो, जिसमें मैंने तुमसे दूर जाने का निर्णय ले लिया था. यह तो बाद में समझ में आया कि उस एक कमज़ोर पल के निर्णय ने कितनी तबाही मचा दी थी.’’

– कृतिका केशरी

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